स्वतंत्रता संग्राम और संघ

डॉ. मनोज चतुर्वेदी

स्वतंत्रता किसे नहीं अच्छी लगती चाहे वह पिजड़े में बंद पशु हो या पक्षी! सभी परतंत्रता रूपि बेड़ियों को तोडकर उन्मुक्त गगन में विहार करना चाहते हैं फिर मनुष्य तो सृष्टि का सबसे विवेकशील प्राणी है। वह सब पर अपना आधिपत्य स्थापित करके स्वविवेक से घुमाता है। वह इन प्राणियों को इस तरह से घुमाता है जैसे सूत्रधार कठपुतलियों को। स्वतंत्रता स्वछंदता नहीं है कि हम स्वतंत्र होकर स्वछंद हो जाये। भारतीय दृष्टि में स्वतंत्रता का संबंध पुरूषार्थ चतुष्टय से है और यह पुरूषार्थ चतुष्टय मनुष्य को चार आश्रमों के अनुसार जीवन जीने के लिए है ताकि मानव का संपूर्ण जीवन व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं संपूर्ण मानव जाति के लिए हो। वह सबमें परमात्मा का दर्शन करें। यह इसलिए कि परमात्मा ही संपूर्ण सृष्टि का नियामक है। हम सभी उसी की संतान हैं, तो फिर व्यक्ति-व्यक्ति में भेद क्यों ? इस भेद को दूर करने के लिए ”व्यक्ति-व्यक्ति में जगाए राष्ट्र चेतना। जन-जन का संकल्प हो यही साधना।”

महात्मा गांधी ने कहा था -आर्थिक स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता व्यर्थ है। मैं तुम्हें एक मंत्र दे रहा हूं। किसी भी कार्य को करते वक्त हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि समाज के निचले स्तर के व्यक्ति का कितना भला हुआ है। मूलत: भारतीय दृष्टि में तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दृष्टि में, जब तक राजनीति, अर्थनीति, समाज नीति तथा शैक्षणिक नीति के साथ संर्पूण समाजिक जीवन जब तक भारतीय जीवन-मूल्यों से ओत-प्रोत न हो जाये तब तक संघ का मानना है कि स्वतंत्रता के इन मूलभूत अधिकारों के लिए, संघ का स्वतंत्रता संग्राम जारी रहेगा। भारतीय संस्कृति तथा हिन्दुत्व के द्वारा ही समस्त विश्व के समस्याओं का एकमात्र समाधान हो सकता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठन का आधार सक्षम, स्थायी, आत्मनिर्भर तथा कालजयी राष्ट्र है, यदि राष्ट्र का संगठन दृढ हुआ तो सामर्थ्य निर्माण होगा और विभिन्न अंग पुष्ट होंगे। कश्मीर से कन्याकुमारी तक सारे अंग पुष्ट होंगे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का लक्ष्य कश्मीर से कन्याकुमारी तक प’त्येक व्यक्ति के अंतकरण में भारत के अनादि, अनंत और अति प्राचीन राष्ट्रजीवन को जागृत करना ही मूलगामी कार्य है। भारत का राष्ट्रजीवन हिन्दू जीवन है। इस सत्य को ध्यान में रखकर ही भारत में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नामक विश्वव्यापी संगठन खडा है। जिसका ध्येय है -”हिन्दुत्व ही राष्ट्रीयत्व है।” इसलिए संघ का कहना है कि संघ कुछ भी नहीं करेगा तथा स्वयंसेवक सबकुछ करेगा। कहने का तात्पर्य यह है कि संघ तो मात्र एक उत्प्रेरक का कार्य करेगा, जिस प्रकार एक उत्प्रेरक रासायनिक प्रतिक्रियाओं में एकाएक गति ला देता है ठीक उसी प्रकार संघ(प्रचारक) एक उत्प्रेरक का कार्य करता है।

