स्वतंत्रता के नाम पर नंगापन

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kiss of love
प्रवीण दुबे
देश के अग्रगण्य विश्वविद्यालयों में से एक दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय आजकल खासा चर्चा में है। यहां पढऩे वाले छात्र-छात्राओं द्वारा किस ऑफ लव अभियान का पुरजोर समर्थन करने और दिल्ली के सार्वजनिक स्थानों पर इसका खुल्लम-खुल्ला प्रदर्शन करने की बेशर्मी भरी घटनाएं सामने आ रही हैं। हद तो तब हो गई जब इस तरह की नैतिकता विहीन फूहड़पन करने वाले लड़के-लड़कियों का जमघट झण्डेवालान स्थित संघ कार्यालय के बाहर जा पहुंचा।
यह सारा घटनाक्रम क्यों चल रहा है? यहां इसका उल्लेख किया जाना भी जरुरी है। कोच्चि में एक जोड़े द्वारा किए जाने वाले प्रेम प्रसंग का स्थानीय लोगों द्वारा विरोध किए जाने के बाद कुछ लैला-मजनूंछाप लोगों ने यहां किस ऑफ लव जैसे अश्लील अभियान की शुरुआत की और यह अभियान कोच्चि, कोलकाता, मुम्बई होता हुआ देश की राजधानी दिल्ली तक जा पहुंचा। अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि सार्वजनिक स्थानों पर बेशर्मी के साथ एक दूसरे का आलिंगन करना कहां तक उचित है? दूसरा सवाल यह है कि आखिर इस घिनौने कृत्य को अंजाम देने वाले निकृष्ट लोगों ने संघ कार्यालय को निशाना क्यों बनाया?
जहां तक पहले प्रश्न का जवाब है उसके बारे में स्पष्ट तौर पर यह कहा जा सकता है कि स्वतंत्रता के नाम पर इस तरह का अभियान एक विकृत मानसिकता का ही परिचायक है। ऐसी मानसिकता जिसमें न तो चिंतन है न मनन और न ही इस देश की संस्कृति से उनका कोई लेना-देना है। यह वह लोग हैं जो खाओ-पीओ और मौजकरो की विचारधारा के पोषक हैं। पाश्चात्य संस्कृति इनके रग-रग में रच-बस गई है। यह भारत को भारत नहीं बल्कि यूरोप बनाना चाहते हैं। भला कोई इनसे पूछे कि इस देश में प्रेम पर रोक किसने लगाई है जो स्वतंत्रता के नाम पर अश्लीलता का भोंड़ापन परोसा जा रहा है।
शर्मसार कर देने वाला है यह घटनाक्रम। इससे भी ज्यादा शर्मनाक है देश के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं की इसमें सहभागिता भारतीय संस्कृति में स्कूल-कॉलेजों को मां सरस्वती के मंदिर की संज्ञा दी जाती है, ऐसी स्थिति में सरस्वती के मंदिर में किस ऑफ लव अभियान की न केवल चर्चा बल्कि यहां से पूरी दिल्ली में इस अभियान को संचालित करना यह सिद्ध करता है कि इस अभियान के पीछे निश्चित ही इस देश और यहां की संस्कृति को बदनाम करने की गहरी साजिश है।
दिल्ली विश्वविद्यालय में पिछले दस वर्षों के इतिहास  पर नजर दौड़ाई जाए तो लिखने के कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि यह विश्वविद्यालय वामपंथी विचारधारा के तथाकथित हिन्दू विरोधी बुद्धिजीवियों का बड़ा अड्डा बन गया है। कौन भूल सकता है कि इसी विश्वविद्यालय के कुछ तथा कथित बुद्धिजीवि नक्सलवादी आंदोलन को सही ठहराते हैं, कौन भूल सकता है कि इसी विश्वविद्यालय के कुछ तथा कथित बुद्धिजीवी शिक्षा में भारतीय मूल्यों की प्रतिस्थापना का विरोध करते रहे हैं।
अत: इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि किस ऑफ लव जैसे अभियान के लिए इस विश्वविद्यालय में पढऩे वाले नौजवानों को न केवल भड़काया जा रहा है बल्कि यह भी कहा जा रहा है कि आओ और संघ कार्यालय के समीप खड़े होकर फूहड़ता का नंगा-नाच करो जिससे भारतीय संस्कृति के रक्षकों और नैतिकता का समर्थन करने वालों को पीढ़ा पहुंचे। आखिर वामपंथी विचारधारा से प्रेरित विदेशी एनजियो छाप कथित बुद्धिजीवियों से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है?
