विनायक सेन प्रकरण : बुद्धिजीवियों द्वारा न्याय व्यवस्था के विरूद्ध जिहाद

अम्‍बा चरण वशिष्‍ठ

हमारे उदारवादी चिन्तक, विचारक तथा कार्यकर्ता वस्तुत: भेड़िये की खाल में साम्यवादी हैं जो इस प्रजातन्त्र के हर स्तम्भ को ध्वस्त करना चाहते हैं। वह अन्यथा जनता के समर्थन से तो कभी सत्ता हथिया नहीं सकते, इसलिये वह यह अनैतिक व ग़ैरकानूनी हथकण्डे अपना रहे हैं।

पिछले कुछ सालों से समाचार माध्यमों के पन्नों और चैनलों के पर्दे पर मीडिया ट्राइल का चलन शुरू हो चुका है प्रतिदिन समाचार माध्यमों में समाचार व लेखों को पढ़ने से तो अब ऐसा आभास होने लगा है कि कोई गुनाह विनायक सेन ने नहीं उस बेचारे जज ने कर दिया है जिसने उस मामले की सुनवाई की। जज ने तो तथ्यों, साक्ष्य और कानूनी तर्क-वितर्क के आधार पर सज़ा सुना दी पर अब हमारे तथाकथित उदारवादी लेखक अपने तर्क-कुतर्क के आधार पर हमारी न्याय व्यवस्था के विरूद्ध ही जिहाद खड़ा कर बैठे हैं।

प्रश्‍न तो यह उठता है कि जिस कानून, साक्ष्य और तर्क के आधार पर ये सब महानुभाव विनायक सेन के निर्दोश होने की दुहाई दे रहे हैं वही सब चीज़े उन्होंने माननीय जज महोदय के सामने क्यों प्रस्तुत नहीं कीं? वह दोषी हैं या निर्दोष इस का तो निर्णय अदालत के अन्दर ही होगा न कि समाचारपत्रों के पन्नों और चैनलों के पटल पर।

न्याय व्यवस्था का मीडिया ट्रायल

सच तो यह भी है कि उन जैसे महान महान महानुभाव ही थे जिन्होंने आरूषि हत्याकाण्ड की मीडिया ट्राइल कर दी थी और मामले को इतना उलझा दिया कि केन्द्रिय जांच ब्यूरो (सीबीआई) भी बेचारी अन्धेरे में हाथ-पांव मारती इतनी परेशान हो गई कि वह अपने ही बुने जाल में फंस गई। अब मामले को बन्द करने की अपनी रिपोर्ट में उसने कह दिया है कि शक प्रमुखत: आरूषि के माता-मिता पर ही है। पर सीबीआई यह नहीं बताती कि यदि ऐसा है तो वह पिछले दो वर्ष से अधिक समय से माता-पिता के विरूद्ध साक्ष्य क्यों नहीं जुटा सकी। आखिर यह काम तो सीबीआई को ही करना है न कि माता-पिता को।

आदर्श सिद्धान्त

इन महान महानुभावों के आदर्श भी उतने ही महान होते हैं – जो मुझ से सहमत है, मेरी बात में हां में हां मिलाता है वह महान् समझदार है और जो ऐसा नहीं करता वह निपट गंवार और मूर्ख।

इसी महान् कठिन अग्निपरीक्षा के आधार पर ही तो हमारे प्रतिष्ठित लेखक-समीक्षक बुद्धिजीवी विनायक सेन को निर्दोष होने का फतवा दे रहे हैं। क्योंकि जज महोदय ने उनकी तर्क नहीं मानी इसलिये वे उन्हें न्याय का घातक बता रहे हैं।

