विष्णु के षष्ठम अवतार परशुराम भार्गव

Bhagwan_Parshuramअशोक “प्रवृद्ध”

भगवान परशुराम का नाम आते ही उनके द्वारा इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से मुक्त कराने, सीता स्वयम्बर के पश्चात श्रीराम के अनुज लक्ष्मण से गर्मागर्म विवाद , महाभारत काल में काशीराज की पुत्रियों अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका को भीष्म पितामह के द्वारा अपहरण कर लाने के बाद विचित्रवीर्य से विवाह करने से इंकार करने वाली अम्बा से भीष्म की विवाह कराने के लिए भीष्म से युद्ध करने की बात लोगों की स्मृति में शीघ्र आ जाती है। यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि सहस्त्राब्दियों वर्ष पूर्व सतयुग अर्थात कृतयुग के अंत में भगवान परशुराम ने उत्तर और पूर्व के राजाओं का एक महासंघ बनाकर आज के गुजरात के हैहय राजाओं के विरुद्ध एक महासंग्राम को विजयी नेतृत्व प्रदान किया था। यही कारण है कि परशुराम के नेतृत्व में हैहयों के विरुद्ध सत्ययुग के अंत में हुई इस महासंग्राम के विजेता महानायक परशुराम सर्व लोकख्यात हो गये। और स्थिति यह हो गई कि वसिष्ठों और विश्वामित्रों की वंश परम्परा की भांति ही परशुराम जिस भार्गव वंश के थे, इसकी पूरी एक वंश परम्परा बन गई, जिसके सभी महापुरुष स्वाभाविक रूप से भार्गव अथवा परशुराम कहलाए। आज स्थिति यह हो गई है कि वसिष्ठों और विश्वामित्रों की तरह सभी भार्गव अर्थात सभी परशुराम भी एक हो गए हैं। पौराणिक ग्रंथों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि परशुराम कई युगों तक विभिन्न युगपरिवर्तनकारी घटनाओं के साक्षी व स्वयं कारण अथवा कारक बने। हैहयों से लड़ने वाले परशुराम सतयुग में हुए। हैहयों से हुए इस महासंग्राम में परशुराम ने हैहयों को एक के बाद एक इक्कीस बार पराजित किया। इसी समय से अर्थात इस घटना के कारण ही भारतीय स्मृतियों में यह बात बैठ गई कि परशुराम ने भारत भूमि को इक्कीस बार क्षत्रियों से रहित कर दिया। विद्वतगन प्रायः यह सवाल उठाते हैं कि क्या क्षत्रियों का इक्कीस बार विनाश कोई एक ही योद्धा कर सकता है? क्या यह संभव है? इसके बाद त्रेतायुग में एक परशुराम थे जिन्होंने शिव धनुष तोड़ने वाले श्रीराम के साथ विवाद किया, उसके शौर्य को चुनौती दी और राम से अपना मद-दलन करवा कर लौटे। इसके बाद द्वापर में एक परशुराम हुए , जिन्होंने अम्बा से भीष्म पितामह की विवाह कराने के लिए भीष्म से युद्ध किया। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि परशुराम सतयुग , त्रेतायुग और द्वापर युग तीन युगों तक जीवित रहे। पौराणिक मान्यतानुसार वे आज भी जीवित हैं और कल्कि अवतार में विष्णु के उस अवतार के गुरु पथप्रदर्शक बनेंगे। परशुराम को सप्तचिरंजीवियों अथवा अष्टचिरंजीवियों में भी शामिल किया गया है। विद्वानों का कहना है कि विविध युगों में उपस्थित सभी परशुराम एक ही व्यक्ति नहीं हो सकते बल्कि यह परशुराम के वंशजों की वंश परम्परा के विभिन्न युग में जन्म लेने वाले कई व्यक्ति हैं।
पौराणिक मान्यतानुसार त्रेता युग में विष्णु के षष्ठम अवतार भगवान परशुराम का जन्म भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। उन्हें भगवान विष्णु के आवेशावतार माना जाता है। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर उन्हें राम , जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य तथा शिव के द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। प्रारम्भिक शिक्षा – दीक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र उन्हें प्राप्त हुआ। तत्पश्चात कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिव से उन्हें श्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये उनके कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया। पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार शस्त्रविद्या के महान गुरु परशुराम ने भीष्म, द्रोण व कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र भी लिखा। पुरुषों के लिये आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर परशुराम ने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन भी किया था। पुराणों में उनके अब भी बचे अवशेष कार्यो में विष्णु के कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है।
