”गुलाबी सपनों का शहर जयपुर और इसकी खूबसूरती में चार चाँद लगाते यहाँ के शॉपिंग मॉल्स,शाम गहराते ही जहाँ यूँ लगता है मानो इसकी भव्यता देखने को ही सूरज दुसरे छोर पर जा छुपा है.हाथ में हाथ डाले जोड़े ,अपनी गुफ्तगू में मशगूल तमाम युवक युवतियां ,खरीददारी करने आये लोगों का उत्साह उस पर तमाम दुकानें ऐसी सजी हुई मानो कोई नवविवाहिता शाम ढले अपने पति का इन्तजार कर रही हो.
जयपुर में वैसे तो शाम बिताने के लिए कई जगहें हैं लेकिन मालवीय नगर स्थित गौरव टावर अपने निर्माण काल से लेकर आज तक लोगों का चहेता बना हुआ है ..तमाम बड़े ब्रांड्स के शोरूम आपको इसकी छत के नीचे मिल जायेंगे उसके साथ ही खाने पीने के लिए युवाओं के मैक डी से लेकर तमाम छोटे बड़े स्टाल्स आपके स्वागत के लिए तैयार मिलेंगे.
तमाम नापसंदगी के बाद भी एक रोज वहां जाना हुआ .. गेट पर ही तमाम छोटे छोटे बच्चों ने घेर लिया ……२-४ रुपये मांगते ये बच्चे नये भारत की बुलंद तस्वीर बना रहे थे……इनसे निपट कर थोड़ी दूरी पर जा के बैठने का स्थान बनाया और वहीं से पूरे टावर के दर्शन करने लगा …… शनिवार होने की वजह से भीड़ कुछ ज्यादा ही थी. वहीं से भीड़ का दीदार कर निगाहें जाने क्यों फिर उन बच्चों की और मुड गई . कुछ पैसो की चाह में ये बच्चे लोगों के पैरों पर गिरे जा रहे थे . पैसे मिले तो ठीक नहीं तो ये किसी दूसरी तरफ मुड गए.२०२५ तक युवा भारत के निर्माण में क्या इनके सहयोग की भी जरुरत पड़ेगी ये सवाल खुद से पूंछ कर चुप बैठ गया.और सोचने लगा की कभी किसी ने सोचा या नहीं की ये कहाँ से आते हैं और रात गहराते ही कहाँ खो जाते हैं दूसरी सुबह फिर से लोगों के आगे हाथ फ़ैलाने के लिए . देश में होने वाली जातिगत गिनती मे क्या इनकी जात भी पूछी जाएगी या नहीं यही सब सोच रहा था कि वो पास आया . वो यानि ”विजय” ,काली पड़ चुकी कमीज और एकमात्र हुक के सहारे अटके पैंट में एक गुमसुम सा ५ बरस का बच्चा . आवाज बहुत धीमी कि कान लगाकर सुनना पड़े, आँखें रोने और दयावान आदमी खोजने में व्यस्त , मैंने पास बैठा लिया तो चुपचाप बैठा रहा पूछने पर जो कहानी पता चली वो कुछ इस तरह थी.
