लालकृष्ण आडवाणी
अगस्त, 2005 में राष्ट्रपति ने ‘लोक प्रशासनिक प्रणाली को पुनर्गठित करने हेतु एक विस्तृत ब्लूप्रिंट तैयार करने‘ के उद्देश्य से श्री वीरप्पा मोइली की अध्यक्षता में दूसरा प्रशासनिक सुधार आयोग गठित किया था।
आयोग की चौथी रिपोर्ट का शीर्षक है ‘शासन में नैतिकता‘। इस रिपोर्ट की प्रस्तावना में सबसे ऊपर महात्मा गांधी का निम्न उध्दरण दिया गया है:
एक इन्सान के रूप में हमारी महानता इसमें इतनी नहीं है कि हम दुनिया को बदलें – वह तो परमाणु युग का रहस्य है – जितनी इसमें है कि हम अपने को बदल डालें।
प्रस्तावना की शुरूआत इस पैराग्राफ से होती है:
महात्मा जी की एक सुदृढ़ और खुशहाल भारत की दृष्टि -पूर्ण स्वराज्य- कभी वास्तविकता में नहीं बदल सकती यदि हम आमतौर पर राजनीति, अर्थव्यवस्था और समाज से भ्रष्टाचार के खात्मे के मुद्दे का समाधान नहीं कर लेते।
रिपोर्ट आगे वर्णन करती है कि भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करने में ‘विसल-ब्लोअरों‘ ने कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और इसलिए ‘विसल-ब्लोअरों‘ को सुरक्षा देने वाले कानूनों को भ्रष्टाचार के विरूध्द कानून में शामिल करना चाहिए। रिपोर्ट कहती है:
सूचना देने वाले व्यक्ति भ्रष्टाचार के बारे में सूचना प्रदान करने में एक आवश्यक भूमिका अदा करते हैं। किसी विभाग/एजेंसी में काम करने वाले लोक सेवक अपने संगठन में अन्य लोगों के पूर्ववृत्तों और गतिविधियों से परिचित होते हैं। तथापि, प्राय: वे बदले की भावना के डर से इस सूचना को देने के इच्छुक नहीं होते।
यदि पर्याप्त रूप से सांविधिक संरक्षण प्रदान कर दिया जाए तो इस बात की बहुत ही संभावना होती है कि सरकार को भ्रष्टाचार के बारे में पर्याप्त सूचना मिल सकती है।
”भ्रष्टाचार, घोटाले की सूचना देने वाला व्यक्ति” (विसल-ब्लोअर) ये शब्द हमारे शब्द कोश में अपेक्षाकृत हाल ही में जुड़े हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में, डेनियल एल्सबर्ग नाम का व्यक्ति जो तथाकथित ”पैंटागोन पेपरों” पर ”सीटी बजाता था” के दु:ख और विपत्ति के बाद, वाटरगेट के बाद के युग में, सीटी बजाना केवल संविधि द्वारा न केवल सुरक्षित कर दिया गया है, बल्कि नागरिकों के नैतिक कर्तव्यों के रूप में प्रोत्साहित भी किया जाता है।
ऐसे संरक्षण की व्यवस्था वाले कानून ब्रिटेन, अमेरिका, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैण्ड में हैं।
विधि आयोग ने अपनी 179वीं रिपोर्ट में एक पब्लिक इंटरेस्ट डिस्कलोज़र (प्रोटेक्शन ऑफ इन्फार्मर्स विधेयक [Public Interest Disclosure (Protection of Informers)Bill] का प्रस्ताव सुझाया है जिसमें ‘विसल-ब्लोअर‘ को सुरक्षा देने का प्रावधान है। प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट उन दो भारतीयों के दु:खद उदाहरण का वर्णन करती है जिन्होंने भ्रष्टाचार को उजागर करने का अपना नैतिक दायित्व निभाते हुए अपनी जान की कीमत चुकाई।
रिपोर्ट कहती है: इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन (आई ओ सी) में काम करने वाला मंजुनाथ शणमुखम भारतीय प्रबंध संस्थान, लखनऊ का स्नातक था। उसने पेट्राल पंपों के स्वामियों द्वारा मिलावट के विरूध्द अपनी लड़ाई में रिश्वत लेने से इंकार कर दिया और अपने जीवन को दी गई धमकियों की भी परवाह नहीं की। उसको इसकी कीमत चुकानी पड़ी। उसे 19 नवम्बर, 2005 को तथाकथित रूप से भ्रष्ट पेट्रोल पंपों के मालिकों के आदेश पर गोली से मार दिया गया।
”भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण में कार्यरत सत्येन्द्र दुबे ने सड़कों के निर्माण में फैले अत्यधिक भ्रष्टाचार का खुलासा किया। वह भी 27 नवम्बर, 2003 को मृत पाया गया।”
****
मैंने इन सब का उल्लेख इसलिए किया है क्योंकि मैं मानता हूं कि स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास में ‘नोट के बदले वोट‘ काण्ड सर्वाधिक शर्मनाक है।
यह केवल यूपीए सरकार के ऊपर काला धब्बा नहीं है; यह भारतीय लोकतंत्र पर भी कीचड़ समान है।
इन तीन सांसदों ने सरकार के काले कारनामे को उजागर कर लोकतंत्र की उत्कृष्ट सेवा की है। और सरकार जिसकी एआरसी रिपोर्ट में जोर दिया गया है कि इस तरह भ्रष्टाचार को उजागर करने वाले इस तरह के काम को न केवल वैधानिक सुरक्षा देने की जरूरत है अपितु यह एक नैतिक आवश्यकता भी है। सरकारी कर्मचारियों के लिए वैधानिक संरक्षण भले ही आवश्यक होंगे, लेकिन संसद सदस्यों के लिए नैतिक आचरण ही स्वयं में न्यायोचित है।
6 सितम्बर की शाम को जब मैंने सुना कि ‘विसल-ब्लोअर‘ के रूप में काम करने वाले तीन में से दो सांसदों को जेल भेज दिया गया है तो मैं अत्यन्त विचलित हो गया। इसने मुझे सत्र के अंतिम दिन सदन में यह कहने को प्रवृत किया कि ”मुझे मालूम था कि वे रिश्वत की समूची राशि को सदन के पटल पर रखने का इरादा रखते हैं। यदि मुझे लगता कि वे कुछ गलत कर रहे हैं तो दल का नेता होने के नाते मैं उन्हें रोकता। हालांकि यदि सरकार सोचती है कि उन्होंने जो किया वह गलत था और इसलिए उन्हें जेल में भेज दिया गया, तो मैं सत्ता पक्ष को बताना चाहूंगा कि मैं उनसे ज्यादा दोषी हूं क्योंकि मैंने उन्हें रोका नहीं। मुझे भी तिहाड़ भेज दो।”
सन् 2008 में जिन तीन सांसदों ने इस काण्ड को उजागर कर इतिहास बनाया उनमें से कुलस्ते जनजातीय समान्य से हैं, भगोरा और अर्गल दोनों अनुसूचित जाति से हैं। साफ है कि जिन लोगों ने पैसा लेकर इनसे सम्पर्क किया वे मानते थे कि इन सांसदों को फांसा जा सकता है। अर्गल वर्तमान में सांसद हैं अत: उनका केस स्पीकर द्वारा एटार्नी-जनरल को भेजा गया है।