उ.प्र. की मुख्यमंत्री मायावती ने उत्तरप्रदेश को चार हिस्सों में विभाजित कर नये राज्य बनाने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है। आज इस निर्णय ने देश में एक नई बहस को जन्म दिया है। हालांकि सभी जानते हैं कि मायावती का यह विभाजन का बयान हाल ही में उत्तरप्रदेश में होने जा रहे विधानसभा चुनाव के मद्देनजर दिया गया है, किन्तु उनके इस कदम ने सभी राजनीतिक दलों को यह सोचने पर विवश जरूर कर दिया है कि यदि मायावती इस मुद्दे को चुनावी हथकंडा बनाकर जीत गई, तो बसपा को पुन: सरकार बनाने से इस राज्य में कोई नहीं रोक सकेगा।
मायावती के इस निर्णय ने एक बार फिर 1950 के बाद बने नये राज्यों के बारे में विचार करने को प्रेरित किया है। पिछले 70 वर्षों में 16 स्ततंत्र राज्य अस्तित्व में आए हैं, जिनमें एक-दो को छोडक़र प्राय: अधिकांश राज्यों ने छोटे आकार में जितना विकास किया, उतना विकास किसी बड़े राज्य का अंग बने रहने पर अपने क्षेत्रविशेष में नहीं दोहरा सकते थे। 1953 में तत्कालीन मद्रास राज्य से अलग करके आंध्रप्रदेश बना। 1956 में राज्य पुर्नगठन एक्ट के तहत् त्रावणकोर और कोचीन को मिलाकर केरल तथा कर्नाटक राज्यों का गठन हुआ। मैसूर राज्य से अलगकर यह स्वतंत्र कर्नाटक राज्य अस्तित्व में आया था। 1960 में बांबे पुनर्गठन एक्ट के तहत् गुजरात और महाराष्ट्र इन दो राज्यों का निर्माण किया गया जो कि तत्कालीन बांबे राज्य का बंटवारा था। इसके अलावा 1962 में बने स्टेट ऑफ नागालैण्ड एक्ट में असम राज्य से अलगकर नागालैण्ड नाम का राज्य अस्तित्व में आया। फिर पंजाब राज्य को विभाजित कर 1966 में पंजाब पुनर्गठन एक्ट के अंतर्गत हरियाणा राज्य बना।
1970 में स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश एक्ट के अस्तित्व में आते ही केन्द्र शासित राज्य से हिमाचल प्रदेश पूर्ण राज्य के रूप में अस्तित्व में आया। वैसे तो मेघालय को 1969 में तेईसवें संविधान संशोधन द्वारा असम में ही एक उपराज्य बनाया गया था। किन्तु 1971 में नार्थ-ईस्टर्न ऐरियाज पुनर्गठन एक्ट के तहत इसे स्वतंत्र राज्य घोषित किया गया। इसी एक्ट में मणिपुर और त्रिपुरा भी केन्द्र शासित राज्य के रूप में पूर्ण राज्य बने। सिक्किम को 1975 में 36वें संविधान संशोधन द्वारा स्वतंत्र राज्य का दर्जा दिया गया। 1986 में स्टेट ऑफ मिजोरम एक्ट बनाकर मिजोरम को पूर्ण स्वतंत्र राज्य बनाया गया, इसी वर्ष अरूणांचल प्रदेश पूर्ण राज्य के रूप में अस्तित्व में आया।
इसके बाद 1987 में गोवा केन्द्र शासित प्रदेश के रूप में दमन और द्वीव से अलग कर पूर्ण राज्य के रूप में गठित किया गया। संविधान संशोधन एक्ट 2000 के अंतर्गत मध्यप्रदेश से अलगकर 1 नवम्बर को छत्तीसगढ़, 9 नवम्बर को उत्तरप्रदेश के दो भाग कर उत्तराखंड और 17 नवम्बर को बिहार से पृथक कर झारखण्ड राज्य अस्तित्व में आए।
आज के दौर में यदि इन राज्यों की आर्थिक विकास दर का अध्ययन किया जाए तो बांबे चेम्बर्स ऑफ कामर्स एण्ड इंडस्ट्री द्वारा कराये गये हालिया आंकड़े यही पुष्ट करते हैं कि मध्यप्रदेश जैसे एक या दो राज्यों को अपवाद स्वरूप छोडक़र अधिकांश बड़े राज्यों की तुलना में छोटे राज्य तेज गति के धावक सिद्ध हुए हैं। संभवत: यही कारण है कि देश में इतने अधिक नये राज्यों का गठन होने के बावजूद भी अन्य नये राज्य बनाने तथा बड़े राज्यों से पृथकता की चिंगारी निरन्तर सुलग रही है।
