नेता समाज बताये, वोट बैंक बड़ा या संविधान ?

आरबीएल निगम
जब कभी भी देश में कोई विवाद होता है समस्त राजनीतिक दल संविधान की दुहाई देते नज़र आते हैं , लेकिन वास्तव में संविधान का मजाक बनाने वाले भी यही सभी राजनीतिक दल ही होते हैं। जिसे हम मूर्ख जनता देखते हुए भी अपनी आँखें और मष्तिक बंद कर इनकी चिकनी चुपड़ी बातों में आकर इनके अंधभक्त बन एक दूसरे पर कीझड़ फेंक ववाही लुटते रहते हैं।

भारत देश का दुर्भाग्य
भारत में आज इंतने राजनीतिक दल हैं विश्व में कहीं नहीं। एक भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं जो सीना चौड़ा करके कह सके की वह संविधान की शर्तों एवं नियमों को सशर्त अपना रहा है। यही भारत देश का दुर्भाग्य है। बात तो करते हैं संविधान की, लेकिन उसकी धज्जियाँ उड़ाने से गुरेज भी नहीं करते। गुड़ खाते है लेकिन गुलगुलों से परहेज़ करते हैं। इस आरोप के एक नहीं हज़ारों प्रमाण मिल जायेंगे।

आशा जागृत हुई जब देश को 56 इंच के सीने वाला प्रधानमंत्री मिला। लेकिन लगता है संविधान की शर्तों को नमन करने के लिए 56X4=224 इंच चौड़े वाले प्रधानमंत्री की देश को जरुरत है। (मै प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विरोधी नहीं बल्कि दिल से प्रशंसा करता हूँ ,वह इस लिए कि जिस तरह इस आदमी ने गोधरा दंगे को कंट्रोल किया वह प्रशंसनीय है ,मेरे ज्ञान से गुजरात का यही मात्र एक दंगा ऐसा है जो एक सप्ताह से कम समय में शांत हुआ और इसमें केवल दोषियों को ही सजा हुई न कि बेकसूरों को पकड़ जेलों में डाला जाये। द्रुतीय, 2012 के गुजरात विधान सभा चुनावों में तत्कालीन प्रधानमंत्री को सरक्रीक विषय पर पाकिस्तान के विदेश मंत्री अब्दुल सत्तार को भारत बुलाये जाने पर सार्वजनिक सभा में भाषण देते हुए चुनौती दी थी।) उसका कारण है क्योंकि देश में ढ़ोंगी समाजवादी नेताओं की कमी नहीं , थोक के भाव में भरे पड़े हैं। जिन्हे केवल अपनी कुर्सी की चिंता है देश जाये भाड़ में। क्योंकि यहाँ चुनाव में वोट मांगे जाते हैं धर्म के नाम पर ,जाति के नाम पर ,सम्प्रायिकता के नाम पर ; कोई ये कहकर वोट नही मांगता कि मैंने समाज के लिए या देश के हित में ये -ये काम किये। ऐसे कोई देश क्या प्रगति करेगा जहाँ नेता अपनी ही संस्कृति का उपहास करने में गुरेज नहीं करते। जबकि विश्व में एक भी ऐसा देश नहीं जहाँ ऐसे घिनोने नामों पर वोट मांगे जाएँ ; ऐसा केवल भारत में ही संभव है बल्कि यह कहने में संकोच नहीं की वास्तव में भारत में आज ऐसा ही हो रहा है। जो चिंता का विषय है। ऐसे नेता देश को सुदृढ़ करने की बजाय खोगला कर रहे हैं। कोई नेता अपनी वोट बैंक सोंच बदलने को तैयार नहीं ,उनके लिए उनका वोट बैंक ही सर्वोपरि है देश नहीं। संविधान में इतने संशोधन कर संविधान को संविधान की बजाय मात्र एक मनमोहक ग्रंथ बना दिया है ,जिसे जब चाहो बदल लो, मानो संविधान कोई हसीना हो, एक से मन भर गया बदल दो। क्या तमाशा बना रखा है ?लोकतंत्र के नाम पर कब तक जनता को मूर्ख बनाया जायेगा।

