झारखंड एक बार फिर सियासी अस्थिरता के भंवर में फंसा हुआ हुआ है। अर्जुन मुंडा सरकार से झामुमो के समर्थन वापसी के बाद यह स्थिति उत्पन्न हुई है। नयी सरकार के गठन को लेकर दावं-पेच और मंथन जारी है। झामुमो ने वैकल्पिक सरकार के गठन के लिए राज्यपाल से समय मांगा है। नयी सरकार के गठन में कांग्रेस की भूमिका महत्वपूर्ण है। कांग्रेस ने फिलहाल अपने लिए सभी विकल्पों को खोल रखा है। प्रदेश कांग्रेस में जहां सरकार के गठन को लेकर बेचैनी हैं वही पार्टी का केन्द्रीय नेतृत्व खुद को सत्ता के पीछे भागते नहीं दिखाना चाहता। राज्य के जमीनी हालात कांग्रेस के पक्ष में नहीं हैं। मौजूदा संकट के बहाने पार्टी राज्य में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने की सम्भावना भी तलाश रही है। राज्य में यदि राष्ट्रपति शासन लगता है तब भी परोक्ष रूप से कांग्रेस का ही राज्य होगा। फिलहाल अनिश्चितता के काले बादल राज्य के ऊपर मंडरा रहे हैं। देखना यह है कि यह बादल कब तक छंटते हैं। यहां कोई नयी सरकार का गठन होता है अथवा राष्ट्रपति शासन लागू होता है।
सियासी अस्थिरता झारखंड की नियति बन गयी है। विडम्बना है कि झारखंड में सियासी स्थायित्व कभी नहीं रहा। सियासी अस्थिरता का आलम यह है कि इन बारह वर्षों में आठ मुख्यमंत्री और दो राष्ट्रपति शासन यह राज्य देख चुका है। अब तक किसी भी दल की सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया है। सियासी अस्थिरता के कारण विकास कार्य प्रभावित हो रहा है। विकास के लिए स्थिरता का होना आवश्यक है। जहाँ स्थिरता होगी, वहीँ विकास होगा। छतीसगढ़ और उत्तराखंड का गठन भी झारखंड के साथ ही हुआ था, लेकिन विकास की दौड़ में दोनों राज्य झारखंड से आगे निकल गये। वहाँ सियासी स्थिरता प्रारंभ से रही। यहाँ शुरू से ही सत्ता में बने रहने के लिए हर कदम पर समझौते और सौदे होते रहें हैं। राज्य में जिसकी भी सरकार बनी यह खेल चलता रहा। सत्ता के इस खेल में प्रदेश की प्रतिष्ठा की परवाह कोई नहीं करता। सड़कें खराब हो, पानी-बिजली की किल्लत हो, स्कूल और अस्पताल बंद पड़े हों उससे नेताओं को कोई फर्क नहीं पड़ता है। सामाजिक सरोकारों, लोकहित कार्यों की आवश्यकता यहाँ के नेताओं को महसूस नहीं होती है। जिन उद्देश्यों के लिए अलग राज्य का निर्माण हुआ था उसकी पूर्ति अब तक नहीं हो पायी है। झारखंड आदिवासी अस्मिता के नाम पर बना था। पर आदिवासियों के हित में तो कुछ खास नहीं हुआ, सियासी तबके ने राज्य को कुर्सी की लड़ाई का अखाड़ा जरूर बना दिया है।
अलग राज्य के निर्माण के पीछे यह भावना थी कि प्राकृतिक रूप से समृद्ध राज्य सबसे गरीब क्षेत्र बन कर न रहे। कोशिश थी कि राज्य अपने लोगों के विकास की योजनाएं ज्यादा प्रभावी तरीके से लागू कर सके और लोगों की जिन्दगी बेहतर बना सके। झारखंड के भौतिक संसाधन जल, वन, खनिज विस्तृत औद्योगिक संसाधन को बनाये रखने और क्षेत्र का विकसित बनाने के लिए निःसंदेह पर्याप्त थे। राज्य विभाजन के समय चिंता बिहार को लेकर थी। झारखंड ने सरप्लस बजट के साथ अपनी पारी की शुरुआत की थी, जबकि उस समय बिहार का बजट घाटेवाले था, लेकिन इन 12 सालों में तसवीर उलट गयी। बिहार की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ उसके विकास दर और मानव संसाधन में भी काफी प्रगति हुई है। बिहार ने वित्तीय संसाधनों का भी बेहतर प्रबंधन किया है। झारखंड में यह स्थिति नहीं बन पायी।