पौराणिक आख्यानों के अनुसार परशुराम जिस कुल में जन्मे उसके आदिपुरुष का नाम भृगु था। मान्यतानुसार भृगु अथवा उनके किसी वंशज के द्वारा भृगुसंहिता की रचना की गई है , जिससे भविष्य की जानकारी प्राप्त की जाती है । इसी भृगु के कारण ही उनके सभी वंशज भार्गव कहलाते हैं। एक कथा के अनुसार किसी बात पर रुष्ट अपने पिता जन्मदग्नि के आदेश का पालन करते हुए परशुराम ने अपने परशु अर्थात फरसा से अपनी माँ रेणुका का वध कर दिया था। जब प्रसन्न पिता ने उनसे वर माँगने को कहा तो उन्होंने अपनी माँ का ही पुनर्जीवन माँग कर माँ को पुनः प्राप्त कर लिया। भार्गव परम्परा के लोग नर्मदा के किनारे रहा करते थे और आनर्त (गुजरात) के हैहय राजवंश के कुलगुरु थे। फरसे और दूसरे कई तरह के शस्त्रों से तथा हैहयों के साथ लड़े गए युद्ध के कारण परशुराम नाम का रिश्ता ही फरसे के साथ बन गया है। हैहयों को एक लम्बी चली लड़ाई में इक्कीस स्थानों पर पराजय देने वाले परशुराम के बारे में यह किम्बदन्ती फ़ैल गई कि उन्होंने इक्कीस बार इस धरती पर क्षत्रियों का समूलोन्मूलन कर दिया । इक्कीस बार समूलोन्मूलन के सम्बन्ध में परशुराम के हाथों एक बड़े बड़े भू-भाग पर फैले राजवंशों के बड़े पैमाने पर विनाश की कथाएं पुराणों में अंकित मिलती हैं। परन्तु मूलत: भार्गव आयुधजीवी ब्राह्मण नहीं थे और जमदग्नि का नाम भी शस्त्र के बजाय ज्ञान और विद्या के साथ ही जोड़ा जाता है। कतिपय विद्वानों के अनुसार भार्गव और आंगिरस कुल के परवर्ती आचार्यो ने ही रामायण, महाभारत और पुराणों का संपूर्ण नव-संस्कार किया था और बाद की कई परम्पराओं को पुराणों में जोड़कर इन्हें अनवरत नवीनतम बनाने का प्रयास किया था। भार्गव कुल इस हद तक विद्यानुरागी था कि हैहयों से मनमुटाव हो जाने के कारण अपने तिरस्कर्ता राजाओं से झगड़ने की बजाय वे लोग कान्यकुब्ज में जाकर बस गये थे। परन्तु जमदग्नि के साथ हुए अपमान को उनके पुत्र परशुराम सहन नहीं कर पाए और शस्त्र विद्या पर परमज्ञान प्राप्त कर वे अनेक राजाओं का महासंघ बनाकर हैहयों से उलझ पड़े और एक महासमर को नेतृत्व दिया जिसमें हैहय स्थान- स्थान पर बार- बार पराजित हुए। इस घटना के बाद भार्गव के बजाय परशुराम नामक एक नया कुल अर्थात वंश परम्परा चल पड़ा और वह हर वंशज, जो युद्धविद्या में प्रवीण हो जाते थे, स्वयं को परशुराम कहलाना ही पसंद करने लगे। इसलिए जो राम से उलझे वे भी परशुराम, और जो भीष्म से लड़े वे भी परशुराम हो गये ।
पौराणिक कथानुसार सतयुग और त्रेतायुग के संधिकाल में राजाओं की निरंकुशता से जनजीवन त्रस्त और छिन्न-भिन्न हो गया था। दीन और आर्तजनों की पुकार को कोई सुनने वाला नहीं था। ऐसी परिस्थिति में महर्षि ऋचिक के पुत्र जमदग्नि अपनी सहधर्मिणी रेणुका के साथ नर्मदा के निकट पर्वत शिखर पर जमदग्नेय आश्रम वर्तमान जानापाव में तपस्यारत थे। उन्होंने पराशक्ति का आह्वान किया, उपासना की तब लोक मंगल के लिए वैशाख शुक्ल तृतीया को पराशक्ति, परमात्मा, ईश्वर का मध्यरात्रि को अवतरण हुआ। आश्रम में उत्साह का वातावरण फैला। ज्योतिष एवं नक्षत्रों की यति-मति-गति के अनुसार बालक का नाम राम रखा गया। बालक अपने ईष्ट शिव का स्मरण करते हुए ब़ड़ा होने लगा। राम का अपने ईष्ट शिव से साक्षात्कार हुआ। अमोघ शस्त्र परशु (फरसा) और धनुष प्राप्ति के साथ शक्ति अर्जन हेतु माँ पराम्बा, महाशक्ति त्रिपुर सुंदरी की आराधना का आदेश भी प्राप्त किया। परशुधारी