भारत मैं राष्ट्रभाव का उदय कुछ सौ वर्षो का नहीं, सहस्त्राब्दियों का है। उसका आधार आपसी संघर्ष नहीं समन्वय है परस्परानुकूलता है। पश्चिम के समान भारत की राष्ट्रीयता एक बडी प्राईवेट कंपनी जैसी नहीं है। जहां प्रत्येक नागरिक शेयर होल्डर के नाते अपने स्वार्थों के कारण चिपका हुआ हो। स्वार्थ के कारण तो डाकू, चोर तथा बेईमान भी कुछ समय के लिए कुछ नियमों के आधार पर संगठित हो जाते हैं। स्वार्थ के आधार पर गठित इन संगठनों की प्रेरणा भी अलग-होती है ऐसा भारतवर्ष में नहीं हुआ। भारत में मानव कल्याण का एक व्यापक एवं उदार जीवन-दर्शन प्रकट हुआ। जीवन के इस समग्र चिंतन के कारण सामूहिक जीवन की एक अनुभूति अत:करणों में हुई। इसके आधार पर राष्ट्रीय जीवन विकसित हुआ। मानव जीवन के श्रेष्ठ गुणों के आराधना का भाव प्रकट हुआ। पश्चिम ने द्वैत के आधार पर संघर्ष का बिगूल बजाया और भारत ने अद्वैत के आधार पर एकात्मता की बांसुरी बजायी। यद्यपि दोनों वाद्य यंत्र हैं। पर दोनों के स्वर लहरियों में भारी अंतर है। इस भेद को समझ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने समाज संगठन के लिए भारत, आर्यावर्त, जंबूदीपे तथा सनातन भारत का सूत्रपात किया है। उसमें उसने भगवाध्वज को अपना गुरू माना है क्योंकि भगवा भारत का मन है, वह जीवन है, वह दर्शन है, वह ईश्वर है, वह त्याग है, वह तप है, वह पुरूषार्थ है, वह माता है, वह पिता है, वह सबकुछ है। वह प्राचीन भारत की त्यागमयी परंपरा का प्रतीक है। उसे पहनकर एक सन्यासी विश्व मानव बन जाता है तथा वह विश्व कल्याण के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है यही भगवा का अर्थ है विभिन्न प’कार की अवस्थाओं को मानव के विकास की सीढियां कहकर किया गया। उसने यह प्रतिपादित किया कि ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्तिस्म’ अर्थात् एक ही सत्य की बहुत प्रकार से विद्वान व्याख्‍या करते हैं इनमें मतभेद हो सकता है, पर मनभेद नहीं । उसने विभिन्न संप्रदायों का आदर किया। उसने एक ही सत्य के विभिन्न रूपों, उनके नामों और सत्य तक पहुंचने की विभिन्न पद्धतियों को स्वस्थ विकास के लिए अपरिहार्य नहीं, नितांत आवश्यक माना। इसलिए केवल सहिष्णुता ही नहीं, एकात्मता की आराधना करने का उपदेश दिया। भारत का यह राष्ट्रवाद प्राणी मात्र के प्रति कल्याण की भावना लेकर प्रकट हुआ।

कुछ लोग पश्चिम के राष्ट्रवाद, लोकतंत्र, स्वतंत्रता और समानता की तुलना भारत से करते हैं। यह नितांत मूर्खतापूर्ण विचार है।

नागपुर के एक गरीब ब्राह्मण बलीराम पंत हेडगेवार के घर पैदा हुए डॉ केशव बलीराम हेडगेवार एक जन्मजात देशभक्त थे। घटना 22 जून, 1897 की है। जब ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के 60 साल पूरे होने पर नील सिटी स्कूल में मिठाईयां बांटी जा रही थी, तो 8 वर्षीय राष्ट्रभक्त केशव ने अपने हिस्से की मिठाई फेंकते हुए कहा-लेकिन वह हमारी महारानी तो नहीं है। एक दूसरी घटना 1901 की है जब इंग्लैण्ड के राजा के राज्यारोहण के अवसर पर राज्यनिष्‍ठ लोगों द्वारा आतिशबाजी का आयोजन किया गया था, तो केशव ने अपने बालमित्रों को समझाया-विदेशी राजा का राज्यारोहण उत्सव मनाना हमारे लिए शर्म की बात है।

महाराष्ट्र में छत्रपति शिवाजी की गाथा घर-घर में सुनायी जाती थी। राष्ट्रभक्त केशव शिवाजी महाराज की वीरता, संकल्प-शक्ति एवं राष्ट्रीय भाव से प्रभावित हुए तथा नागपुर के सीताबडी किले पर फहरने वाले यूनियन जैक को उतार फेंकने के लिए बझे गुरूजी के घर से मित्रों सहित दो किलो मीटर लंबी सुरंग खोद डाली। बालक केशव के चाचा मोरेश्वर उर्फ आबाजी के शब्दों में — जिस आयु में अन्यान्य बालक खेलने-कुंदने में मस्त रहते हैं, उसी आयु में अंग्रेजों को निकाल बाहर करने का यह उद्देश्य पूर्ण होने से पूर्व ही सेनापति अपने छोटे से गुरिल्‍ले दल के साथ घर वालों द्वारा बंदी बना लिया गया।

नागपुर में ‘मराठा’ एवं ‘केसरी’ के राष्ट्रवादी विचारों से प्रभावित केशव ज्योंही बी.एस.मुंजे के संपर्क में आए वे बी.एस.मुंजे एवं लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के अनुयायी बन गए।

बंगाल विभाजन के बाद सरकारी दमन की तीव’ता पूरे देश में बढती जा रही थी। बंगाल में राजनीतिक आंदोलन में विद्यार्थियों की अहम भूमिका को देखते हुए सरकार ने ‘वंदे मात्रम’ तथा ‘तिलक महराज की जय’ को ”रिस्ले सर्कुलर” के तहत दंडनीय अपराध घोषित कर दिया। इस सर्कुलर का मध्यप्रांत में विरोध नागपुर से शुरू हुआ। सन 1907 के मध्य में विद्यालय निरीक्षक प्रतिवर्ष की भांति नील सिटी स्कूल आए थे। जैसे ही निरीक्षक कक्षा में गए, सभी छात्रों ने उठकर एक साथ वंदे मातरम् की जोरदार घोषणा से उनका स्वागत किया। चूंकी इस योजना के सूत्रधार बालक केशव ही थे फलत: केशव की नील सिटी स्कूल से ”वंदे मातरम्” के कारण निष्कासित कर दिया गया। भरी सभा में साम्राज्यवाद विरोधी और राष्ट्रभक्त केशव ने कहा – अगर मातृभूमि की आराधना अपराध है, तो मैं यह अपराध एक नहीं, अनगिनत बार करूंगा और इसके लिए मिलने वाली सजा को मैं सहर्ष स्वीकार करूंगा।