पाखण्ड

इनकी सोच व तर्क कितनी भौंडी, विकृत व पाखण्डी है इसके तो कई उदाहरण हैं पर एक ही उदाहरण काफी है। ये सब लोग 13 अगस्त 2001 को संसद पर हुये आतंकी हमले के दोशी अफज़ल गुरू को निर्दोष मानते हैं जिसको फांसी की सज़ा सुनाई गई है और जिसके अपराध और संज़ा को देश के सर्वौच्च न्यायालय, उच्चतम न्यायालय ने भी सही ठहराया है। वह न्यायालय के निर्णय के केवल उस भाग को अन्याय बताते हैं जिसमें अफज़ल गुरू को दोशी पाया गया है, पर उस भाग को नहीं जिसमें उसके साथी एस ए आर जिलानी को निर्दोष मान कर छोड़ दिया गया था। अजीब बात है कि वह उसी न्यायालय के उसी निर्णय के एक भाग को तो न्याय और दूसरे भाग को अन्याय मानते हैं। यदि ठीक है तो पूरा निर्णय ठीक है और गलत है तो पूरे का पूरा गलत। पर उन महानुभावों की सोच ऐसी नहीं है। न्यायालय के निर्णय का वह भाग तो न्याय है जिसमें कि जिलानी को निर्दोश पाया गया है पर दूसरा भाग अन्याय है क्योंकि उसमें अफज़ल गुरू को दोशी पाया गया है। स्पश्ट है कि यदि न्यायालय अफज़ल गुरू को भी निदोर्श घोशित कर देती जैसा कि वह चाहते हैं तो यह फैसला भी उनके लिये भारत में न्याय की एक अभूतपूर्व मिसाल बन जाती।

ग़ैर-मानवों के मानवाधिकार

इस में कोई दो राय नहीं कि हमारे मानवाधिकार संगठन व उसमें संलिप्‍त सज्जनों की नज़र में यदि मानवाधिकार है तो केवल अपराधियों और आतंकवादियों के। जिन निर्दोश लोगों को ये लोग रोज़ गाजर-मूली की तरह काटते फिरते हैं और जिन हज़ारों-सैंकड़ों महिलाओं का उन्होंने विधवा बना दिया है, जिन बच्चों को अनाथ बना दिया है और जिन वृद्धों के हाथ से उन्होंने इस उम्र में सहारे की लाठी छीन ली है मानों – हमारे मानवाधिकार महानुभावों की नज़र में उनका तो कोई मानवाधिकार हैं ही नहीं।

मानवाधिकार संस्थाएं यदि सचमुच ही सब के मानवाधिकारों की बराबर चिन्ता करती हैं तो यह सच्चाई सार्वजनिक करना उनके लिये एक चुनौती है कि वह जनता को बतायें कि उन्होंने किस-किस और कहां-कहां व कितने उन लोगों की सहायता की है जो आतंकियों व अपराधियों के नृषंस अपराधों का शिकार हुये हैं। जहां तक आम आदमी का ज्ञान जाता है हमारी मानवाधिकार संस्थाएं तो आतंकी घटनाओं की षाब्दिक भर्त्स्ना करने में भी उदारता नहीं दिखाते, उन आतंकी घटनाओं के शिकार लोगी की मदद करना तो दूर की बात है।

मानवाधिकार संस्थायें तथा बुद्धिजीवी जो छत्तीसगढ़ सरकार की भर्त्स्ना करते नहीं थकते क्योंकि वह नक्सलियों के विरूद्ध कार्यवाई करती है और उनकी आतंकी षिकारों को संरक्षण व अन्य सहायता करती है। क्योंकि कई मानवाधिकार संस्थाओं व सज्जनों को नक्सल पीड़ित क्षेत्रों में जाने से रोकती है क्योंकि वह सभी के सभी जाते हैं तो केवल नक्सलवादियों का कुशल-क्षेम पूछने, उनकी हर प्रकार से मदद करने, न की उन्हें अपनी ग़ैरकानूनी हरकतों व आतंकी गतिविधियों से बाज़ आने और सामान्य प्रक्रिया में शामिल हो जाने की सलाह लेकर।

हर नागरिक, विशेषकर मानवाधिकार संस्था, का यह मौलिक सामाजिक व नागरिक कर्तव्य है कि वह कानून का पालन करे और कानून तोड़ने वालों को सज़ा दिलाने में मदद करे। पर हमारी मानवाधिकार संस्थाएं तो उल्टा कर रही हैं। वह तो कानून तोड़ने वालों को बचाने में जी-जान से लगी हुई हैं।