राष्ट्रीय भाषा
इस वोट बैंक की संकीण मानसिकता ने इतनी भाषाओं को मान्यता दी हुई है जिस कारण राष्ट्रीय भाषा हिंदी का कितना अनादर हो रहा है किसी को चिंता नहीं सबको चिंता है मात्र अपने वोट बैंक की ,देश जाये भाड़ में ,लेकिन हमारा वोटबैंक टस से मस न हो। परन्तु फिर भी कुछ दलों का वोटबैंक इधर -उधर चला जाता है। वास्तविकता ये की ये वोटबैंक किसी का सगा नहीं। इस वोटबैंक का हाल ये है “जहाँ देख तवा परात ,वहीँ बीता सारी रात ” l विश्व में कहीं भी जाओ केवल एक ही भाषा प्रचलन में होती है। ये नेता सरकारी खर्चे पर जो विदेशों में जाते है क्या सीख कर आते हैं ? खाक ?क्या ये सरकारी धन का दुरूपयोग नहीं ?आखिर कब तक सरकारी धन का दुरूपयोग होता रहेगा?

एक व्यक्तिगत उधारण दे रहा हूँ। आप हंगरी जाइए, या किसी भी अन्य देश में वहां अपनी राष्ट्र भाषा को ही महत्व दिया जाता है, इंग्लिश को बाद में। लेकिन यहाँ स्थिति एक दम विपरीत है। इसके जिम्मेदार कोई और नही हमारा नेता समाज ही है ,जो अपने वोटबैंक की खातिर राष्ट्र भाषा को महत्वहीन कर दिया है। हंगरी में हंगरी भाषा ही मिलेगी ,वहां इंग्लिश जानने वाले भी बहुत काम है। लेकिन यहाँ मेरे प्रदेश में मेरी ही भाषा बोली जाएगी। कुछ समय पूर्व मुंबई में राज ठाकरे ने क्या ड्रामा किया , कितने राजनीतिक दल ठाकरे के विरुद्ध खड़े हुए। क्या किसी ने यह कहने का साहस किया कि “जब राष्ट्रभाषा हिंदी है तो हिंदी का अपमान क्यों ?”मुंबई में हिंदी क्यों नहीं, मराठी ही क्यों ?क्या यह भारतीय संविधान का मजाक नहीं ?

बहुसंख्यक बनाम अल्पसंख्यक
जब हमारा संविधान सब को सामान अधिकार देता है, फिर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक कहाँ से आ गए ? क्या हमारे नेता संविधान का मजाक नहीं बना रहे? विश्व में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ अपनी जनसँख्या को विभाजित किया जाता है। विभाजन का कारण धर्म हो या जाति, क्या यह संविधान के विरुद्ध नहीं ?क्या संविधान जनता को विभाजित करने का अधिकार देता है ?यदि नहीं, फिर नेताओं ने जनता का विभाजन क्यों किया ?क्या यह संविधान का अपमान नही ?

विश्व में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ अपनी जनसँख्या को विभाजित किया जाता है। विभाजन का कारण धर्म हो या जाति, क्या यह संविधान के विरुद्ध नहीं ?क्या संविधान जनता को विभाजित करने का अधिकार देता है ?यदि नहीं, फिर नेताओं ने जनता का विभाजन क्यों किया ?क्या यह संविधान का अपमान नही ? फिर जिनको अल्पसंख्यक होना चाहिए ,उनको तो बहुसंख्यक के साथ जोड़ दिया और जिनको अल्पसंख्यक नहीं होना चाहिए उनको अपनी कुर्सी की खातिर अल्पसंख्यक बना कर प्रलोभन देकर सरकारी धन का दुरूपयोग कर देश ही की जनता को मुर्ख बना कर किस तरह संविधान की दज्जियां उड़ाई जा रही है , देख शर्म आती है इन्हे अपना नेता मानने मेंl आखिर कब तक संविधान का हास्य बनता रहेगा।

