बहुमुखी प्रतिभा के धनी भगवतशरण उपाध्याय

(पुण्यतिथि : १२ अगस्त १९८२)
शैलेन्द्र चौहान
भारतीय बौद्धिक जगत् के शिखर पुरुष भगवतशरण उपाध्याय एक विराट् तथा बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे एक ऐसे जनपक्षधर बुद्धिजीवी थे, जिन्होंने अपने महान् बौद्धिक क्रियाकलापों से अध्ययन, चिंतन तथा लेखन के क्षेत्र में भारत की सांस्कृतिक विरासत को समृद्ध और सम्पन्न बनाया। उपाध्याय जी का व्यक्तित्व एक पुरातत्त्वविज्ञ, इतिहासवेत्ता, विचारक, आन्दोलनकर्ता तथा प्रखर देशभक्त का व्यक्तित्व था। यह हमारे हिन्दी जगत् के बौद्धिक दिवालिएपन का ही द्योतक है कि उनके जीते जी और उनके न रहने के बाद भी उनके सृजन व चिंतन पर विशेष कुछ नहीं लिखा गया। एक लम्बे औपनिवेशिक शासन ने हमारे देश में साम्राज्यवाद समर्थक बुद्धिजीवियों का एक ऐसा खेमा तैयार किया जो हमेशा यह दलील देता रहा कि साम्राज्यवादी संरक्षण के बगैर भारत का विकास संभव नहीं है। भगवतशरण उपाध्याय हमेशा ही इस धारणा को नकारते रहे। उनका सृजन व चिंतन पूरी तरह साम्राज्यवाद-विरोधी रहा। अपने सांस्कृतिक, सामाजिक व बौद्धिक इतिहास के प्रगतिशील तत्त्वों को उद्घाटित करते हुए उन्होंने एक जनपक्षधर सांस्कृतिक योद्धा की भूमिका निभाई। भगवतशरण जी का जन्म उत्तरप्रदेश के बलिया जनपद में सन् १९१० में हुआ था। पिता पण्डित रघुनन्दन उपाध्याय बलिया के एक प्रतिष्ठित वकील थे। उन्होंने स्वाधीनता संघर्ष में सक्रिय शिरकत तो नहीं की पर देश को औपनिवेशिक शासन से मुक्ति दिलाने की इच्छा के साथ वे स्वतन्त्रता सेनानियों के प्रति सहानुभूति रखते थे। औपनिवेशिक शासन के प्रतिरोध के संस्कार भगवतशरण जी को अपने पिता से ही मिले थे। भगवतशरण जी की प्रारम्भिक शिक्षा बलिया में ही हुई वे जब स्कूली-छात्र थे तभी देश में स्वाधीनता संघर्ष जोर पकड रहा था। सन् १९१० का जलियाँवाला काण्ड, १९२१ में गाँधी जी द्वारा छेडा गया असहयोग आन्दोलन तथा १९२२ में गोरखपुर के चौरा चौरी थाने के काण्ड में ब्रिटिश शासन की पुलिस तथा किसानों में हुए संघर्ष के बाद गाँधी जी द्वारा असहयोग आन्दोलन का वापिस लिया जाना इस दौर की महत्त्वपूर्ण राजनीतिक घटनाएँ थीं। नौवीं कक्षा का छात्र भगवतशरण पढाई छोडकर स्वाधीनता संघर्ष के आन्दोलन में कूद पडा था। गिरफ्तार हुआ तथा डेढ वर्ष की सजा भुगती। सजा काट कर जेल से बाहर निकला तो स्वाधीनता संग्राम की चेतना उसके मन मस्तिष्क में घर कर चुकी थी।
सन् १९१७ में रूस में हुई क्रान्ति ने अपने देश में भी स्वतन्त्रता सेनानियों में एक नयी ऊर्जा का संचार कर दिया था। देश भर में वामपंथ की लहर उठ रही थी। मजदूर संगठन व किसान संगठन बन रहे थे। नौजवान तबका क्रान्तिकारी गतिविधियों के प्रति आकर्षित हो रहा था। क्रान्तिकारी वामपंथ के कार्यकलापों में भगवतशरण उपाध्याय बहुत सक्रिय नहीं थे, लेकिन वामपंथ के प्रति एक सहज लगाव और आकर्षण उनमें अवश्य था। इसलिए कि अपने जीवन के प्रारम्भिक दौर में ही उन्होंने यह जान समझ लिया था कि पूँजी