डॉ हेडगेवार के मन में भारत के स्वतंत्रता की ज्वाला धधक रही थी। बंगाल क्रांतिकारियों का गढ था। सन् 1909-10 में हेडगेवार ज्योंही डॉक्टरी की शिक्षा के लिए कलकत्ता गए वहां पहुंचते ही अनुशीलन समिति से जुड़ गए। त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती, अरविन्द घोष, विपिनचंद’ पाल, नलिनी किशोर गुह, प्रतुल गांगुली तथा योगेश चंद’ चटर्जी इत्यादि अनुशीलन समिति के सक्रिय सदस्यों के साथ जुड़ गए। श्री त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती ने अपनी पुस्तक ‘जेल में 30 वर्ष’ में लिखा है कि- जब हेडगेवार नेशनल मेडिकल के छात्र थे, तब बंगला में लिखी ‘बंग्लार विप्‍लववाद’के लेखक नलिनी किशोर गुह भी वहां पढ़ रहे थे। गुह ने ही हेडगेवार, नारायण राव सावरकर एवं अन्य छात्रों को प्रवेश दिलाया था।

श्री गुह ने डॉ हेडगेवार के अनुशीलन समिति से जुडाव की इन शब्दों में व्यक्त किया है- डॉ हेडगेवार सच्चे अर्थों में आदर्श क्रांतिकारी थे। समिति के सदस्यों के बीच वह रचनात्मक सोच एवं काम के लिए जाने जाते थे। क्रांतिकारियों के बीच हेडगेवार का छद्म नाम ‘कोकेन’ था। वे शस्त्रों के लिए ‘एनाटोमी’ शब्द का प’योग किया करते थे। क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ डॉ हेडगेवार ने सितंबर, 1914 में 70.08 प’तिशत अंकों के साथ मेडिकल की डिग्री प्राप्त की। जनवरी, 1914 में भारत सरकार द्वारा प’काशित ‘भारत के राजनीति अपराधियों’ नामक पुस्तिका में मध्य प्रांत से डॉ केशव बलीराम हेडगेवार का भी नाम शामिल था।

1915 में हेडगेवार ने आजीवन ब्रह्मचारी रहकर देशसेवा का व्रत लिया तथा अपने चाचा को एक लंबा पत्र लिखा-विवाह न करने का निर्णय मैंने सोच-समझकर लिया है। घर-गृहस्थी बसाकर मैं पारिवारिक दायरे में सिमटना तथा जीविकोपार्जन की चिंता में उलझना नहीं चाहता। मेरे मन में जो भावना है, वह है राष्ट्र के प’ति तन-मन-धन से सेवा करने की। मैं राष्ट्र को विदेशी दासता से मुक्त देखना चाहता हूं। इसीलिए मुझे हिंसा तथा अहिंसा दोनों ही मार्ग प्रिय हैं। हिन्दुस्थान की दासता नई नहीं है। यहां दासता की शृंखला रही है। ऐसा क्यों? यह प्रश्न मेरे मन को उद्वेलित करता है। यदि आज हम परतंत्र है, तो इसका कारण हमारी कायरता है। हमें एक राष्ट्र, शुद्ध राष्ट्रीयता और भ्रातृत्व का बोध नहीं है। तभी तो मुट्ठी भर अंग्रेजों ने गुलामी की जंजीर में बांध रखा है। न सिर्फ क्रांतिकारियों पर जुल्म किए जा रहे हैं, बल्कि महात्मा गांधी के अनुयायियों को भी यातनाएं दी जा रही है। पंडित अर्जुन लाल सेठी अहिंसावादी है और कारावास में उन्हें घोर यातनओं का सामना करना पड़ा। मेरे मन में प’श्न उठता है-क्या हम अंग्रेजों को परास्त नहीं कर सकते? और इसका समाधान मुझे राष्ट्र के लिए सर्वस्व न्यौछावर करने में दिखायी पड़ रहा है। मेरे मन, तन, बुद्धि, विवेक और आत्मा सब में एक ही बात का बोध है कि यदि राष्ट्र को संगठित करने, राष्ट्रीयता का प’सार करने, लोगों में से हीनता का भाव दूर करने का कार्य किया जाए, तो जीवन का इससे बड़ा सकारात्मक सदुपयोग और कुछ भी नहीं हो सकता है।