सर्वप्रथम, हमारे नेता समाज को अपनी सोंच में बदलाव लाना होगा। समस्त जनता तो भारतीय मानना होगा। धर्म या जाति के आधार पर नहीं। यही कारण है देश में साम्प्रदायिकता पनप रही है जिसमें समाज जल रहा है और नेता समाज उस आग पर अपनी रोटियां ही नहीं सेक रहे बल्कि अपनी तिजोरियां भी भर रहे हैं। ऐसे लोग संविधान की क्या रक्षा करेंगे और क्या पालन? फिर कसूरवार हम जनता भी है जो वोट देते समय अपनी बुध्दि का लेशमात्र भी इस्तेमाल नहीं करते , झूठे प्रलोभनों में आकर विघटनकारियों एवं संविधान विरोधियों को ही वोट दे आते हैं। कोई अपने उम्मीदवार से यह पूछने का साहस नहीं करता की “जब संविधान समान अधिकार की बात कहता है फिर आपकी पार्टी ने अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ क्यों बनाया हुआ है ,ये दोहरा चरित्र क्यों ?” यह कटु सत्य है की भारत की समस्त पार्टियां दोहरा चरित्र अपनाये हुए हैं, सभी ने अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ,अनुसूचित जाति एवं जनजाति प्रकोष्ठ बनाये हुए हैं ,जो इस बात को सिद्ध करता है कि संविधान की रक्षा का रोना और घड़ियाली आंसुओं में कोई अंतर नहीं।

क्या हमारे नेता अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक का अर्थ जानते हैं ? शायद नहीं क्योंकि यदि इस अर्थ का ज्ञान होता तो इस तरह के प्रकोष्ठों की स्थापना नहीं करते अर्थात हाथी के दांत दिखाने के और खाने के और। वास्तव में अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि इन दो शब्दों से देश को कितनी हानि हो रही है, 67 वर्षों में किसी भी नेता ने सोंचने का साहस तक नहीं किया, करें भी क्यों वोटबैंक जो सर्वोपरि है।

आरक्षण
संविधान बनाने वाले डॉ भीम राव आंबेडकर ने अपनी जाति के उद्धार के लिए दस वर्ष मांगे थे, जो बिना किसी अवरोध के सभी ने स्वीकार कर लिया ,किन्तु जब स्वयं उन्होंने देखा की यहाँ उद्धार कम राजनीति ज्यादा हो रही है तब उन्होंने इस आरक्षण को समाप्त करने के लिए कहा। जो बात कल तक एक अफवाह समझी जा रही थी आज वास्तविक हो रही है।

इस में कोई दो राय नही कि आज इस आरक्षण का जरुरत से कहीं अधिक दुरूपयोग हो रहा है। इस बात को आम नागरिक से लेकर सरकार तक जानती है ,फिर भी कोई कार्यवाही नहीं होती। क्यों ?सरकारी सुख -सुविधा लेने के लिए जाति का प्रयोग होता है लेकिन समाज में बोलचाल में उच्च जाति का प्रयोग किया जाता है , आखिर ये दोगली नीति क्यों ?आखिर कब तक ये जातियां और नेता देश को गुमराह करते रहेंगे ?

जाति के नाम पर आरक्षण चलो उचित मान भी लिया जाये लेकिन जब कोई इनको जाति के नाम से बुलाये तो उसके विरुद्ध कानून है परन्तु जब इस जाति का कोई परिवार उच्च जाति के नाम से अपनी पहचान बनाये तो उसके विरुद्ध कोई कानून नहीं। क्या यह दोगली नीति नहीं ? यह कोई आरोप नहीं एक कटु सच्चाई है। व्यक्तिगत प्रमाण हैं। कोई तीर-तुक्का नहीं।