विनायक सेन के समर्थक दावा करते हैं कि सेन तो नक्सलियों को मानवीय सहायता देते थे और उनकी आपराधिक गतिविधियों में सम्मिलित नहीं थे। वह दावा करते हैं कि जब उनके कार्यकर्ता नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में जाकर नक्सलियों के विरूद्ध अत्याचार के मामलों की जांच करने की नीयत से जाना चाहते हैं तो उन्हें जाने नहीं दिया जाता। उन्हें परेशान व प्रताड़ित किया जाता है। नक्सलियों के विरूद्ध अत्याचार के जो मामलें उनकी रिपोर्ट द्वारा सरकार के सामन लाये जाते हैं उन पर कार्यवाही नहीं होती।

दूसरा पहलू

पर इस सत्य का दूसरा पहलू भी है। आये दिन नक्सल प्रभावित व अन्य क्षेत्रों में आतंकी घटनायें होती हैं जिन में सैंकड़ों-हज़ारों निर्दोश अपनी जान गंवा बैठे हैं। क्या उनके विरूद्ध कार्यवाही नहीं होनी चाहिये जो निर्दोष नागरिकों की हत्या करते हैं? क्या अपराधियों को सज़ा नहीं मिलनी चाहिये? क्या इस पुनीत कार्य में सरकार की मदद करना मानवाधिकार संस्थाओं का मानवीय कर्तव्य नहीं है? यदि है तो वह यह कर्तव्य क्यों नहीं निभा रहे? क्या देश व समाज के प्रनि अपना नागरिक व मानवीय कर्तव्य न निभाना एक नागरिक व मानवीय अपराध नहीं है?

विनायक सेन के समर्थकों को ज्ञात होना चाहिये कि किसी भी अपराधी की किसी भी प्रकार की सहायता करना — आर्थिक, सामाजिक, व साक्षय मिटाने या गवाहों को डराना-धमकाना एक अपराध है और यही अपराध विनायक सेन व उनके समर्थक कर रहे हैं।

अपराधी पर निर्दोष

यह भी सर्वविदित है कि आतंकी घटनाओं के चश्‍मदीद गवाह भी अदालत में सच्च बोलने से घबराते हैं क्यांकि उन्हें अपनी जान भी प्यारी है और अपना परिवार भी। ऐसी स्थिति में लगभग सभी आतंकी गवाही के अभाव में ससम्मान बरी हो जाते हैं और छाती ठोंक कर दावा करते हैं कि वह निर्दोष थे और उल्टे सरकार पर उन पर अत्याचार करने का आरोप मढ़ते हैं। यही सेन के समर्थक कह रहे हैं।

अभी सेन व उनके समर्थक निचली अदालत के निर्णय के विरूद्ध उच्चतम न्यायालय तक अपील में जा सकते हैं। इसलिये समाचार माध्यमों द्वारा इतना हो-हल्ला खड़ा करने को कोई औचित्य नहीं हैं। यदि वह जनतन्त्र में विश्‍वास रखते हैं, न्याय व्यवस्था में आस्था रखते हैं तो उन्हें अपील में जाकर न्याय की गुहार करनी चाहिये। इन महानुभावों को इतना तो ज्ञात होना ही चाहिये कि आपराधिक मामलों पर निर्णय व न्याय न्यायालयों में मिलता है न कि समाचार माध्यमों के माध्यम से। न ही इन मामलों पर न्याय जनता ही करती है। जिस दिन न्याय न्यायालय नहीं, समाचार माध्यम तथा जनता करने लगेगी उस दिन देष में प्रजातन्त्र नहीं लाठीराज हो जायेगा जिसमें चरितार्थ होगी कहावत – जिसकी लाठी उसकी भैंस। लगता है जो लोग विनायक सेन के मामलें में इतना हो-हल्ला कर रहे हैं वह यही चाहते हैं।

2 COMMENTS

  1. यह लेख मेरे मन की बात कह दिया है. मैं आभी तक सोच रहा था आतंकबादी या नक्सली नरसंहार कर रहा हो एक भी तथाकथीथ मानवाधिकारवादी लोग एक शब्द टाक नहीं बोलते लेकिन जैसे ही कीसी को सजा मिलता हो आसमान सर पर उठा लेता है.

