जीवन की इस भीड़ भरी महफ़िल में,
एक ठहरा हुआ सा वीरान हूँ मै,
क्यों आते हो मेरे यादों के मायूस खंडहरों में ,
अब चले जाओ बड़ा परेशान हूँ मै …
तुमसे मिलकर ही सजोयी थी चंद खुशियाँ मैंने,
पर तुम्हें समझ ना पाया ऐसा अनजान हूँ मैं,
बड़ा मासूम बनकर उस दिन जो बदजुबानी की थी,
तो आज गैर क्यों ना कहें कि बड़ा बदजुबान हूँ मै,
तुने अच्छा किया जो मुझे जिल्लतें बेरुखियाँ दी,
मुझे तो खुशी है की तेरी जिल्लत भरी जुबां हूँ मै,
जिस शाम के बाद किसी सहर की उम्मीद ही ना हो,
वैसा ही मनहूस ढलता हुआ एक शाम हूँ मैं,
मुर्दों के जले भी जहां अब जमाने हो गए,
ऐसा ही सुनसान एक श्मशान हूँ मैं,
मै तुमको भूल गया इसमे तो मेरी ही साजिश थी,
पर तू जो भूल गया मुझको तो अब हैरान हूँ मैं…….
-शिवानन्द द्विवेदी ‘सहर’
अच्छी पंक्तियाँ है ………….लिखते रहें ……………
बहुत अच्छी ग़ज़ल..खास तौर पर अंतिम पंक्तियाँ