व्यक्तिगत प्रमाण
घटना लगभग 25/26 वर्ष पूर्व 29, रानी झाँसी रोड स्थित सिंडिकेट बैंक की है। कार्यालय का चपरासी जब भी बैंक से आकर मुझे एक व्यक्ति से मिलने के लिए बोलता। यह क्रम 3-4 माह चलता रहा। एक दिन मैं स्वयं बैंक से आकर बैठा ही था , चपरासी ने आकर वही बात जब कही तो मैंने कहा “यार , चलो अभी तो मैं बैंक से आया हूँ , आज उस महारथी से मिलकर आते हैं। ” उस व्यक्ति ने चाय बिस्कुट आदि से स्वागत किया बातचीत बहुत मधुर वातावरण में चलते -चलते तूतू -मैं मैं में बदलते ही बैंक के दरवाज़े बंद और समस्त कर्मचारियों ने घेर लिया ,जब ये मालूम हुआ कि झगड़ा किसी लेन देन को लेकर नहीं बल्कि जा ति को लेकर है क्यों कि मैं बार-बार ये ही बोल रहा था कि “एक कायस्थ को.…(जाति का नाम ) कहने या समझने की हिम्मत कैसे हुई ?” वास्तव उसका सदर बाजार निवासी कोई मित्र अनुसूचित जाति से था और पूरा परिवार तो क्या समस्त कटरा अपने आप को निगम कहलाता है। उन दिनों उस शाखा में एक सरदारजी थे ,सदैव हंसमुख ,वो बार बार मेरे कंधे पर हाथ रख शांत होने का अनुरोध करते करते मैनेजर की कक्ष में ले जाकर माफ़ी मांगते हुए चाय पीकर जाने की विनती की। तब भी मैंने यही कहा “गलती सरकार की है कि कोई किसी भी अनुसूचित जाति वाले को उसकी जाति के नाम से बुलाये और वह व्यक्ति पुलिस में रिपोर्ट लिखवा दे तो सजा, लेकिन जब यही जाति उच्च जाति के नाम से अपने आपको प्रजलित करे ,इस पर आज तक कोई कानून नही बना ,आखिर क्यों ?

एक और घटना, बात लगभग 50 वर्ष पुरानी है। मेरे मोहल्ले में कुछ परिवार इसी जाति के रहते थे। कायस्थ बहुल होने के कारण मोहल्ला गली कायस्थान के नाम से मशहूर थी ,बच्चे शिक्षित हो गये, डाकघर में नियुक्त हो गए ,वही स्थिति उनके बच्चों के साथ हुई। उनका एक लड़का आर के पुरम स्थित रक्षा मंत्रालय में नियुक्त हो गया। उसका काम था जिस विभाग में ब्राह्मणों की बहुलता हो वहां कायस्थ बन जाये और जहाँ कायस्थ हो वहां ब्राह्मण। चलता रहा ये सिलसिला। भेद खुला पदोन्नति के समय। नौकरी तो कोटे से मिली, आवेदन में जाति उल्लेख थी ,विभाग में चर्चित थे निगम यानि कायस्थ। विभाग में विवाद खड़ा हो गया। क्योंकि जिसकी पदोन्नति होनी थी उसकी जगह किसी और की कैसे हो गयी। विवाद न्यायालय तक पहुंच गया। बात मोहल्ले की गवाही पर आ गयी। मोहल्ले से कोई यह कहने को तैयार नहीं हुआ कि यह व्यक्ति इस जात से है। आखिर में मेरे पिताश्री(स्व ) मगन बिहारी लाल निगम के पास आए। पिताश्री ने तुरंत कहा “एक दिन जब तुम्हे तुम्हारी जाति के नाम से सम्बोधित किया था तुम्हारी बिरादरी ने कितना उत्पात मचाया था ,और मुझसे यह कहा रहे हो कि कोर्ट में यह बयान दूँ की ये चमार हैं। ” विपक्ष के वकील ने कहा “अगर यही अन्याय आपके बेटे के साथ हुआ होता तब भी क्या आप यही कहते ?” पिताश्री ने कहा “ये काम कोर्ट का है कि जात छिपाने पर क्या सजा दी जाये ? मैंने जो कहा है आपने होश में कहा है। एक समय था जब इस व्यक्ति के पिता और दादा के हाथ की नागरियां और इनके फूफा जो आज भी जूते ही बनाते हैं, दूर -दूर तक मशहूर थी। “

