वृद्धावस्था की त्रासदी

डा. विश्व विजया सिंह 

01_2010_6-oldage-1_1262196073मेडिकल साइंस के विकास के कारण मृत्यु दर घट गई है और आम आदमी की औसत आयु बढ़ गई है। कितनी भी आयु पार कर ली हो, मरना कौन चाहता है? पर वृध्दावस्था में अकेले जीवन व्यतीत करना आज के युग की त्रासदी है।

वृद्ध दंपति, जो घर में अकेले रहते थे, उनकी हत्या हो गई। दो प्रौढ़ बहनें अपने सुसज्जित घर में मृत पाई गईं। उनकी हत्या कर दी गई थी। निश्चत ही इनके घरों से मूल्यवान सामान गायब थे। एक प्रौढ़ आयु दंपति के घर में चोरी के इरादे से कुछ लोग आए, तो उनकी नींद खुल गई। प्रतिरोध करने का परिणाम, उन्हें मौत की नींद सुला दिया गया। फिर मूल्यवान सामान लेकर वे दरवाजा खुला छोड़ चलते बने। सुबह घर में काम करने वाली बाई ने आकर देखा, सारे घर में सामान उथला-पुथला पड़ा था। शयनकक्ष में दंपति की लहूलुहान लाशों को देख नौकरानी की चीख निकल गई।

अपने जमाने की एक प्रसिद्ध अभिनेत्री वृध्दावस्था में अकेली रहती थीं। उनकी स्वाभाविक मृत्यु हो गई, पर काफी समय पश्चात लोगों को इसका पता लगा। तब तक लाश सड़ने लगी थी। एक स्वतंत्रता सेनानी, जिनका पुत्र विदेश में बस गया था, वे स्वदेश में अकेले ही रहते थे। अपने सारे काम स्वयं करने की क्षमता रखते थे, किन्तु मृत्यु किस रूप में और कब आएगी कौन कह सकता है। दो दिनों तक जब उनके घर का दरवाजा नहीं खुला तो पड़ोसियों में इस बारे में कुछ चर्चा हुई। उनके कुछ परिचितों को सूचित किया गया। तब दरवाजा तोड़ा गया। देखा, उनकी मृत देह पलंग से नीचे पड़ी थी। डाक्टर को बुलाया गया, जिन्होंने घोषित किया कि उनके प्राण पखेरू तो लगभग 36 घंटे पूर्व हृदयाघात के कारण उड़ चुके थे। विदेश से बेटा आया, तभी उनका अंतिम क्रिया-कर्म संभव हुआ।

एक अविवाहिता महिला सेवानिवृत्ति पश्चात अकेली रहा करती थीं। उसी शहर में रहने वाले उनके भाई व परिवारिजन कभी-कभी जाकर उनसे मिल आया करते थे। वे घर से कम ही निकलती थीं। केवल सामान आदि खरीदने आते-जाते मुहल्ले वाले उन्हें देखते थे अन्यथा वे किसी से मिलती-जुलती भी नहीं थीं। मृत्यु होने पर दो-तीन दिन तक किसी को पता नहीं लगा। पड़ोसियों ने शंका होने पर अखबार वालों को सूचित किया और स्थानीय समाचार पत्र में पढ़कर भाई को पता लगा तो तुरन्त पहुंचे। पुलिस की निगरानी में घर खुलवाया गया और अंतिम संस्कार हुआ। घर में किसी प्रकार की चोरी वगैरह नहीं हुई थी। अत: स्वाभाविक मृत्यु ही हुई होगी।

ये घटनाएं महानगरों में ही नहीं दूसरे शहरों में भी घटित हो रही हैं। समाचार पत्रों में छपती हैं, उन पर चर्चा होती है, फिर लोग भूलने लगते हैं और फिर एक और घटना इस सूची में जुड़ जाती है। यह तो चरम परिणति वाली घटनाएं हैं। आज कितने प्रौढ़ एवं वृध्द दंपति एकाकी जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य हैं। उनकी संतानें नौकरियों के कारण अन्य शहरों में जाकर बस चुकी हैं या रोजी-रोटी के कारण विदेशी नागरिकता प्राप्त कर चुकी हैं। वे यदा-कदा ही अपने देश आ पाते हैं, माता-पिता या अन्य संबंधियों से मिलने।

विदेश क्या, अपने ही देश में नौकरी के कारण दूर-दराज जा बसे लोगों के लिए अपने काम, बच्चों की पढ़ाई, पत्नी की सर्विस आदि कारणों से तालमेल बैठाकर माता-पिता के पास आना बहुत मुश्किल होता है। वृध्द माता-पिता को यदि आवश्यकता हो तो उनके बेटे धनराशि भेजकर अपनेर् कत्ताव्य की इतिश्री समझ लेते हैं। यदि माता-पिता को इसकी आवश्यकता नहीं होती, वे स्वअर्जित धन राशि के ब्याज या पेंशन से अपना जीवन निर्वाह करने की क्षमता रखते हैं तो फिर वे अपनी संतान को इससे भी मुक्त कर देते हैं।