परशुराम को शास्त्र विद्या का ज्ञान जमदग्नि ऋषि ने दे दिया था, किंतु शिव प्रदत्त अमोघ परशु को चलाने की कला सीखने के लिए महर्षि कश्यप के आश्रम में भेजा। परशुराम शस्त्र कला में पारंगत होने के बाद गुरु से आशीर्वाद प्राप्त कर पिता के आश्रम लौटे। वहाँ पिता का सिर ध़ड़ से अलग, आश्रम के ऋषि, ब्राह्मण और गुरुकुल के बालकों के रक्तरंजित निर्जीव शरीर का अंबार प़ड़ा मिला। परशुराम हतप्रभ हो गए। इसी बीच माता की कराह और चीत्कार सुनाई दी। दौ़ड़कर माता के निकट पहुँचे। माता ने 21 बार छाती पीटी। परशुराम ने सब जान लिया कि कार्तवीर्य अर्थात सहस्रबाहु के पुत्र एवं सेना ने यह तांडव मचाया है। परशुराम वायु वेग से माहिष्मति पहुँचे और उन्होंने कार्तवीर्य की सहस्र भुजाओं को अपने प्रखर परशु से एक-एक कर काट दिया। अंत में शीश भी काटकर धूल में मिला दिया। इतना ही नहीं, लोकहित में परशुराम का परशु चलता ही रहा और एक-एक अनाचारी को खोज-खोजकर नष्ट कर दिया। इसीलिए कतिपय लोगों ने उन्हें आवेशी करार दिया है। परन्तु पौराणिक ग्रंथों में चरित्र के सम्बन्ध में अंकित सन्दर्भों के अनुशीलन से स्पष्ट होता है कि लोकहित को छोड़ कर परशुराम में आवेश का प्रादुर्भाव कभी नहीं हुआ। यह सर्वविदित है कि परिस्थितिजन्य स्थिति में कोमल भी कठोर हो जाता है। परशुराम के कोमल मन में आवेश नहीं, लोकहित में कठोरता का प्रादुर्भाव अवश्य होता रहा है। पुराणों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि सर्व समाज के हितैषी भगवान परशुराम दया, क्षमा, करुणा के पुंज हैं, साथ ही उनका शौर्य प्रताप हम में ऊर्जा का संचार करने में समर्थ है। यही कारण है कि लोग उनको पूजते हैं , उनकी आराधना करते हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत के इतिहास में परशुराम ने एक बड़ी निर्णायक लड़ाई हैहयों से लड़ी थी। लड़ाई के सम्बन्ध में पुराणों में अंकित कथा के अनुसार एक हैहय राजा कृतवीर्य ने अपने कुलगुरु औचीक और्व भार्गव को प्रभूत धन दिया था। जब कुछ समय बाद राजा ने वह धन वापस माँगा तो औचीक ने आनाकानी की। इस पर राजा ने उनका अपमान कर दिया और औचीक अपना आश्रम छोड़ कान्यकुब्ज को चले गये। लेकिन, उनके पुत्र जमदग्नि अपने आश्रम में वापिस आ गये। परशुराम के सम्बन्ध में पुराणों में एक और कथा मिलती है। ब्रह्माण्ड पुराण के कथाअनुसार कृतवीर्य के पुत्र कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन ने जमदग्नि से उनकी कामधेनु गाय माँगी। गुरु ने मना कर दिया तो कार्तवीर्य ने उनका तिरस्कार कर दिया। कथा के अनुसार एक बार जब जमदग्नि के पुत्र परशुराम तप के लिए आश्रम से बाहर गये हुए थे तो कार्तवीर्य के पुत्रों ने जमदग्नि का वध कर दिया। तप से लौटे परशुराम ने इससे कुपित होकर हैहयों के नाश की प्रतिज्ञा कर डाली। कृतवीर्य-औचीक अथवा कीर्तवीर्य-जमदग्नि के बीच विरोध की वजह से परशुराम ने हैहयों को सबक सिखाने की ठान ली। और अयोध्या, विदेह, काशी, कान्यकुब्ज और वैशाली के राजाओं का एक महासंघ बनाकर स्वयं उसके नेता बन बैठे। दुसरी ओर हैहयों ने वर्तमान सिन्ध और राजस्थान के कुछ राजाओं को अपने साथ मिलाया। परशुराम ने हैहयों को इक्कीस जगह पराजय दी। युद्ध लंबा और भयानक तथा संभवतः इक्कीस दिन तक चला और इसमें हैहयों को भारी हार का सामना करना पड़ा हो। पौराणिक ग्रंथों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि परशुराम हमारे इतिहास के पहले ऐसे विद्वान् अर्थात ब्राह्मण पात्र हैं जिन्होंने किसी राजा को दंड देने के लिए राजाओं को ही एक जुटकर उससे लोहा लिया। इसके पूर्व पुरुरवा, वेन, नहुष, शशाद जैसे राजाओं की दुष्टताओं या लापरवाहियों को दंडित करने के लिए ऋषि या ब्राह्मण अपने ही स्तर पर स्वयं आगे आए थे।

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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