यह भी हकीकत है कि इस बिरादरी के जितने भी परिवार हैं लगभग सभी उच्च जाति जैसे निगम,भाटिया ,सिंगल ,शर्मा,मल्होत्रा आदि का प्रयोग कर रहे हैं। अब प्रश्न यही उत्पन्न होता है नौकरी पाने के लिए अनुसूचित बन जाओ और दुनिया में उच्च जाति के नाम से। क्या यह आरक्षण नीति का दुरूपयोग नहीं ? क्या ये व्यक्तिगत उदाहरण सिद्ध नही करते कि इस नीति का राजनीतिक दुरूपयोग हो रहा है ?डॉ आंबेडकर ने दस वर्ष मांगे थे फिर आजतक इस नीति को क्यों ढोया जा रहा है ?जिस पार्टी को देखो आरक्षण को गले लगा रही है।

आरक्षण के दुरूपयोग का एक और उदाहरण , अनुसूचित जाति के उत्थान के लिए कितनी पार्टियां बन गयीं हैं। पार्टी बनाने से जाति का उद्धार हुआ हो या नहीं ,लेकिन पार्टी अधिकारियों का उद्धार जरूर हो गया है। सबने अपनी तीन -चार पीढ़ियों का उद्धार जरूर कर दिया। सूर्य को दीपक दिखाने की जरूरत नहीं ,दुनिया के सामने है। समस्या आँख बंद करने की है। यदि जनता, चाहे वह किसी भी जाति या सम्प्रदाय से हो, जिस दिन अपनी आँख और मष्तिक के बंद द्धार को खोलकर देखेंगे परिणाम स्वतः सामने आ जायेगा। भारत में सबसे बड़ी समस्या यह है की जनता इन व्यापारियों पर विश्वास कर लेते हैं। यदि कोई दुकानदार गलत माल देदे उससे झगड़ा करना और उसकी शिकायत करना अपना अधिकार समझते हैं लेकिन इन राजनीतिक व्यापारियों से प्रश्न करने तक का साहस नही करते कि “भई ये तो बताओ हमारे उत्थान एवं उद्धार के लिए जो तुमने पार्टी बनाई ,हमने तन एवं मन से अपना समर्थन दिया क्यों नहीं उद्धार हुआ ?क्यों आज भी यह जाति वहीँ की वहीँ है ?

गौ हत्या
आज देश में गौ मांस पर कितना विवाद चल रहा है। प्रश्न है कि “क्या संविधान इस की इज़ाज़त देता है ?” यदि संविधान इसकी इज़ाज़त नहीं देता फिर सख्ती से पालन क्यों नहीं होता ? नेता समाज बताये कि वोटबैंक बड़ा या संविधान ?क्योंकि गौ मांस पर केवल कुछ ही राज्यों में निषेध है और राज्यों में नहीं ,क्यों ?नेता समाज राष्ट्र को बताए कि “जिन राज्यों में गौ मांस की इज़ाज़त है क्या वह राज्य भारत के अंग नहीं ?” यदि हैं फिर भेदभाव क्यों ? क्या यह संविधान का अपमान नहीं ? संविधान को अपमानित कौन कर रहा है ? क्या नेता समाज इस अपराध का दोषी नहीं ?

क्या विश्व में है कोई ऐसा देश जो आरक्षण देता हो। कहने को और भी अनेक पहलु हैं ,किन्तु संक्षेप में इतना ही कहना है उपरोक्त विषयों का अवलोकन करने पर निष्कर्ष यही निकलता है कि नेता समाज ने संविधान को देश का संविधान नहीं अपितु सत्ता पाने का लोलीपोप बना दिया है। क्या नेता समाज का यही मानना है कि “कसम संविधान की खाते हैं ,लेकिन संविधान का मजाक बनाने से चुकेंगे नहीं। ” आखिर क्या है संविधान का औचित्य?कौन दिलाएगा संविधान को सम्मान ?क्या किसी देश में संविधान का ऐसा मज़ाक देखा है ?