यह सत्य है कि विवाहित रहकर नारायण राव, विनायकराव सावरकर, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक तथा महात्मा गांधी आदि देशभक्तों ने राष्ट्र के लिए अथक कार्य किया है। परंतु मेरे मन की बनावट भिन्न है। मैं विवाह के लिए एकदम प्रेरित नहीं हो पा रहा हूं। मुझे हर क्षण सामाजिक एवं राष्ट्रीय दायित्वों का बोध रहता है और मैं अपने एक शरीर, एक आत्मा और एक मन को बांट नहीं सकता हूं। मैं विवाह करके किसी कन्या को मेरी बांट जोहने के लिए छोड़ना नहीं चाहता हूं, न ही घर में अंधेरा करके सामाजिक दायित्वों में मग्न रहने की मेरी इच्छा है आज मेरे मन में किसी प’कार का अंतर्द्वंद नहीं है। मैं अपने निर्णय पर अटल हूं। यह निर्णय मेरी प्रकृति के अनुकूल है।

सन् 1921 में मध्यप्रांत की राजधानी में ब्रिटिश सरकार ने उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया था। मुकदमें की सुनवाई के दौरान उन्होंने उपनिवेशवाद को अमानवीय, अनैतिक, अवैधानिक एवं क्रूर शासन की संज्ञा देते हुए ब्रिटिश न्यायिक व्यवस्था, पुलिस प्रशासन एवं राज्य सत्ता के खिलाफ सभी प्रकार के विरोधों का समर्थन किया। तब उत्तेजित न्यायाधीश ने उनकी दलीलों को पहले के भाषणों से भी अधिक ‘राजद्रोही’ घोषित किया।

जब 26 जनवरी,1930 को कांग्रेस कार्यसमिति ने संपूर्ण भारत में स्वाधीनता दिवस मनाने का निश्चय किया तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक अध्यादेश जारी कियाकि सभी शाखाओं को सायंकाल 6 बजे अपने-अपने संघ स्थानों पर सभी स्वयंसेवकों की सभा आयोजित करके राष्ट्रीय ध्वज अर्थात् भगवाध्वज का वंदन किया जाये। भाषण के रूप में सभी को स्वातंत्र्य का सही अर्थ और सही ध्येय को अपने सामने किस प्रकार से रखना चाहिए, यह व्याख्‍या सहित स्पष्ट करें, तथा कांग्रेस ने स्वातंत्र्य के ध्येय को स्वीकार किया है इसलिए कांग्रेस का अभिनंदन करें। इस कार्यक्रम की रिपोर्ट हमारे पास भेजें।

डॉ हेडगेवार ने देशभक्ति की दस सूत्री कसौटी बताई है—-

(1) देशभक्ति का अर्थ है- हम जिस भूमि एवं समाज में जन्में हैं, उस भूमि व समाज के लिए आत्मीयता एवं प्रेम;

(2) जिस समाज में हमारा जन्म हुआ है, उसकी परंपरा एवं संस्कृति के प’ति लगाव एवं आदर;

(3) समाज के जीवन-मूल्यों के प्रतिनिष्ठा;

(4) समाज, राष्ट्र के लिए उत्कर्ष, विकास के लिए सर्वस्व समर्पण करने के निमित्त उत्सफूर्त करने की प्रेरणा शक्ति;

(5) व्यक्ति निरपेक्ष रहकर समष्टिनिष्ठ जीवन का पवित्र प’वाह;

(6) भौतिकताओं से दूर रहकर मातृभूमि और उसकी संतानों की नि:स्वार्थ सेवा;

(7) व्यक्तिगत आकांक्षाओं से अधिक राष्ट्र की आवश्यकताओं एवं अपेक्षाओं को महत्व;

(8) मातृभूमि के चरणों में अनन्य नि:स्वार्थ, कर्तव्य कठोर जीवन कुसुमों की मादक सुंगध भरना;

(9) समाज एवं राष्ट्र को ही सर्वस्व देवी-देवता मानकर उसी की आराधना करना और

(10) संपूर्ण समाज में एकात्म भाव का आविष्कार करना;

यूनियन जैक को उतारने हेतु लंबी सुरंग, वंदेमातरम्, अनुशीलन समिति, गांधीवादी पथ एवं ‘स्वातंत्र्य’ का संपादन करते हुए डॉ. हेडगेवार ने यह निष्कर्ष निकाला कि देशभक्ति से ओत-प्रोत एक ऐसा संगठन होना चाहिए जो एक राष्ट्र, एक जन एवं एक संस्कृति के लिए पूर्ण से प्रतिबद्ध हो तथा उसके लिए 10 सूत्र जरूरी हो और विजयादशमी के दिन मोहिते के बाड़े में 10-12 बाल किशोर स्वयंसेवकों के साथ प्रथम शाखा की शुरूआत हुई।