और श्रम का संघर्ष अनिवार्य है। पूँजीवादी औपनिवेशिक शासन से संघर्ष किए बगैर देश विकास नहीं कर सकता। आम जनता को निर्धनता और शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए भी यह संघर्ष अनिवार्य है। अपने इसी वामपंथी रुझान के कारण १९२४ में उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया, किन्तु उनके विरुद्ध कोई प्रमाण न होने के कारण कुछ दिनों बाद रिहा कर दिया गया। उसके बाद उन्होंने बलिया से मैट्रिक किया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से बी.ए. एवं लखनऊ विश्वविद्यालय से इतिहास में एम.ए. किया। इसी बीच उन्होंने माक्र्सवादी दर्शन का गहन अध्ययन भी किया। अपने अब तक के जीवनक्रम में भगवतशरण जी ने यह विवेक अर्जित कर लिया था कि समाज और मनुष्य की सृजनात्मक सामर्थ्य की पहचान के लिए इतिहास तथा संस्कृति का अध्ययन आवश्यक है। सामाजिक बदलाव के पक्षधरों को इतिहास व संस्कृति के बोध से लैस होना ही चाहिए। इसी विवेक के साथ उन्होंने प्रसिद्ध इतिहासकार काशीप्रसाद जायसवाल के इतिहास सम्बन्धी शोधकार्य को सम्पन्न किया। डॉ. स्टेला काम्रिश के साथ पटना संग्रहालय की मूर्तियों की सूची तैयार की। दो वर्ष पटना में बिताकर वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की अनुसंधान पत्रिका के सम्पादक बनकर बनारस आ गये। इसी बीच उनका अध्ययन, मनन और लेखन भी जारी रहा। अब तक एक अन्वेषी इतिहासविद् तथा संस्कृति के मर्मज्ञ विद्वान् के रूप में उनकी विशिष्ट पहचान बन चुकी थी। १९४९ में वे लखनऊ संग्रहालय के पुरातत्त्व विभाग के अध्यक्ष नियुक्त हुए और १९४३ में पिलानी, राजस्थान के बिडला कॉलेज में इतिहास के प्राध्यापक बनकर पिलानी आ गये।
Bhagwat-sharan-upadhyayउपाध्याय जी एक ऐसे इतिहासवेत्ता थे जिनके लिये इतिहास विभिन्न कालखण्डों में मानव सभ्यताओं के बनने बिगडने का ब्यौरा मात्र नहीं था। उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ प्राचीन भारत का इतिहास में कहा है-इतिहास कृत्रिम इतिवृत्त है। यह उनके इतिहास बोध का गहन सूत्र है। फ्रेडरिक एंगेल्स वानर से नर बनने की प्रक्रिया को उद्घाटित करते हुए इतिहास को वर्गसंघर्ष का इतिहास कहा था। उपाध्याय जी अपने इस सूत्र के साथ इतिहास को मार्क्सवादी दर्शन की ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या से जोडते हैं। अपने उसी ग्रंथ के आमुख में उनका कहना है कि- मनुष्य द्वारा किए गये प्रयास ही इतिहास का विषय हैं। इससे स्पष्ट है कि उपाध्याय जी का इतिहास बोध मानव सभ्यताओं के विकास में श्रम की बुनियादी भूमिका को स्वीकृति देता है। अपने इतिहास ग्रंथों में उन्होंने इतिहास को आम पाठक के रोचक व सहज रचनात्मक शैली में प्रस्तुत किया है। उनका मानना है कि अतीत वर्तमान और भविष्यकाल की एक अविरल धारा अटूट अनंत प्रवाह है और जब हम अतीत के समानधर्मा मानव के कृत्यों को पत्थरों, मिट्टी के ठीकरों और हड्डियों के जरिये ढूँढने लगते हैं तब हमारा प्रयास मात्र अपने को देखना