संविधान को जलाना
क्या आपने किसी भी देश में अपने संविधान (संविधान की प्रति जलाना संविधान जलाने के बराबर है )को जलाये जाने का समाचार पढ़ा या सुना ? लेकिन यह कार्य संभव होता है भारत में। नेता समाज बताये क्या संविधान को जलाना उचित है ?यदि नहीं ,तो ऐसा करने वालों के विरुद्ध क्या कार्यवाही हुई ? और यदि नहीं हुई तो क्यों ?संविधान कोई खिलौना नहीं कि जब तक चाहा झुनझुना समझ खेले और जब चाहा जला दिया।

राष्ट्रीय ध्वज का अपमान
यह भारत में ही संभव है की राष्ट्रीय ध्वज को जलाओ ,उसका अपमान करो। यह कार्य संभव है भारत में। जो चाहो करो कोई कार्यवाही नही होगी। अगर हुई तो राजनीति के मैदान में बैठे हमारे प्यादे और मानवाधिकार हमारा ब्रह्मस्त बन इनकी सहायता के लिए सडकों पर उतर आएंगे। मीडिया के माध्यम से मौलिक अधिकारों के हनन का शोर मचवाएंगे। फिर उसके बाद कार्य में सहयोगी साहित्यकारों एवं लेखकों को राष्ट्रीय पुरुस्कारों से सम्मानित किया जायेगा। जबकि विश्व में कहीं और ऐसी दुष्काम की कल्पना भी नहीं कर सकते ,क्यूंकि वहां संविधान को ही सर्वोपरि मन जाता है,भारतीय नेता समाज की भांति संविधान को दिल भहलाने वाला झुनझुना नहीं।

भारतीय संस्कृति एवं इतिहास
विश्व में भारत ही ऐसा विचित्र देश है ,जहाँ भारतीय संस्कृति एवं इतिहास पर कुठाघात करना ही गर्व समझा जाता है। आज कितने प्रतिशत भारतीय हैं जो अपने वास्तविक इतिहास एवं संस्कृति से अवगत हैं। यहाँ हमलावरों के इतिहास को ही भारतीय इतिहास के नाम पर परोसा जाता है। जबकि इन्ही लोगों ने भारतीय संस्कृति और इतिहास को अपने पैरों में रौंद उसे कलंकित किया। और उसी परम्परा को हमारा नेता समाज आगे बढ़ाने में गौरविन्त होता है ,क्यूंकि इनको प्यारी है कुर्सी ,संविधान नहीं। जितने अधिक कुठाराघात हमलावरों के बाद हम भारतीयों ने किये हैं इसकी मिसाल विश्व में कहीं और मिल नहीं सकती। किसी भी देश की पहचान उस देश की संस्कृति ,सभ्यता एवं इतिहास होता है , उसकी आन,बान, और शान को बनाये रखने में अपना मान समझते हैं ,जबकि भारत में परिस्थिति एकदम विपरीत है। यहाँ देवी-देवताओं की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिए जाते हैं मीडिया में चर्चाएं की जाती हैं। यह सब इसलिए होता है कि हमारा नेता समाज संविधान को वो महत्व नहीं देता जिसका वह अधिकारी है।

15 अगस्त 1947 से लेकर 15 अगस्त 2015 तक भारत के प्रधानमंत्री ने लालकिले पर ध्वजारोहण किया और आगे भी होता रहेगा ,किन्तु किसी ने भी यह बताने का साहस नहीं किया कि “लालकिला का वास्तविक निर्माता कौन है और किस सन में बनाया गया था। और उस समय किस नाम से प्रसिद्ध था ?” इस सन्दर्भ में विवश हो एक नाम उल्लेख कर रहा हूँ (वैसे इस लेख में मैंने किसी पार्टी या व्यक्ति विशेष का नाम नही लिया ) इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री कार्यकाल में एक कैप्सूल गाड़ा गया था,जो काफी विवादित भी हुआ था ,उसको निकलवा कर जाँच करनी चाहिए। डर है कहीं वास्तविक भारतीय इतिहास धूमिल न हो जाये।

