कलम की आवाज़-घायल हिन्दुस्तान

अभिनव भट्ट

सदाचारिता-त्याग एवं मूल्यों की रक्षा करने में अनवरत रहने वाले देश का नाम भारत है। भारत राष्ट्र ने पचासों आक्रमणों को झेला है, फिर भी विश्व मानचित्र पर सीना ताने हुए प्रखरता के साथ सभी को अपने अस्तित्व का भान कराता रहता है। आजाद भारत में तथाकथित अपना लोकतंत्र तो बहाल हुआ। यूँ लगा कि अब इस देश की रफ्तार इतनी तेज हो जायेगी कि अन्य राष्ट्र इसके अनुरागी बनेंगे। लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा। भारत आज़ाद हुआ; भीख के संविधान पर लोकतंत्र बहाल हुआ और देश की रफ्तार बढ़ाने के बजाय लोग अपनी जेबों की रफ्तार बढ़ाने लगे।

भ्रष्टाचार की इबारत भारत देश आजादी के तुरंत बाद से ही लिखता चला आ रहा है। सत्ता विलासियों ने अपनी धाक जमाने के लिये देश को मजहब में बाँटा और जनता में अपना चेहरा पुजवाया। लोगों ने स्वयं देश को ‘‘चाचा’’ घोषित करवाया। ‘चाचा’ के दौर से ही भ्रष्टाचार घोटालों का रूप लेकर सामने आता है। सन् 48 में जीप घोटाला, 52 में बी0एच0यू0 फण्ड घोटाला, बारूद समेत आज हम टू-जी स्पेक्ट्रम एवं एस बैण्ड घोटालों की विवेचना कर रहे हैं। घोटालों का स्तर तो सैनिकों की वर्दी से लेकर शहीदों की ताबूत तक पहुँच गया। सब कुछ बिकाऊ हो गयी; चाहे इज्जत हो या ईमान। आज़ाद भारत में घोटाले भले ही आम भारतीयों के लिये बाढ़ जैसी त्रासदी सिद्ध हुए हों लेकिन, भ्रष्टाचारियों के लिए वही बाढ़ रूपी त्रासदी घोटालों की ‘गंगा’ बन गयी है। इस गंगा में वो भूखे नंगे नहाने में जुट गये हैं जो कभी भण्डारों में खाते थे और आज देश का भण्डारा खा जाते हैं। जिनके जीवन में साइकिल चलाने की हैसियत नहीं थी वो बेशकीमती कारों से देश का दौरा करते हैं। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि जो कल तक जूगनू भी नहीं थे वो आज सितारे बन गये हैं।

भारत की रीढ़ यहाँ की शिक्षा पद्धति रही है। सर्वप्रथम सत्ता भोगियों ने देश के मेरु को तोड़ने के लिए यहाँ की शिक्षा व्यवस्था को सरीसृप अवस्था में लाकर खड़ा कर दिया। गुरुकुल पद्धति की शिक्षा में प्राप्त विद्या सभी को रोजगार एवं प्रतिष्ठा देती थी लेकिन मैकाले ने यहाँ के नेतृत्व को बरगलाकर देश के युवा विद्यार्थियों को हीन भावना से ग्रसित एवं बेराज़गारी की शिक्षा व्यवस्था शुरु करवायी भारतीय शिक्षा पद्धति आज बाजार की धूरी पर घूम रही है। मुफ्त शिक्षा तो दूर की कौड़ी रह गयी है। अब तो स्कूलों, कॉलेजों की फ्रेंचाइजी दी जाती है। सबसे आश्चर्य जनक तथ्य तो यह है कि यह फ्रेन्चाइजियाँ सोसाइटी बॉयलाग के अनुसार नहीं दी जाती। इस कृत्य में भी घनघोर भ्रष्टाचार व्याप्त है। इसकी एक बानगी काशी से प्रकाशित पत्रिका ‘आग्रह-सूचना का, सत्य का’ के अक्टूबर 2011 अंक में प्रकाशित है। स्कूलों में फीस के रूप में ली जा रही मोटी रकम राजस्व (परोक्ष में सत्ता पार्टी) का मुख्य श्रोत बन गयी है। सन् 1964 में ‘कोठारी आयोग’ ने शुल्क मुक्त शिक्षा व्यवस्था की अनुशंसा करते हुये कहा, ‘‘छात्रों के फीस को राजस्व उगाही का स्रोत मानना अवांक्षनीय है। यह कराधान का सबसे प्रतिगमनकारी तरीका है। अच्छा होगा कि राजस्व बढ़ाने के लिये कोई और तरीका तलाशा जाय। देश को ऐसी दिशा में विकास के कदम बढ़ाने चाहिये जहाँ शुल्क मुक्त शिक्षा का प्रावधान न हो।’’