संघ के जन्मदाता डॉ हेडगेवार एक निष्काम कर्मयोगी थे। उन्होंने व्यक्तिनिष्ठा के स्थान पर तत्वनिष्ठा को सर्वोपरि माना। वे इतने प’सिध्द पराङ्गमुख थे कि उन्होंने मध्यप्रांत के लेखक दामोदर पंत भट्ट को लिखा-आपके मन में मेरे एवं संघ के लिए जो प्रेम व आदर है, उसके लिए मैं आपका हृदय से आभारी हूं। आपकी इच्छा मेरा जीवन-चरित्र प्रकाशित करने की हैं। परंतु मुझे नहीं लगता कि मैं इतना महान हूं या मेरे जीवन में ऐसी महत्वपूर्ण घटनाएं हैं जिनको प्रकाशित किया जाए। उसी प्रकार मेरे अथवा संघ के कार्यक्रमों की तस्वीरें भी उपलब्ध नहीं हैं। संक्षेप में मैं यही कहूंगा कि जीवन-चरित्रों की शृंखला में मेरा चरित्र तनिक भी उपयुक्त नहीं बैठता। आपके द्वारा ऐसा न करने से मैं उपकृत होऊंगा।

संघ के संस्थापक परम पूज्य डॉ.केशव बलीराम हेडगेवार की मृत्यु के बाद बालगंगाधर तिलक द्वारा प्रकाशित ‘केसरी’ ने लिखा- चिकित्सा व्यवसाय एवं विवाह न करने का निर्णय राष्ट्रसेवा के भाव से प्रेरित था और अपने इस व्रत को उन्होंने जीवन पर्यंत निभाया।

संघ संस्थापक डॉ केशव बलीराम हेडगेवार के निधन के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर ने सागरगाछी आश्रम में स्वामी अखंडानंद से संन्यास की दीक्षा लेकर द्वितीय सरसंघचालक को पद ग्रहण किया। उनमें ज्ञान की असीम पिपासा थी। सन 1942 के भाषण में श्री गुरूजी ने कहा था- मैंने निश्चित ही हजारों पुस्तकें पढी है। एक बार बुखार से पीडित होने पर श्री गुरूजी ने मित्र से कहा- बुखार अपना कार्य कर रहा है,मुझे अपना कार्य करने दो।

साप्ताहिक ‘पांचजन्य’ द्वारा ‘भारतीयकरण’ पर विशेषांक निकालने के अवसर पत्र के संपादक श्री देवेन्द्र स्वरूप को 8-3-1970 के पत्र में श्री गुरुजी ने लिखा-विशेषत: जब जातिवाद, पंथवाद, भाषावाद, प्रादेशिक अभिमान का अतिरेक, दलगत स्वार्थ, व्यक्तिगत मान, पद-प्रतिष्ठा, स्वार्थ, इत्यादि विशुद्ध भारतीय एकात्म राष्ट्रभाव को मारक अवगुणों का सर्वत्र प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखायी देता है, भारतीयकरण हेतु योजनाबद्ध, व्यापक प्रयत्न करना अतीव आवश्यक है। इसका विरोध करना राष्ट्र विनाशकारी क्षुद’ प’वृतियों का पोषण करना ही है जो कि आक्रांताओं से घिरे हुए, विघटनकारी तत्वों से छिन्न-विछिन्न हो रहे, अपने संकटग्रस्त देश को दासता की भीषण गर्त में ढकेल देगा।

श्री गुरूजी ने राष्ट्रीय जन के संबंध में कहा है-साधारणत: अपने देश तथा उसके परंपराओं के प्रति, उसके ऐतिहासिक महापुरूषों के प’ति, उसकी सुरक्षा तथा समृद्धि के प्रति , जिनकी अब्यभिचारी एवं एकांतिक निष्ठा हो वे जन राष्ट्रीय कहे जाएंगे।

प्राय: भारत में बुद्धिजीवियों का ऐसा वर्ग है जो अंग्रेजों के द्वारा प्रतिपादित राष्ट्र की अवधारणा को स्वीकार करता है। उनका कहना है कि भारत तो एक राष्ट्र था ही नहीं। मुगलों और अंग्रेजों ने भारत को एक राष्ट्र का स्वरूप दिया। श्री गुरूजी ने राष्ट्र के संबंध में कहा वो द्रष्टव्‍य है – किसी राष्ट्र के लिए प्रथम अपरिहार्य वस्तु एक भूखंड है जो यथा संभव किन्ही प्राकृतिक सीमाओं से आबद्ध और समृध्दि के लिए आधार रूप में काम दे। द्वितीय आवश्यकता है उस विशिष्ट भू-प्रदेश में रहनेवाला समाज जो उसके प’ति मातृभूमि के रूप में प्रेम तथा पूज्य भाव विकसित करता है तथा अपने पोषण, सुरक्षा तथा समृद्धि के रूप में उसे ग्रहण करता है। संक्षेप में, वह समाज उस भूमि के पुत्र रूप में स्वयं को अनुभव करें।