अपनी पूरी आयु मेहनत करके, अर्थोपार्जन करके, घर-गृहस्थी के अनेक दायित्वों को पूरा करके, हारी-बीमारी के तमाम झमेलों से गुजरकर जब वे प्रौढ़ावस्था में पहुंचते हैं तो अपने को नितान्त अकेला पाते हैं। बेटियां विवाहोपरान्त अपने घर पहुंच चुकी होती हैं, तो बेटे नौकरी के फेर में बीवी-बच्चों के साथ कहीं और बस चुके होते हैं।

अपने ही बच्चों की सेवा प्राप्त करना तो भूतकाल की सी बात हो चुकी है। बहुएं सास-ससुर की सेवा करेंगी, गर्म भोजन कराएंगी यह सब कल्पनातीत है। जब बेटे-बहू साथ में रहते ही नहीं हैं तो कैसी सेवा, किस रूप में सेवा संभव है? इन परिस्थितियों में तो बेटे-बहू यदा-कदा मेहमान जैसे आते हैं तो माता-पिता भी उनके अतिथ्य में व्यस्त हो जाते हैं। शरीर न चलने पर भी माताएं तरह-तरह के व्यंजन बनाकर बेटे-बहू, पोते-पोतियों को खिलाकर आत्मसंतुष्टि प्राप्त करती हैं।

वृद्ध दंपति एकाकी जीवन व्यतीत करते हुए घर की तमाम जिम्मेदारियों का निर्वहन करने को मजबूर होते हैं। पति घर से बाहर के काम जैसे खरीद-फरोख्त, बिजली, पानी, टेलीफोन आदि के बिल जमा कराना, कभी कोई टूट-फूट, आधुनिक उपकरणों की मरम्मत कराने बाजार के चक्कर लगाते रहते हैं तो पत्नी घर के काम में व्यस्त रहती हैं। फिर जोड़ों का दर्द सताए या और कोई तकलीफ, खाना तो बनाना ही होता है। दूसरे जरूरी काम भी करने ही होते हैं। इस प्रकार वे तमाम जिम्मेदारियों को पूरा करके, बच्चों के व्यवस्थापित होने के बाद भी घर-गृहस्थी के कामों से मुक्त नहीं हो पाते। पोते-पोतियों की मीठी-तोतली आवाज सुनना, उन्हें कहानियां सुनाना, उनके साथ खेलना उनके नसीब में नहीं होता। आधुनिक साधनों से सुसज्जित घर, जीवन निर्वाह हेतु पर्याप्त भौतिक साधन होते हैं, किन्तु वे एकाकी जीवन व्यतीत करने को बाध्य होते हैं।

जवानी में जब घर भरा-पूरा था, गृहस्थी के तमाम काम, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, नाते-रिश्तेदार, समाज केर् कत्ताव्य… फुर्सत के क्षण ही कहां मिल पाते थे, मगर अब फुर्सत ही फुर्सत। समय काटे नहीं कटता। समाचार पत्र पढ़कर, टी.वी. देखकर, प्रात: या संध्या समय कुछ वाकिंग करके किसी तरह समय बिताते हैं। किसी से कुछ पल बात करने को भी तरसते हैं। आसपास के लोग अपने काम में व्यस्त होते हैं। संबंधियों को भी उनके पास आने व मिलने का समय नहीं होता। भरे-पूरे घर में पहले समय कैसे कट जाता, पता नहीं चलता था। काम-काज के अलावा हंसी-मजाक, मिलना-जुलना, तीज-त्योहार, कभी किसी का जन्मदिन, तो कभी विवाह-वार्षिकी का आयोजन। अब अकेले-अकेले वृध्द दंपति, क्या तो होली मनाएं क्या दीवाली? बच्चों के बर्थ-डे याद आते हैं, तो शुभकामनाएं और यथा संभव उपहार भेजना वे नहीं भूलते।

चित्र का एक दूसरा पहलू भी है। जहां व्यवसाय या अन्य कारणों से बेटे-बहुएं साथ रहते हैं, वहां भी बेटे-बहुओं को समय नहीं होता, बड़ों से बात करने का। पोते-पोतियां लंबा समय स्कूल में व्यतीत कर गृहकार्य, टेस्ट की तैयारी आदि में लगे होते हैं। कहां समय होता है उनके पास, दादा-दादी से कहानी सुनने या बात करने का।

