…एक थी कांग्रेस!

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जगमोहन फुटेला

बिहार और उत्तर प्रदेश कांग्रेस के थे भी नही. मध्य प्रदेश हाथ से गए भी ज़माना हुआ. पंजाब का राज महाराजा साहब की रजवाड़ाशाही की भेंट चढ़ गया. ऊपर कश्मीर में वो फारूख और उमर अब्दुल्ला की रखैल से बेहतर नहीं. उत्तराखंड आ के भी जाता रहा. गुजरात मोदी के रहने तक उन्हीं का समझो. राजस्थान से आ रही हर रिपोर्ट वहां कांग्रेस को चुनाव से पहले हारा बता रही है. हरियाणा की नब्बे सदस्यों वाली विधानसभा में आज भी उसके पास अपनी तो 41 ही हैं उस की. आज चुनाव हो तो इक्कीस भी शायद वो ला नहीं पाएगी और उत्तराखंड है तो वहां भी यूपी की तरह यहाँ भी वो लम्बे बनवास पे गई समझो.

कांग्रेस है कहाँ? मध्य और दक्षिण भारत में भी कहाँ है?.. आन्ध्र में?..उड़ीसा में?..तमिलनाडु में?..या उधर बंगाल में भी कभी आ पाएगी वो? आंध्र में वो जब तक है सो है. चुनाव आये तो चंद्रबाबू नायडू से पहले जगन रेड्डी हरा देंगे. उड़ीसा में हथेली से नारियल टूट सकता है शायद मगर नवीन पटनायक का तिलिस्म पंजा नहीं तोड़ पाएगा. तमिलनाडु को खुद कांग्रेस ने जयललिता से छूटे तो करूणानिधि का मान लिया है. बंगाल भी ममता से छूटने के बाद वापिस कामरेडों के ही पास जाने की संभावनाएं ज़्यादा हैं. बिहार कभी नितीश से गया तो लालू-पासवान की दावेदारी कांग्रेस के मुकाबले वहां भी मज़बूत होगी. क्षेत्रीय क्षत्रप हर जगह मज़बूत हो रहे हैं. राष्ट्रीय कहे जाने दल हर राज्य में कमज़ोर. उनमे भी कांग्रेस और भी ज़्यादा.

हैरानी और कांग्रेस के लिए ये दुर्भाग्य की स्थिति तब है कि जब वो जनता साथ होने के बावजूद प्रदेशों में सत्ता खोती जा रही है. पंजाब को ही लें. यहाँ उसने 117 में से 68 सीटें जीतने वाले अकाली-भाजपा गठबंधन से ज़्यादा मत प्रतिशत हासिल किया. मगर फिर भी सीटें उसकी आईं सिर्फ 46. क्या कहेंगे इसे?… नालायकी या नासमझी? रणनीति की चूक तो निश्चित रूप से. यहाँ भी धडों में हमेशा से बंटी कांग्रेस चुनाव तो उसी दिन हार गई थी जिस दिन राहुल गाँधी ने ऐलान किया कि मुख्यमंत्री तो कैप्टन अमरेंदर सिंह होंगे. गलत उम्मीदवारों को टिकट दे कर तो ब्लंडर खैर उसने किया ही था. उसके बागी उम्मीदवारों को कई जगह उसके अधिकृत उम्मीदवारों से अधिक वोट मिले. दस सीटें उसने एक हज़ार से भी कम वोटों के अंतर से हारीं. कम से कम बीस जगहों पर उसके अधिकृत और बागी उम्मीदवारों के वोट मिला कर जीतने वालों से अधिक थे. शुरू में वो ये भी जान नहीं पाई कि अकाली दल से अलग हुए प्रकाश सिंह बादल के भतीजे मनप्रीत बादल दरअसल अकाली विरोधी वोट ही ले के जाएंगे. करीब सात फीसदी वोटों का घाटा भी कांग्रेस को ही हुआ. उस हाईकमान प्रभारी गुलचैन चरक के चलते जो चुनावी राजनीति में अनाड़ी था और जो खुद जम्मू कश्मीर में अपना खुद का विधानसभा चुनाव जीत नहीं सका था.

उत्तर प्रदेश में किसी को समर्थन देने की बजाय राष्ट्रपति शासन की बात कह कर समाजवादी पार्टी की सीटें भी खुद कांग्रेस ने बढ़वाईं. अब ममता ने रेल बजट पे लोचा किया है तो आज उसी मुलायम के तलुवे चाटने को मजबूर है वो जिसे किसी भी शर्त पर समर्थन न देने का राग राहुल अलापते रहे हैं. समझा और माना तो इसे यही जाएगा कि आज अपनी कमीज़ फटी है तो पैबंद उन्हीं से लगवाने चली है कांग्रेस जिन की बोलती बंद कर देने की घुरकी वो देती रही है. और फिर अखिलेश के शपथ ग्रहण समारोह में अपनी रीता बहुगुणा के अलावा मोतीलाल वोहरा से ले के पवन बंसल तक जैसे सीनियर नेताओं को उसने शायद इसलिए भी भेजा कि वहां तीसरा मोर्चा बना सकने वाले दलों के दिग्गज कहीं बाज़ी न मार लें.