भारत की पहचान किससे है। यहां काशी, मथुरा, वृंदावन, हरिद्वार, द्वारिकापुरी, दंडकारण्य, चित्रकूट, सोमनाथ मंदिर, सीतामढ़ी, कुशीनगर, सरहिंद साहिब, अमृतसर, कुरूक्षेत्र, अयोध्या से हैं। राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, सीता, द्रोपदी, शिव-पार्वती, परशुराम यहां के आराध्य हैं। जिनसे भारत की पहचान है। रामायण, महाभारत, वेद , उपनिषद, गीता, श्रुतियां, स्मृतियां तथा अन्यान्य ग्रंथ हमारे सांस्कृतिक विचारधारा के मुख्‍य स्रोत हैं जिनमें तथा जिनसे भारत की विश्व में पहचान है। श्रीगुरूजी ने कहा – कुछ मुसलमानों का कहना है कि उनके राष्ट्रपुरूष रूस्तम हैं। किन्तु रूस्तम तो इस्लाम धर्म के उदय होने से काफी पहले हो गए थे। वे इनके राष्ट्रपुरूष कैसे हो सकते हैं? यदि व्याकरण के रचयिता पाणिनी की पांच हजारवी जयंती मनाते हुए पाकिस्तान के लोग बडे गर्व के साथ उनकों अपना पूर्वज मानते हैं, तो भारत के हिन्दू -मुसलमान मैं उन्हें हिन्दू-मुसलमान ही मानता हूं। और कहता आ रहा हूं। पाण्0श्निानी, वाल्मीकि, राम-कृष्ण, आदि को अवतार न माने तो कोई फर्क नहीं पडता, किन्तु उन्हें राष्ट्रपुरूष तो मानना ही चाहिए।

स्वतंत्रता मात्र सत्ता परिवर्तन होने का नाम नहीं है। वह स्वतंत्रता किस काम का जब सत्ता पर एक व्यक्ति, एक जाति तथा एक परिवार का आधित्य हो। जब सत्ताधीश अपने फासीवादी नीतियों से लोकतंत्र की हत्या करें तथा विरोधी दलों के आवाज को कुचलने का कुत्सित प्रयास करें तो इसके लिए स्वतंत्रता के दूसरे संगम की आवश्यकता पड़ती है। और इसके नायक बने जयप्रकाश नारायण, जिन्हें जनता ”लोकनायक” के नाम से जानती है।

1971 के चुनाव में श्रीमती इंदिरा गांधी को प’चंड बहुमत मिला तथा उसी के कारण उनकी तानाशाही प्रवृत्तियां प्रकट होने लगी। शासन एवं संगठन स्तर पर सर्वोच्च बनकर जिसे जहां चाहे बैठाने लगी। चारों ओर भ्रष्टाचार, जमाखोरी, अपराध, लूटपाट, रिश्वतखोरी, महंगाई और सिफारिश का बोलबाला हो गया था। जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी। 1973 में चिमन भाई पटेल के विरूद्ध उठी आंधी बिहार में पहुंच गयी। पटना में अब्दुल गफ्फूर की अन्यायी सरकार ने 18 मार्च, 1974 को शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे छात्रों पर गोली चलाई तथा गया में घरों में घुसकर भून डला। विद्यार्थियों के नेतृत्व के लिए ”लोकनायक” तैयार हो गए। पर उन्होंने शर्त रखी- आपके आंदोलन में संपूर्ण शांति तथा अनुशासन रहना चाहिए।

इस दूसरे स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में संघ, संघ के स्‍वयंसेवक तथा जनसंघ ने पूरा समर्थन किया। इसके अग्रिम पंक्ति में लोक संघर्ष समिति के राष्ट्रीय सचिव नानाजी देशमुख ने अहम भूमिका निभायी तथा बिहार जनसंघ के सभी विधायकों ने त्याग-पत्र दिया तथा जिन्होंने आनाकानी की उनको दल से निकाल दिया गया। जब अक्टूबर,1974 के प्रथम सप्ताह में जे.पी ने घोषणा की कि अन्यायी तथा अत्याचारी सरकार के त्यागपत्र के समर्थन में 4 नवम्बर, 1974 को सचिवालय पर धरना दिया जाएगा और यही कारण था कि श्री मधु लिमये व उनके साथी संघ और जनसंघ से चिढ़े हुए थे, क्योंकि इन संगठनों के सदस्यों ने उनके सदस्यों की अपेक्षा अधिक बलिदान किया था। जब निहत्थे युवकों को लंबे-चौडे नौजवान पीट रहे थे। इसी बीच नानाजी को लगा कि नौजवान जेपी पर लाठी फेंक देगा पर मै जेपी के उपर कूद पड़ा और लाठी का प्रहार अपने बाएं हाथ ले लिया। मैं संभलकर उठ खड़ा हुआ। जेपी तो बच गए पर मेरी बाई बाह बेकार हो गयी। मैंने पास खड़े अफसर को डांटते हुए कहा-तुम जेपी को मार डालना चाहते हो। वे मूर्च्छित हो गए है। अधिकारी ने कहा-आप कौन हैं? मैंने कहा-मै नानाजी देशमुख हूं। वह बहुत चकित हुआ। क्योंकि मुझे बिहार से निष्कासित कर दिया गया था।