जिन घरों में बहुएं कामकाजी होती हैं, वहां तो प्रौढ़ या वृध्द दंपति को घर में काफी काम संभालने पड़ते हैं। छोटे बच्चों को संभालना बड़ी भारी जिम्मेदारी होती है। स्कूल जाने लगते हैं तो भी उन्हें संभालना, थकाने के लिए पर्याप्त होता है। फिर रसोईघर भी संभालना होता है। बहू तो जल्दी-जल्दी में जितना काम कर जाए, ठीक वरना तो उन्हें ही देखना है। अपनी सर्विस से जब बहू थक-पच कर आती है तो उसके लिए भी विश्राम जरूरी है। रात्रि भोजन वह बनाती भी है तो विलम्ब से। अब वृध्द दंपति को जल्दी भोजन की आदत हो तो खुद बना लें या फिर इंतजार करें।

घर में एक ही टी.वी. हो तो बच्चे व उनके अभिभावक शाम व रात को उसे छोड़ना नहीं चाहते। वृध्द दंपति की अपनी पसंद एक तरफ रह जाती है। धनाढय परिवारों में एक से अधिक टी.वी. होने की स्थिति में सब अपने-अपने कमरे में टी.वी. देखते रहते हैं। अब टी.वी. भी कितना देखा जा सकता है, पर घर के अन्य सदस्य उसमें व्यस्त हों तो वे और करें भी तो क्या करें।

आयु के इस दौर में भी उन्हें मुक्ति नहीं। वे खुद अपना ध्यान रखें, बीमार पड़ें तो एक-दूसरे को संभाले। फिर आजकल हाई या लो ब्लड-प्रेशर, डायबिटीज, आर्थराईटिस, थायराइड आदि किसी न किसी बीमारी से तो लोग पीड़ित रहते ही हैं। खाने-पीने का ध्यान रखना, नियमित चेकअप कराना, समय पर दवाइयां लेना, सब उन्हें ही करना है, क्योंकि उन्हें भली-भांति पता है कि लापरवाही से, अनियमितता से बीमारी बढ़ गई तो कौन संभालेगा? इसलिए बीमार न पड़ने में ही समझदारी है, पर बीमारी किसी की इच्छा पर तो निर्भर नहीं करती। बिन-बुलाए मेहमान की तरह आ ही जाए तो एक-दूसरे का संबल बनकर उसे झेलने के अलावा कोई और रास्ता भी तो नहीं होता उनके पास।

मेडिकल साइंस के विकास के कारण मृत्यु दर घट गई है और आम आदमी की औसत आयु बढ़ गई है। कितनी भी आयु पार कर ली हो, मरना कौन चाहता है? पर वृध्दावस्था में अकेले जीवन व्यतीत करना आज के युग की त्रासदी है।(भारतीय पक्ष)

2 COMMENTS

  1. वृद्ध

    वह गुमनाम सा अँधेरा था ,
    और वहाँ वह वृद्ध पड़ा अकेला था ,
    वह बेसहाय सा वृद्ध वह असहाय सा वृद्ध ,
    वह लचार सा वृद्ध ।

    आज चारो तरफ मेला था ,
    पर वह वृद्ध अकेला था ,
    चारो तरफ यौवन की बहार थी ,
    पर वहाँ वृद्धावस्था की पुकार थी ,
    कहने को तो वह वृद्ध सम्पन्न था ,
    पुत्रो परपुत्रो से धन्य -धन्य था ,
    पर वह अपनो के भीड़ में अकेला था ,
    गुमनामी भरी जिंदगी ही उसका बसेरा था ।

    पुत्रियों की आधुनिक वेशभूषा ,पुत्रो के विचार ,
    जैसे उसके मजाक उड़ाते थे ,
    उसके अनुभव उसके विचार ,
    कही स्थान न पाते थे ।

    वह वृद्ध जो कभी कर्तवयों का खान था ,
    जो कभी पुत्रो का प्राण था ,
    जो कभी परिवार की शान था ,
    जो कभी वट वृक्ष के सामान था,
    हाय आज वह अकेला है ,
    और जैसे चित्कार रहा है ,
    क्या यही समाज है ,
    क्या यही अपने है ,
    क्या यही लोग है जिनके लिये उसने कभी गम उठाए थे ,
    क्या यही लोग है जिनके लिये उसने कभी धक्के खाए थे ,
    अगर हाँ ,
    तो उस वृद्ध की कराह हमारी आत्मा को जगाती है,
    हमारे खून पर लांछन लगाती है ,
    हमें कर्तव्य बोध करती है ,
    और इस समाज पर प्रश्नवाचक चिन्ह बन ,
    हमें शर्मसार कर जाती है ।

    कुमार विमल

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