होता है, अपने समूचे मानव-रूप को (पुरातत्त्व का रोमांस, पृ. ३-४) यहाँ उनके इतिहासवेत्ता की तरह ही उनका पुरातत्वविज्ञ भी मनुष्य ही अदम्य संघर्षशीलता पर अपनी अन्वेषक दृष्टि केन्दि्रत करता दिखाई देता है। उनका इतिहास लेखन सामाजिक विकास में श्रम की प्रतिष्ठा तथा सतत अन्वेषक दृष्टि के कारण इतिहासकारों के साथ साथ सामाजिक बदलाव के लिए सक्रिय सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं को भी प्ररेणा देता रहा है।
उपाध्याय जी की सांस्कृतिक चेतना भी सभ्यताओं के इतिहास में श्रम की महत्ता को प्रतिष्ठित करती है। उनका सांस्कृतिक चिंतन जनपक्षधर और मानवतावादी इस अर्थ में है कि वे संस्कृति को किसी धर्म, जाति, समुदाय और भाषा आदि की उपज न मानकर उसके विकास में व्यापक जनसमुदाय की सहभागिता को रेखांकित करते ह-भारतीय संस्कृति विभिन्न जातीय इकाइयों के सुदीर्घ और अंतहीन संकलन का प्रतिफलन है। भारत ने सृजन कार्य अनंत किए है। विश्व संस्कृति को जितना उसने दिया है, उतना संभवतः अन्य किसी राष्ट्र ने नहीं दिया, किन्तु जो कुछ उसने दिया है, उसकी अपेक्षा अधिक उससे लिया है, क्योंकि देते समय भारत जहाँ अकेला रहा है, वहाँ लेते समय जो देने वाले अनेक रहे हैं। (भारतीय संस्कृति के स्रोत, पृष्ठ १०)
उपाध्याय जी का यह कथन भारतीय संस्कृति के सामाजिक स्वरूप को समझने का वस्तुगत एवं वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत करता है। अपनी इसी धारणा को आगे बढाते हुए भारतीय संस्कृति के बारे में उनका कथन है-उसकी संस्कृति में अनेक धाराएँ उसके ऐतिहासिक युगों के क्रम में उससे आ मिलीं। जिन्होंने उसका समय समय पर कलेवर सिरजा और पुष्ट किया। भारत की शालीनता उतनी अपनी मौलिकता में भी नहीं, जितनी समस्त धाराओं को आत्मसात् कर लेने में है। आर्य और ईरानी, ग्रीक और पल्लव, शक और मुरूंड, कुषाण और हूण सभी की शक्ति और विशेषता उसने अंगीकार की और उसके वसन का पट इतनी विविधता के तानों बानों से बुनकर रंगबिरंगा हो गया। (गुप्तकाल का सांस्कृतिक इतिहास, पृ.२) उपाध्याय में सांस्कृतिक चिंतन के व्यापक फलक पर कई नवीन अन्वेषण अंकित हैं। चीनी से लेकर लैटिन तथा संस्कृत सुमेरी भाषा तथा साहित्य के अध्ययन से उन्होंने अपने चिंतन को प्रामाणिक एवं विश्वसनीय बनाया है। आठवीं सदी ईसा पूर्व रचित शतपथ ब्राह्मण में जलप्रलय और मनु की कथा दी हुई है। उपाध्याय जी सत्रहवीं सदी, ई.पू. में बाबुली में रचे गये महाकाव्य गिल-गमेश में आई हुई जल प्रलय की कथा से हमें परिचित कराते हैं। बाइबल में दी गई हजरत नूह की जल प्रलय की कथा तथा सत्रहवीं सदी ई.