स्कूलों में पढ़ाया जाता है की दुनिया को फ़तेह करने वाला बादशाह सिकंदर भी जब दुनिया से विदा हुआ ,खाली हाथ गया। अरे सम्राट पोरस ने सिकंदर को भारत की पवन धरती पर कदम रखने पूर्व ही दुम दबा कर भागने को विवश कर दिया था ,फिर कहाँ से विश्व विजेता हुआ।

हिन्दू काल से ब्रिटिश काल तक हमारी यह पावन धरती सोने की चिड़िया के नाम से विश्व विख्यात थी ,लेकिन स्वंतंत्रता उपरांत कृषि प्रधान हो गयी और आज घोटाला प्रधान। यह सब इसलिए कि हमारे नेता समाज को न संस्कृति की चिंता है और न ही संविधान की। बस कुर्सी की खातिर किसी एक का या कभी-कभी दोनों का सहारा ले लेते है।

और यह हमारी विशेषकर भावी युवा पीढ़ी के लिए अच्छे संकेत नहीं है। क्यूंकि मेरी ही जैसी अधेड़ आयु के ही लगभग दस से बीस प्रतिशत लोग भारत के वास्तविक इतिहास से अवगत होंगे। और इसके लिए जिम्मेदार है हमारा नेता समाज। जितने घातक आक्रमण भारतीय संस्कृति पर हुए हैं ,उससे संस्कृति कुछ धूमिल तो हुई लेकिन समाप्त नहीं। नेता समाज इतना अवश्य समझ ले, जिस दिन यह धूल हटनी प्रारम्भ होगी इनका वोटबैंक भी अपने पहलू में छुपाने की बजाय इनके साये से भी दूर रहेगा। फ्रेंच ज्योतिष नॉस्ट्राडौमुस द्वारा 1555 में की गयी भविष्यवाणियों का अध्ययन करने पर एक आशा की किरण बहुत ही अतिनिकट भविष्य में प्रज्जलित होने को आतुर है।

साम्प्रदायिकता
यह कोई भयभीत करने वाला अथवा भयंकर शब्द नहीं ,जितना इसे हमारे नेता समाज और इनके समर्थकों (दूसरे शब्दों में चमचे) ने बना दिया है। मैं अधिक चर्चा में नहीं जाना चाहता। कहते है न प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। ताजमहल जिसे विश्व का सातवां अजूबा कहा जाता है ,किसी ने क्या नेता समाज से या न्यायालय को पी आई एल डाल कर यह पूछने का साहस किया कि “क्या कारण की ताजमहल के दो कमरों को आज तक क्यों नहीं जनता के लिए खोला गया ?” साम्प्रदायिकता होती नहीं बल्कि फैलाई जाती है। वास्तविकता का बोध करवाना यदि साम्प्रदायिकता है तो धर्मनिरपेक्षता क्या होती है ? हमारा नेता समाज वास्तव में धर्मनिरपेक्ष का भावार्थ तक न जानते हैं और नाही जानने का प्रयत्न करते हैं , यदि जानते हैं तो वोटबैंक के आगे नतमस्तक हो उसका दुष्प्रचार करके जनता को भ्रमित करते हैं और शिक्षित समाज भी पुरस्कर पाने की लालसा में धृतराष्ट्र बन अनुसरण करने लगे हैं।
अभी दीपावली पर्व का समापन भी नहीं हुआ कि समाचार चैनलों ने प्रदुषण का रोना शुरू कर दिया, जबकि पिछले कुछ वर्षों से हर 15 अगस्त की सांध्य पर दिल्ली के जामा मस्जिद क्षेत्र में जो आतिशबाज़ी होती है क्या प्रदूषण स्वच्छ होता है ? कोई नहीं बोलता ,क्यों ? ये साम्प्रदायिकता नहीं तो क्या है ?क्या संविधान केवल एक ही धर्म पर प्रहार कर ने की आज्ञा देता है ?
सरदार (सिख ) कौम कहां से आई ?
क्या हमारा नेता समाज राष्ट्र को यह बताने का साहस कर सकता है कि यह सरदार जिन्हें आज सिख के नाम से जाना जाता है,कहाँ से आई ? आखिर ये कौम या जात या फिर धर्म क्या है ? आज के बहुसंख्यक की रक्षा करने के लिए कितनी यातनाएं इस कौम ने झेलीं है ?न जाने कितने सरदारों को जान से हाथ थोना पड़ा ? न जाने कितने सरदारों को खौलते तेल में डाला गया ?और न जाने कितनों को आड़े से कटा गया ? इतना ही नहीं, इस भेदभाव की घिनौनी राजनीति ने एक संत को आतंकवादी बना दिया। क्या वह सिख संत आतंकवादी था ? आदि आदि। यदि इस सच्चाई अर्थात कटु सत्य को बताने का साहस कर सकता है तो केवल सरदार यानि सिख , बाकी किसी में वास्तविकता को बताने का साहस नहीं क्यूंकि वोटबैंक का भय उन्हें सत्यता से दूर ही रहने की सलाह देगा।यह इस जाति का साहस है कि दिल्ली के गुरु द्वारा शीश गंज पर मुग़लों द्वारा इस जाति पर हुए जुल्मों को दर्शाते चित्र ,काश ये चित्र हिन्दुओं ने लगा दिये होते तथाकथित धर्मनिरपेक्षों ने आसमान सर पर उठा लिया होता।