राज्य में जो भी नेतृत्व उभरा उसने उन मुद्दों को भूला दिया जो यहां के जनता की रोजमर्रे की जिन्दगी के शोषण, उत्पीड़न और दुखः दर्द से जुड़ा था। जनजातीय हितों की लगातार अनदेखी की गयी। जनजातीय नेतृत्व के नाम पर उभरे नेताओं का करिश्माई अंदाज में धनकुबेर बन जाना एक बड़ा सवाल है। कमजोर नेतृत्व और अस्थिरता के कारण राज्य में अविकास का माहौल बन गया। गरीब और गरीब हो गये और अमीरों की नयी पौध अचानक उग आई। नौकरशाही तबका भी खुद के विकास में ही उलझा रहा और राज्य के विकास का मार्ग पूर्णतः अवरूद्ध हो गया। अबुआ दिशुम का सपना देखनेवाली यहां की 3.29 करोड़ जनता और जनजातीय समाज को मधु कोड़ा, शिबू सोरेन, अर्जुन मुंडा और बाबूलाल मरांडी सरीखे आदिवासी मुख्यमंत्रियों ने क्या दिया वह जगजाहिर है।
सियासी अस्थिरता की वजह से राज्य में विकास की योजनाएं प्रभावी नहीं हो पा रही हैं। ऐसे में गरीबी, बेरोजगारी और विस्थापन से निजात मिलने की उम्मीद पूरी तरह से धूमिल हो रही है। जल, जंगल और जमीन की लड़ाई जारी है। भूमि अधिग्रहण राज्य के लिए चुनौती बना हुआ है। विस्थापन की समस्या सुलझने की जगह उलझती ही जा रही है। ह्यूमन ट्रैफिकिंग थमने का नाम नहीं लेती है। कानून व्यवस्था में भी लगातार गिरावट देखी जा रही है। नक्सलवाद की समस्या पहले से विकराल हुई है। हर क्षेत्र में झारखंड लगातार पिछड़ता जा रहा है।
जिन मूलभूत कारणों पर आधारित हो इतिहास का संभवतः सबसे लंबा आंदोलन चला और तब कहीं जाकर अलग राज्य का गठन हुआ, उन कारणों पर यहां की सरकार आज भी ध्यान नहीं दे पा रही है। ऐसा नहीं है कि झारखंड में विकास की संभावनाएं खत्म हो गयी हैं। यदि नीयत और नीति ठीक हो तो झारखंड विकास के पथ पर दौड़ सकता है। झारखंड के पास जो समृद्ध संपदा मौजूद है वह किसी अन्य राज्य के पास नहीं है। फिर क्या कारण है की राष्ट्रीय फलक पर यह राज्य अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज नहीं करा पाया है। सियासी अस्थिरता विकास के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोधक बना हुआ है। झारखण्ड के विकास के लिए सियासी स्थिरता निहायत जरुरी है। झारखंड को सियासी अस्थिरता से निजात दिलाने की जिम्मेवारी राजनीतिक वर्ग के साथ-साथ झारखंड की आम जनता पर भी है।
झारखण्ड में एक बार फिर राष्ट्रपति शासन है. लंबे समय से यह राज्य राजनीति की प्रयोगशाला बना हुआ है. झारखण्ड की तरक्की की राह में यूँ तो कई रोड़े हैं. लेकिन सबसे बड़ा रोड़ा है सियासी अस्थिरता. 2009 में संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में खंडित जनादेश मिला था और राज्य में भाजपा के नेतृत्व में झामुमो, आजसू और जदयू की मिलीजुली सरकार चल रही थी. झामुमो में सरकार को लेकर अभी भी बेचैनी है वही कांग्रेस की प्राथमिकता नयी सरकार नहीं, बल्कि झामुमो के साथ लोकसभा चुनावों को लेकर गठबंधन है.