    आब समय आ गया है इस तरह के मुट्ठी भर लोगों को शबक सीखाया जाय.

  2. बिनायक सेन को सजा पर अमेरिका और यूरोप के सारे अखबार चिल्ला रहे हैं.. कोई न कोइ बड़ी बात तो होगी ही. भारत को पूरी न्यायिक प्रणाली को ही मानवाधिकारों का दुश्मन बताया जा रहा है.. द गार्जियन ने एक लेख का शीर्षक दिया “शान्ति के पुजारी के खिलाफ भारत का युद्ध”…
    बिनायक सेन की देशभक्ति पर मुझे कोइ शक नहीं, न ही उनके द्वारा किये गए पुनीत कार्यों पर…. लेकिन….
    इसे वामपंथी विचारधारा वाले और अंग्रेज इस तरह क्यों प्रचारित कर रहे हैं जैसे बिनायक सेन को हटाने के लिए भारत का पूरा तंत्र लगा था.. भारत की निर्वाचित सरकार, न्यायपालिका और यहाँ की पूरी जनता भी.. लोग ऐसे हल्ला मचा रहे हैं जैसे आज से पहले दुनिया की किसी अदालत ने गलत फैसला दिया ही न हो.. छात्तीसगढ़ की अदालत ने राज्य के कानूनों और वहाँ की पुलिस द्वारा उपलब्ध कराये गए साक्ष्यों पर अपना निर्णय दिया.. कोइ भी अदालत अभियुक्त के महान चरित्र को देखकर फैसला नहीं देती.. उन प्रमाणों के आधार पर अगर कोर्ट ने यह पाया कि नक्सलियों से संपर्क करने के मामले में क़ानून की सीमाओं का उल्लंघन किया तो और उसके लिए उन्हें सजा दी तो इसका बिनायक के महान व्यक्तित्व और कार्यों से क्या सम्बन्ध है? और जरूरी नहीं कि यह फैसला सही हो.. पर हमारी न्यायिक प्रक्रिया अपील का पूरा अधिकार देती है.. यदि बिनायक ने कहीं भी कानूनी रूप से गलत कार्य नहीं किया तो वे अंततः बाइज्जत रिहा होंगे.. इतना विश्वास है मुझे भारत की न्यायिक प्रणाली पर.. भले उनकी जगह कोइ गरीब ऐसे केस में फंसता तो न बच पाता क्योंकि उसके लिए बुद्धिजीवी लोग इतने बड़े-बड़े लेख थोड़े न लिखते.. न ही गार्जियन में उसपर लेख आता और न ही नोबेल विजेता बयान देते उसपर…
    ये लोग उस भारत को मानवाधिकार की सीख मत दीजिए जहां संसद पर हमला करने वाले को भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ आवेदन करने का अधिकार है.. और यह भारत ही है कि हम इतना चिल्ल-पों मचा लेते है सरकार से लेकर अदालत तक पर.. और लोकतंत्र तथा मानवाधिकार की रक्षा करना हमें अमेरिका, रूस या चीन से सीखने की जरुरत नहीं है… वे पहले अपना रेकार्ड देख लें…
    जो लोग आज विनायक के लिए इतना हल्ला कर रहे हैं वो क्या इतने ही जोश में होते अगर विनायक की जगह कोइ आम आदिवासी होता… विनायक जी का केस लड़ने के लिए तो अब तक लाखों डॉलर्स आ गए होंगे चंदे में.. कई बड़े वकील भी तैयार होंगे… इसी दोगली बुद्धीजीविता को धिक्कार है…

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