जेपी ने जनसंघ के दिल्‍ली अधिवेशन में कहा-जनसंघ के विरूद्ध जो आरोप लगाए गए हैं उनका कोई आधार नहीं। यदि ये लोग फासिस्ट हैं तो जेपी भी फासिस्ट है। जब अटल बिहारी वाजपेयी ने बुद्धिजीवियों के सम्मेलन कहा’ कि देश में लोकतंत्र की स्थापना के लिए जनसंघ सफलता हेतु अलग होने के लिए तैयार हो सकता है तो जेपी ने कहा-जो लोग इस आंदोलन में है उनका इससे संबंध विच्छेद होने का कोई प्रश्न ही नहीं है। बिहार में हजारों मुसलमान संघ और जनसंघ के सदस्यों से कंधे से कंधा मिलाकर इस आंदोलन में काम कर रहे हैं। उसी सहयोग का परिणाम है कि 3 से 5 अक्टूबर तक का बिहार बंद सफल हुआ और 4 नवम्बर को पटना में होने वाला प्रदर्शन भी सफल रहा।

12 जून, 1975 को गुजरात में जनता मोर्चे की विजय हुई तथा भ्रष्ट तरीके से श्रीमती गांधी द्वारा विजय को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय से श्रीमती गांधी को बहाना मिल गया।

25 जून, 1975 को अर्धरात्रि में श्रीमती गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी। हमें दृढ प’तिज्ञ लगन वाले और साहसी युवकों की आवश्यकता थी जो समिति का काम चला सकें। इस काम के लिए आगे आएं रा.स्व.संघ के स्वयंसेवक। इस काम की देखभाल करने वाले थे सर्वश्री रविन्द्र वर्मा, सुरेन्द्र मोहन, राधाकृष्ण, मदनलाल खुराना, सुंदर सिंह भंडारी, दत्‍तोपंत ठेंगडी और सुब्रह्मण्यम स्वामी उपरोक्त व्यक्तियों में आधे से अधिक संघ व जनसंघ के कार्यकर्ता थे। आपातकाल में सबसे अग्रिम पंक्ति में संघ तथा जनसंघ के कार्यकर्ता थे। जिनके गुप्तांगों में मिर्च तथा डंडा डाला गया, जबरन नसबंदी किया गया, नाखुन उखाडे गए, नंगा करके पीटा गया, उनके गुप्तांगों में कपड़े के अंदर कीट-पतंगों को रखा गया। उन्हें कई-कई दिनों तक भूखे-प्यासे रखकर मारा-पीटा और दौड़ाया गया।

लंदन से प’काशित ‘इकोनामिस्ट’ ने लिखा – ”इंदिरा गांधी के विरूद्ध भूमिगत आंदोलन एक मात्र आंदोलन है जो वामपंथी नहीं, परंतु क्रांति में विश्वास रखता है लेकिन न तो वह खून-खराबा चाहता है और न वर्ग संघर्ष । इसे तो दक्षिणपंथी कहा जा सकता है। क्योंकि इसमें प्रधानत: हिन्दु सम्प्रदायवादी दल जनसंघ है या सांस्कृतिक दल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। परंतु इसका एक ही मंच है और वह यह है कि भारत में फिर से लोकतंत्र की स्थापना हो।”

इस आंदोलन के सेनानी तो हजारों अनुशासनबध्द कार्यकर्ता है जो गांवों तक चार-चार की टोलियों में संगठित है। उनमें से अधिकतर संघ के स्वयंसेवक है जो अन्य विरोधी दल इस आंदोलन में आये थे, उन्होंने, विशेषतया रेलवे मजदूरों के समाजवादी नेता जार्ज फर्नान्डिस की गिरफ्तारी के बाद, इस आंदोलन में सक्रिय भाग लेने का काम संघ और जनसंघ के कंधों पर डाल दिया है। संघ के जो हजारों कार्यकर्ता देश भर में घूम रहे हैं किसी भी समय इस प’कार के लोगों की सं’या कई हजार से कम नहीं होती। उनका मुख्‍य काम श्रीमती इंदिरा गांधी के विरूद्ध प्रचार करना है। इस बार लोगों का मन तैयार हो गया और उनमें राजनीतिक जागृति आ गयी तो क्रांति की अग्नि दावानल के समान भड़क उठेगी, नेताओं का तर्क तो यही है।

भारत की द्वितीय स्वतंत्रता संग्राम में संघ की भूमिका की चर्चा ‘स्वराज’ ने इस प्रकार की है – कहने को भूमिगत आंदोलन में चार दल-जनसंघ, समाजवादी, भालोद और कांग्रेस से आये हुए समूह हैं। पंरतु वास्तव में संघर्ष करने वाले मुख्‍यत: जनसंघ और उसके सहयोगी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सदस्य हैं। संघ के सदस्यों की सं’या एक करोड़ है और लगभग 80 हजार सदस्य, जिनमें 6 हजार प्रचारक जेलों में हैं।