शहर के जगतपुरा की कच्ची बस्ती में रहने वाला विजय तीन भाइयों में सबसे छोटा है,उसके दुनिया में आते ही उसकी माँ चल बसी थी. पिता ने दूसरी शादी की और दो और बच्चों के पिता बनने का सौभाग्य हासिल कर दुनिया से कूच कर गए . अब विजय के दोनों बड़े भाई घर छोड़ कर चले गए हैं और विजय की नई माँ लोगों के घरों में काम कर के अपने जाए दोनों बच्चों का पेट पालती है. अगर पांच साल के विजय को अपने घर में खाना और सो ना है तो इसकी कीमत है ५० रुपये रोज,इसीलिए विजय सुबह उठकर रोज लगभग ३ किलोमीटर पैदल चलकर यहाँ आता है और फिर देर रात तक ५० रुपये कमाने की ज़द्दोज़हद में लग जाता है . इसके लिए वो लोगो के पैर नहीं छूता कहता है लोग डांट देते हैं ,तमाम झिड़कियों के बाद अगर रात तक ५० रुपये जुट गए तो घर पर उसे खाना और सोना नसीब होता है नहीं तो खुद उसकी जबान में ”माँ चमड़ी उधेड़ कर घर से निकल देती है और फिर पूरी रात भूखे पेट ही,घर के बाहर ही गुज़ारनी पड़ती है,”रोज रोज चमड़ी उधड़वाने से सहमा विजय अब घर तभी जाता है जब उसके पास ५० रुपये का जुगाड़ हो जाता है नहीं तो वह यहीं सो जाता है ,जिससे वह अलसुबह फिर रुपयों के इंतजाम में लग सके . विजय की जिंदगी में सिर्फ यही एक परेशानी नहीं है एक मुसीबत यह भी है कि इसी जगह पर कोई कुलदीप भी है जो विजय के पैसे कभी छीन लेता है तो कभी फाड़ देता है .छीने गए पैसे वापस पाने का तो कोई तरीका नहीं लेकिन फटे नोटों का इलाज विजय ने खोज लिया है और अब वह सुलेसन अपने साथ रखता है ताकि वह फटे नोटों को जोड़ सके और ५० रुपये पूरे कर सके .
विजय कि कहानी सुनने के बाद जब उससे पूछा कि सुबह से कुछ खाया तो कहीं गुम हो चुकी मासूमियत चेहरे पर वापस दिखी और वो बोला ”एक दीदी ने पेटिस खिलाई थी ” छोटा सा लेकिन मन को दो टूक कर देने वाला जवाब.और खाओगे कुछ ”नहीं भैया पैसे दे दो बहुत रात हो गई आज घर जाने का मन है”इस बात मन के कितने टुकड़े हुए गिन नहीं सका |
इसके बाद उसने बताया कि कल से वह यहाँ नहीं आएगा क्यूं कि एक तो यहाँ रात तक ५० रुपये नहीं पूरे हो पाते दूसरा अगर मिलते भी हैं तो उनपर कुलदीप का खतरा बना रहता है….मैं उससे और कोई बात नहीं कर पाया और वो भीड़ में खो गया .
जयपुर के मॉल्स आबाद हैं ,एक विजय के जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता उसे जानता भी कौन होगा वहां,सुना है और भी मॉल्स बन रहे हैं यहाँ ,शहर फल-फूल रहा है वर्ल्ड क्लास सिटी का सपना बस साकार होने को है ,मेट्रो भी आने वाली है ,हिंदुस्तान का पेरिस कहे जाने वाला जयपुर अब लगभग पेरिस जैसा ही लगेगा . लगना भी चाहिए,सरकार पानी कि तरह पैसा बहा रही है , लेकिन क्या होगा विजय और उस जैसे तमाम का,वो इस वर्ल्ड क्ल ास सिटी में कहा जायेंगे ये कौन सोच रहा है .सरकार या ये मॉल्स बनाने वाले,दोनों समर्थ हैं लेकिन इच्छाशक्ति किसमें है ये कोई नहीं जानता,ठीक वैसे ही जैसे कि कोई नहीं जानता कि विजय अब कहाँ जायेगा जहाँ उसे ५० रुपये मिल सकें ताकि वह घर जा सके और रात कि रोटी खाकर अपने पिता की बनाई छत के नीचे सो सके |
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मर्मस्पर्शी लेख….
प्रिय प्रत्यूष,लेख के लिए बधाई………..अत्यंत मार्मिक लेख……………कहने को बहुत कुछ कहा जा सकता है लेकिन इस स्टोरी को पढकर जो भाव जागृत हुए हैं उन्हें शब्द दे पाना कठिन है……