प्रश्न वही आता ही कि संविधान की दुहाई देने वाले नेता समाज ने देश को धर्म एवं जाति के विस्फोटक बारूद के ढ़ेर पर स्थापित कर दिया है।क्या ऐसे नेता देश का भला कर सकते हैं जिन्हे देश से कहीं अधिक अपनी कुर्सी प्यारी हो ?

संक्षेप में इतना ही कहना चाहूंगा कि वैसे तो संविधान की प्रतिष्ठा एवं मान पर चर्चा करने को अनेक बिंदु हैं , एक लम्बी श्रृंखला लिखी जा सकती है। लेकिन वोटबैंक के आगे नतमस्तक हमारे नेता समाज एवं उनके धृतराष्ट्र और गंधारी बने अनुयायिओं द्वारा ऐसा विषैला विषपान जनता को करवाया जाएगा जिसका विश्लेषण करना शब्दों से परे है। डॉ श्यामाप्रसाद मुखर्जी एवं नेताजी सुभाषचन्द्र बोस इसके जीवंत उदाहरण हैं।नाम तो अनेक हैं। हाँ , फूलन देवी के कातिल शेर सिंह राना का नाम भुला नहीं जा सकता। जो अपनी जान जोखिम में डाल दिल्ली की तिहाड़ जेल से भागकर अफगानिस्तान से हिन्दू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की अस्थियां लेकर भारत आया। जो मौहम्मद गौरी की कबर पर जाने के लिए बनी सीढ़ियों के नीचे रखी हुई थी और जिस पैड़ी के नीचे अस्थियां रखी हुई थीं लोग उस पैड़ी पर जूते चप्पल मारने के बाद ही कबीर तक जाते थे। परन्तु भारतीय नेता समाज जैसा वर्ग विश्व में कहीं और नहीं मिलेगा जो वोटबैंक के आगे नतमस्तक हो संविधान को एक झुनझुने की भांति प्रयोग करे। इनके लिए संविधान नहीं वोटबैंक सर्वोपरि है। जब तक नेताओं के ऐसी मानसिकता रहेगी भारत और भारत की प्रगति आधारहीन भव्य महल की भांति रहेगी। ताश के महल के सामान बन, जिसने चुनाव प्रणाली को भी एक मजाक बना दिया है।

R.B.L.Nigam
Executive Editor

 

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