भारत एक धर्मप्राण देश है। समय-समय पर उनके अवतारों ने यहां आकर इस देश और इसके निवासियों को ही नहीं तो स्वयं को भी धन्य किया है। ऐसे ही एक महामानव थे – मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम। महर्षि बाल्मीकि ने सर्वप्रथम श्रीराम कथा का उपहार हमें दिया। इसके बाद दुनिया के प्राय: सभी प’मुख भाषाओं में श्रीराम की महिमा लिखी गयी है। हजारों वर्षो से करोड़ों मनुष्य श्रद्धा एवं आस्था के साथ श्री राम की कथा सुनते और उनकी पूजा करते आ रहे हैं। भारतीय संविधान के तीसरे अध्याय में, जहां मौलिक अधिकारों का उल्‍लेख है, सबसे उपर श्रीराम, सीता एवं लक्ष्मण के चित्र बने हैं इन सबसे स्पष्ट है कि श्रीराम भारत की आत्मा हैं।

1526 ई. में बाबर भारत में आकर 1528 ई. में अयोध्या आया। उसके आदेश पर उसके सेनापति मीरबाकी ने श्रीराम मंदिर पर आक्रमण किया। 15 दिनों के घमासान युद्ध के बाद मीरबाकी ने तोप के गोलों से मंदिर को क्षत-विक्षत कर दिया। इस युध्द में 1.74 लाख हिन्दू बलिदान हुए। फिर उसने दरवेश मुसा अरिकान के निर्देश पर उसी मलबे से एक मस्जिद जैसा ढांचा बनवा दिया। चूंकि यह काम हड़बडी से हिन्दुओं के लगातार आक्रमणों के बीच हो रहा था, इसलिए उसमें मस्जिद की अनिवार्य आवश्यकता मीनार तथा नमाज से पूर्व हाथ-पांव धोने(वजू) के लिए जल का स्थान नहीं बन सका। 1528 से 1949 ई तक 76 संघर्षों का विवरण इतिहास में मिलता है। अंग’ेजी शासन में अंतिम बडा संघर्ष 1934 में बैरागियों द्वारा किया गया, उसके बाद वहां फिर कभी नमाज नहीं पढ़ी गयी। 1983 में मुजफ्फरनगर में हुए हिन्दू सम्मेलन में दो वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं ने मा0 गुलजारी लाल नंदा तथा उ.प्र. के पूर्व मंत्री दाउदयाल खन्ना ने केन्द्र सरकार से कानून बनाकर श्रीराम जन्मभूमि, श्रीकृष्ण जन्मभूमि तथा काशी विश्वनाथ मंदिर हिन्दुओं को सौंपने का निवेदन किया।

जून, 1990 में हरिद्वार के हिन्दू सम्मेलन में पूज्य संतो व धर्माचायों ने मंदिर निर्माण हेतु कर-सेवा की घोषणा कर दी। 30 अक्टूबर को कारसेवकों ने गुम्बदों पर भगवाध्वज फहरा दिया जिसमें कई कर-सेवक बलिदान हुए। उत्तरप्रदेश के मुख्‍यमंत्री मुलायम सिंह यादव को अपनी अन्यायी व अत्याचारी नीतियों के कारण हटना पड़ा। अक्टूबर, 1990 में दिल्‍ली के धर्म संसद में पूज्य धर्माचार्यों ने गीता जयंती(6 दिसम्बर, 1992) से कर-सेवा का निर्णय लिया। दीपावली पर अयोध्या से आयी श्रीराम ज्योति से घर-घर दीप जलाए गए। 12 दिसम्बर, 1992 को 400 वर्षों का आक्रांताओं द्वारा निर्मित बाबरी ढांचा धाराशायी हो गया। ये समस्त कार्य संघ के स्वयंसेवकों के नेतृत्व में हिन्दुओं द्वारा संपादित किए गए। परिणामत: भारतीय जनमानस ने भाजपा को शून्य से शिखर तक पहुंचाया।

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  1. इस आलेख को प्रवक्ता.कॉम पर आये हुए चार वर्षों से अधिक हो गया है,पर यह शायद यह उन रचनाओं में से है,जिन पर मेरी नजर नहीं पडी.आलेख के विद्वान लेखक बहुत चतुराई से उस प्रश्न को टाल गए जो आज भी पूछा जा रहा है कि स्वतंत्रता की लड़ाई में संघ कहाँ था?जेपी ने भले ही इंदिरागांधी के विरुद्ध अभियान को स्वतंत्रता की दूसरी लड़ाई माना हो,पर वह वैसा था नहीं.यह प्रश्न आज भी इसलिए सामने आया है,क्योंकि संघ आज अपने विरोधियों को राष्ट्र द्रोही तक कहने लगा है. संघ आज भी न तिरंगा का वर्चस्व मानता है और न राष्ट्र गान को यथोचित सम्मान देताहै,तो फिर यह प्रश्न स्वाभाविक हो जाता है कि आर.एस एस एक संगठन के रूप में स्वतंत्रता आंदोलन में क्यों नहीं शामिल था?क्या तथाकथित चरित्र निर्माण और स्वतंत्रता की लड़ाई में भागीदारी एक साथ नहीं चल सकती थी?

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