पूर्व से भी पहले सुमेरी काव्य में उल्लिखित जलप्रलय की कथा भी हमें परिचित कराते हैं। वस्तुतः उनके सांस्कृतिक सोच में पाषाण काल से लेकर आधुनिक युग तक की एक विलक्षण बौद्धिक यात्रा है जो मानव संस्कृति के निर्माता मनुष्य की सामर्थ्य को उजागर करते हुए मनुष्यता के बचाव का संकल्प लेकर चलती है। उपाध्याय जी का लेखन व चिंतन मूलतः संस्कृति व इतिहास के क्षेत्र से सम्बद्ध रहा है पर वे सृजनात्मक साहित्य की रचना तथा कला-साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र की विवेचना के प्रति भी उदासीन नहीं थे। कुछ एकांकियों के साथ ही उनके पाँच कथा संग्रह भी प्रकाशित हैं। जिनमें सवेरा और संघर्ष उनके एक संवेदनशील कथाशिल्पी होने के साक्षी हैं। साहित्य उनके लिए एक दायित्वपूर्ण सामाजिक कर्म था। वे साहित्य में व्यक्तिवादिता के नहीं अपितु सामाजिकता के पक्षधर थे। भाषा को एक सामाजिक सम्पत्ति और लेखन को सामूहिकता की अभिव्यक्ति का माध्यम मानते थे। अपनी साहित्य और कला शीर्षक कृति में वे कहते हैं- साहित्य एक का नहीं अनेक का है सच पूछिये तो जन-जन का, हाँ, जन जन का, क्योंकि साहित्य में अभिव्यक्त भावनाएँ जन जन की हैं। कवि और साहित्यिक जब किसी अनुभूति को रूपायित करता है, तब वह उसकी अपनी अनुभूति केवल इस अर्थ में है वह उसे विशेष विधि से कह भर देता है। (पृष्ठ १) उन्होंने प्रेमचन्द, यशपाल, अज्ञेय तथा नागार्जुन आदि रचनाकारों के कृतित्व पर जो मंतव्य प्रकट किए हैं उनमें निर्भीक कथन के साथ ही सामाजिक कल्याण को वरीयता देने की चिंताएँ स्पष्ट है। हिन्दी में ऐसे समीक्षक विरल ही हैं जो इतिहास व संस्कृति के गम्भीर अध्ययन-विश्लेषण के साथ ही साहित्यशास्त्र की भी गहरी समझ रखते हों।
भूण्डलीकरण के वर्तमान दौर में दुनिया भर में अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए अमरीकी साम्राज्यवाद भारत सहित तीसरी दुनिया के सभी अविकसित देशों को अपनी आर्थिक व सामरिक शक्ति से भयभीत करने के साथ ही अविकसित देशेां में पूँजी निर्यात करते हुए उन्हें अपना आर्थिक उपनिवेश बनाने पर आमादा है। अपनी शोषक नीतियों को स्वीकार्य बनाने के लिए विचार, सृजन व चिंतन से क्षेत्र में गहन सांस्कृतिक प्रदूषण फैला रहा है। कला संस्कृति के क्षेत्र में भी अमरीकी साम्राज्यवादी वर्चस्व की स्थापना हो गई है। उपभोक्तावाद तथा साम्राज्यवादी जीवन शैली को महिमा मंडित करने वाले सांस्कृतिक प्रदूषण की मंशाएँ है। भगवतशरण उपाध्याय का १२ अगस्त १९८२ को निधन हुआ। उनका चिन्तन, लेखन तथा कर्म हिन्दी बौद्धिक जगत् को ब्रिटिश औपनिवेशिक काल की हीनता ग्रन्थि से उबारने में तो सहायक है ही, भूमण्डलीकरण के वर्तमान नव औपनिवेशिक दौर में दिए जा रहे आर्थिक, बौद्धिक व सांस्कृतिक शोषण से मुक्ति का रोडमैप भी है।
संपर्क : ३४/२४२, सेक्टर -३, प्रतापनगर, जयपुर -३०२०३३

1 COMMENT

  1. इतिहास के बारे में कहा जाता है कि कोई भी इतिहासकार कभी निरपेक्ष नहीं हो सकता लेकिन उपाध्याय जी एक अलग प्रकार के इतिहासवेत्ता थे । इतिहास, कला, संस्कृति,धर्म, दर्शन कौन सा विषय था जिस में उन की पैठ नहीं थी – मुझे विभिन्न विषयों पर उन की लिखी छोटी छोटी पुस्तकें पढ़ने में बहुत आनंद आता था । आप शायद पहले व्यक्ति हैं जिस ने इन के बारे में इतनी अच्छी जानकारी उपलब्ध कराई । बहुत बहुत धन्यवाद।

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