गाहे-बगाहे हर मामले में राष्ट्रवादी शक्तियों पर आरोप-प्रत्यारोप लगाना, उन पर हमले करना और उन्हें कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करना इनकी प्राथमिकता में शामिल है। इसके पीछे एक ही मुख्य कारण है वह है इन्हें न तो इस देश की मूल संस्कृति, परम्पराओं से प्यार है और न नैतिकता और चरित्र से कोई सरोकार चूंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इन सब बातों का न केवल पक्षधर है बल्कि उसे देशभक्ति, अनुशासन, व्यक्तिनिर्माण, चरित्र निर्माण की पाठशाला कहा जाता है। ऐसे में वामपंथी विचारधारा से प्रेरित एनजीओ छाप तथाकथित बुद्धिजीवियों को संघ भला कैसे स्वीकार्य हो सकता है।
यही कारण है कि इन लोगों ने किस ऑफ लव जैसे घिनौने अभियान के लिए संघ कार्यालय के नजदीक का बाजार चुना। ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि स्वतंत्रता का अर्थ यह कदापि नहीं होता कि बीच चौराहे पर खड़े होकर नंगा नाच किया जाए। यह सर्वविदित है कि कपड़ों के नीचे सभी नंगे हैं बावजूद नेतिकता के चलते सभी लोग शरीर ढांक कर रखते हैं कोई भी कपड़े उतारकर खड़ा नहीं हो जाता कपड़ों से शरीर को ढकना स्वतंत्रता के अधिकार का हनन है।
इस तरह का नंगापन परोसकर देश का माहौल बिगाडऩे वालों को नहीं भूलना चाहिए कि आज स्वतंत्रता, प्रेम और निजता के नाम पर वे जो हो-हल्ला मचा रहे हैं और पाश्चात्य देशों की सभ्यता को यहां लाना चाहते हैं वर्तमान में उसी सभ्यता के सबसे बड़े पोषक देश अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी आदि में भारतीय सभ्यता, संस्कृति और परम्पराओं के प्रति जबरदस्त लगाव देखा गया है। इन देशों के लोग पाश्चात्य की भोगवादी परम्पराओं को तिलांजलि देकर भारतीय हिन्दुत्ववादी सोच और सभ्यता को स्वीकार रहे हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है हरिद्वार, प्रयाग और वाराणसी जैसे शहरों के गंगातट जहां हजारों की संख्या में अंग्रेज भगवा व धारण कर सिर मुंडाये हरे राम, हरे कृष्ण जपते देखे जा सकते हैं। भारतीय योग और इन्द्रीय निग्रह को आज पूरा विश्व स्वीकार चुका है।
ऐसी स्थिति में पाश्चात्य सभ्यता के पोषक और समर्थक लोगों विशेषकर वामपंथी विचारधारा से प्रेरित एनजियो छाप बुद्धि जीवियों में खासी खलबली है। वह भारत में व्यवस्था परिवर्तन और भारतीय हिन्दुत्व विचारों से प्रेरित मजबूत सरकार के सत्तासीन होने से भी घबराए हुए हैं। इसी वजह से यह लोग बेवजह के विषय माहौल में उछालकर भारत की छवि खराब करने की कोशिश करने में जुटे हैं। इसका पूरे देश में पुरजोर विरोध किए जाने की जरुरत है।
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प्रवीण दुबे
विगत 22 वर्षाे से पत्रकारिता में सर्किय हैं। आपके राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय विषयों पर 500 से अधिक आलेखों का प्रकाशन हो चुका है। राष्ट्रवादी सोच और विचार से प्रेरित श्री प्रवीण दुबे की पत्रकारिता का शुभांरम दैनिक स्वदेश ग्वालियर से 1994 में हुआ। वर्तमान में आप स्वदेश ग्वालियर के कार्यकारी संपादक है, आपके द्वारा अमृत-अटल, श्रीकांत जोशी पर आधारित संग्रह - एक ध्येय निष्ठ जीवन, ग्वालियर की बलिदान गाथा, उत्तिष्ठ जाग्रत सहित एक दर्जन के लगभग पत्र- पत्रिकाओं का संपादन किया है।

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