सुरक्षा की स्थिति भी दिन-प्रतिदिन दयनीय ही होती जा रही है। पहले तो सिर्फ जम्मू एवं कश्मीर में ही सुरक्षा की चिंता रहती थी और अब देश का कोई ऐसा कोना नहीं है जहाँ अवांछनीय कृत्य न होता हो अब तो दुश्मनों की ताकत लोकतंत्र के ‘मंदिर’ संसद तक पहुँचने की हो गयी है। सियाचिन, जम्मू, लद्दाख, कारगिल इत्यादि सीमाओं पर भारत के जवान अपने यौवन को न्यौछावर करते हुए बर्फ रूपी भारत माँ की सफेद साड़ी को अपने रक्त से रंगमय बनाते हैं, और उन सपूतों की शहादत पर दिल्ली राजनीति करती है। अब तो कश्मीर में अलगाववादियों पत्थरबाजों को संसद एवं कैबिनेट में बैठाया जाता है। सैन्य विशेषाधिकार को हटाने की अनुशंसा की जाती है। बात सिर्फ कश्मीर पर ही समाप्त नहीं होती है। भारत का देवस्थान अर्थात् वास्तु शास्त्र के अनुसार पूर्वोत्तर का क्षेत्र ‘ईशान कोण’ देवताओं का स्थल है। वहाँ चीन के दानव अपना कब्जा जमा रहे हैं। जवाहर पोस्ट, गोस्वमी हिल इत्यादि आज भी चीनियों की जलालत झेल रहा है। तिब्बत की स्थिति तो किसी से भी छुपी नहीं है। उस स्थान को भारत के प्रधान मंत्री द्वारा यह कहकर छोड़ा गया था कि यहाँ तो घास का एक तिनाका भी नहीं उगता ऐसी भूमि का हम क्या करेंगे। वह एक लाख वर्ग किलो मीटर की सुफला भूमि आज चीनी आतंक का सबब बनी है। यह सर्वविदित है कि विश्व का सर्वाधिक जलस्रोत तिब्बत में ही है। कुल 2 लाख से अधिक जल स्रोतों से सम्पन्न सुजला क्षेत्र बंजर घोषित कर दिया गया। और यह कृत्य सिर्फ विश्व नेता बनने के लिये ही किया गया था।

विश्वनेता बनने की होड़ ने देश की राष्ट्रीयता को विखण्डित कर दिया है। अपनी राष्ट्रीयता को खोकर अन्तर्राष्ट्रीयता का तमगा पाने की चाहत ने भारत की भूमि को कलंकित किया है। यूरोप एवं अमेरिका को खुश करना यहाँ की राजनीति का परम ध्येय हो गया है। इस देश की असीम विडम्बना रही है कि यहाँ अभी भारतीय मानस का लोकतंत्र स्थापित नहीं हो पाया है। दस देशों से भीख मांगकर तैयार किये गये विश्व के सबसे बड़े संविधान पर हम बखूबी इतराते रहे हैं। यहाँ तक कि लोकतंत्र की परिभाषा तक अमेरिकी राष्ट्रपति लिंकन से भीख में ली गयी है। ‘‘जन के लिए, जन के द्वारा, जनता का शासन ही लोकतंत्र है।’’ इस कथन में ‘शासन’ पर जोर दिया गया है। हर कोई चलाना चाहता है। यह ‘शासन’ करने की प्रवृत्ति ने देश का अनुशासन बिगाड़ दिया है। ऋग्वेद में लोकतंत्र की विराट संकल्पना की गयी है; ‘संगछध्व संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्’ सबके साथ मिलकर हर कार्य संपादित करना ही लोकतंत्र होता है। और यहाँ कानून थोपे जाते हैं। भारत की आजादी के बारे में डॉ0 ओम प्रकाश केजरीवाल अक्सर एक किस्सा सुनाया करते हैं। वे कहते है एक ब्रिटिश शोध छात्र ने इंग्लैण्ड के साम्राज्य पर शोध किया। उसने भारत की आज़ादी के विषय में एक लाइन लिखा .इस पंक्ति को ब्रिटिश प्राध्यापक ने थोड़ा सा संशोधित कर दिया। उसने एक शब्द को जोड़ा और उस शोधार्थी की थिसिस को मान्यता दे दी।

आज भी भारत अपनी प्राप्त प्रदत्त आजादी को दूसरी-तीसरी आजादी के रूप में बखूबी मना रहा है। संवैधानिक तकाज़ा यह है कि राशन की दूकान से लेकर शासन की गलियारे तक ‘जन’ गायब है ‘तंत्र’ कायम है। कानूनी धारायें बह रही हैं- इंसाफ के लिये नहीं राजनीतिक ‘फीलगुड इंतजाम’ के लिये। गांधी, जे0पी0, नरेन्द्र देव का भारत और भारतीय परिवेश में सु-राज का सपना मात्र ‘मनमोहन’ होकर गलियों के गटर में दम तोड़ रहा है। ‘लोक’ का ‘तंत्र’ फ़ेल हो चुका है; शायद तभी ‘जन’ को ‘लोकपाल’ की जरूरत महसूस हो रही है। क्या परिवर्तन होगा? तो कितना सुखद-शुभद होगा ? तमाम सवाल बेशक सलीब पर लटके रह जायेंगे। निःसन्देह वर्तमान शासन-व्यवस्था संसद से सड़क की नहीं गांधी से एक परिवार विशेष की दूरी नापने में व्यस्त है। ‘लोक’ पस्त है कदाचार ‘तंत्र’ मस्त है। संवैधानिक आज़ादी प्रोटोकॉल की तरह सुरक्षित है। कदम-कदम पर चोट खाये हुए हिन्दुस्तान की पीड़ा को व्यक्त करने हेतु कोई आगे नहीं आता है। हर कोई इसे एक जख्म ही देता है। घायल हुए इस हिन्दुस्तान की विडम्बना का उपचार सिर्फ कलम से ही संभव हो सकता है क्योंकि लोहे की काट कागज की तलवार ही तय करती है। भारत अपनी आजादी भूल रहा है। यह देश हमले किसी बरबस कवि की पंक्तियाँ का रूप लेकर यही विनती करते हुए परिलक्षित हो रहा है –

मैं इस धरती की धड़कन हूँ, मैं मस्तक हूँ हिमालय का

मैं मस्जिद की हूँ मीनारें, मैं गुम्बद हूँ शिवालय का

इबादत हूँ मैं गाँधी की शहीदों की शहादत हूँ

मेरा बर्ताव मत बदलो मैं आजादी की आदत हूँ।।

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