सभी परिचित हैं कि देश में तेलंगाना, विदर्भ, भोजपुर, सौराष्ट्र, कुर्ग, कोसलांचल, गोरखालैंड, मिथिलांचल, ग्रेटर कूच बिहार और बुन्देलखण्ड स्वतंत्र राज्यों की मांग कोई नई मांग नहीं है, लेकिन अत्याधिक छोटे राज्यों के जो संभावित खतरे हो सकते हैं उन्हें ध्यान में रखते हुए कोई भी राजनीतिक दल यह साहस नहीं कर पा रहा है कि वह देश में और 10 नये राज्यों का निर्माण करें, लेकिन इस बात को भी नकारा नही जा सकता है कि बड़े राज्यों की तुलना में छोटे राज्यों को विकसित करना ज्यादा सरल है। जनसंख्या और क्षेत्रफल की दृष्टि से छोटे होने के कारण संबंधित सरकार आधारभूत ढ़ांचे पर पूरा ध्यान रख पाती है, जिसके कारण राज्य का आर्थिक सूचकांक तेजी से बढ़ता है। जबकि इसके उलट बड़े राज्यों को व्यवस्थितरूप से ध्यान देने में ज्यादा कठिनाई आती है।
वस्तुत: बड़े राज्यों में आधारभूत ढांचे को खड़ा करने में अनेक परेशानियाँ हैं कारण पर्यावरण, सामाजिक और आर्थिक समस्याएं कई बार विकास में रोड़ा बन जाती हैं। सन् 2000 में बनाये गये राज्यों के पहले और बाद की आर्थिक विकासदर का अध्ययन करें तो उत्तरप्रदेश से अलग होने के बाद उत्तराखंड ने उत्तरप्रदेश की तुलना में 5.9 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ ने मध्यप्रदेश से अलग होकर 6.3 प्रतिशत, झारखण्ड ने बिहार से अलग होकर 4.1 प्रतिशत अधिक विकास दर हासिल की है।
छोटे राज्यों का एक सच यह भी है कि सभी छोटे राज्यों ने उतनी तरक्की नहीं की है जितनी की उनके निर्माण के पूर्व राजनीतिक दलों तथा आर्थिक विशेषज्ञों ने उम्मीद जताई थी। वास्तव में किसी राज्य का विकास का पैमाना छोटा या बड़ा होना कभी नहीं हो सकता। यदि ऐसा होता तो मध्यप्रदेश जैसा बड़ा राज्य कभी तेजी से आर्थिक विकास दर हासिल नहीं कर पाता।
वस्तुत: विकास के लिए जरूरी राज्य के जनप्रतिनिधियों, प्रशासक और जनता की मजबूत इच्छाशक्ति का होना है। जनप्रतिनिधियों का अपने राज्य के विकास के प्रति दृढ़ संकल्पित होना लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली में संजीवनी का काम करता है। मजबूत इच्छाशक्ति के बल पर ही विकास की गंगा बहायी जा सकती है। मध्यप्रदेश की तरह ही दक्षिण के बड़े राज्य जिस तरह न केवल आर्थिक रूप से मजबूत हुए हैं बल्कि प्रत्येक क्षेत्र में शक्ति सम्पन्न हो सके हैं उसकी महत्वपूर्ण वजह यही है कि इन सभी राज्यों में विकास के लिए आवश्यक ईमानदार कोशिश की गई। संसाधन व अर्थ का उपयोग सही समय और सही ढंग से करने पर ही राज्य का विकास संभव है।
इसके अलावा यह भी ध्यान देने योग्य है कि जिन राज्यों ने अपने यहाँ कानून व्यवस्था ठीक कर ली, वहीं आर्थिक समृद्धि के द्वार खुले हैं। छोटे राज्यों में जैसा कि पूर्वांचल में देखने को मिलता है जहां कानून व्यवस्था बिगड़ी हुई है के कारण उद्योग-धंधों का विकास उस परिणाम में आज तक नहीं हो सका है जो कि किसी भी राज्य के सर्वांगिण विकास की आवश्यकता है। आज अनेक आपराधिक गुटों के कारण यहां लोग पैसा लगाना नहीं चाहते। व्यापार के लिये पलायन जारी है, जिसके कारण भारत के अनेक राज्य आर्थिक समृद्धि के मामले में निरन्तर पिछड़ रहे हैं। जबकि क्षेत्रफल की दृष्टि यह बहुत बड़े राज्य नहीं है।
निश्चित ही छोटे राज्यों की वकालत करने या बनाये जाने के पहले यह जरूर देखना चाहिए कि उस क्षेत्र की राजनीतिक इच्छाशक्ति कैसी है क्योंकि संवैधानिक राज्य में लोक की शक्ति नेतृत्व में निहित है। जैसा शीर्ष नेतृत्व होगा वैसा ही उस राज्य का विकास संभव है।