यूपी, पंजाब तो चलो हारे आपने. उत्तराखंड तो एक तरह से जीत ही लिया था. बहुत साफ़ बहुमत न हो तो किसी सांसद को विधायक बनाए बिना छ: महीने तक मुख्यमंत्री बना सकने की संवैधानिक सुविधा के साथ वहां भेजना और इस बीच तीन बसपाइयों और एक निर्दलीय को कांग्रेसी बना लेने के साम दाम करना अवश्य अकलमंदी थी. मगर फिर ये क्या किया कि अपना ही कुनबा बिखेर लिया? क्यों का सवाल किसी के लिए भी खड़ा होता. मगर फिर भी बहुगुणा क्यों? क्या संगठन के स्तर पे उनका योगदान हरीश रावत से बड़ा था? प्रशासनिक अनुभव उनका ज़्यादा या उनको काबू में रख पाना रावत के मुकाबले मुश्किल था?

न. संगठन में रावत का योगदान और इतिहास तो रावत से बड़ा बहुगुणा का है नहीं और प्रशासनिक अनुभव भी बहुगुणा के पास उन जैसा नहीं है. तो फिर सिर्फ उन दोनों की हैसियत ही तोली गई हो सकती है. और इसमें भी कांग्रेस ने (जानबूझ कर ) चूक की. साफ़ साफ़ मुख्यमंत्री होते दिख रहे बहुगुणा कोई भी लालच या डर दिखा कर भी जब ग्यारह से बारहवां विधायक अपने शपथ ग्रहण समरोह में नहीं दिखा पाए तो तब भी आपको समझ नहीं आया कि सदन में इम्तहान के समय ऐसे मुख्यमंत्री का अंजाम क्या होगा? और फिर कितनी दूर की कौड़ी ढूंढ लाये हरीश रावत. उन ने अपने समर्थक सत्रह विधायकों को विधायक पद की शपथ ही नहीं लेने दी. वे जब तक विधायक ही नहीं तो ऐसे में कांग्रेस पार्टी का कोई व्हिप विधानसभा में विश्वास मत के दौरान लागू हो नहीं सकता. बहुगुणा की सरकार 27 मार्च की शाम देख नहीं पाएगी और अपने इन सत्रह विधायकों का बिगड़ भी कांग्रेस कुछ पाएगी नहीं. ज़्यादा से ज़्यादा वो उन्हें पार्टी से सस्पेंड कर सकती है. कर दे. वे अलग दल बना लेंगे. और फिर वे स्वतंत्र होंगे भाजपा या किसी भी ऐसे व्यक्ति के साथ जाने के लिए जिस के पास 19 और विधायक हों. उन्हें ये न करने देने के लिए आपने राष्ट्रपति शासन लगाया तो उसको संसद की मंज़ूरी मिलनी आसान नहीं होगी. वो भी मिल गई तो तय समझिये कि अगला कोई विधानसभा चुनाव भी आप अपनी इस हेकड़ी की बदनामी से गवा दोगे. कोई नहीं मानेगा खुद कांग्रेस में कि उस सूरत में विजय बहुगुणा कांग्रेस को उत्तराखंड में बहुमत दिला पायेंगे.

राजीव गाँधी के जाने के कुछ ही दिन बाद सीता राम केसरी ने कहा था कि कांग्रेस अब केवल चकाचौंध से नहीं चल पाएगी. मगर वो चल गई. उतनी जितनी वो चल सकती थी. नरसिम्हा राव की डुबोई कांग्रेस को तब गाँधी परिवार की चकाचौंध ही उबार पाई. लेकिन राजनीतिक पार्टियों के फैसले भी राजनीतिक होने पड़ते हैं. ज़रुरत हो तो कूटनीतिक भी. दुर्भाग्य कांग्रेस का ये है कि उस में अब वही नहीं हो रहा है. दिखता चेहरा सोनिया गाँधी का है. मगर लगता है कि दिमाग अहमद पटेल, जनार्दन द्विवेदी और उनकी उस कोटरी का चलता है जिस के कुछ सदस्य नरसिम्हा राव के साथ भी हुआ करते थे. उनका दांव पे लगा ही क्या है जो बिखर जाएगा? वे कल को किसी ढाबे पे बैठ के खा लेंगे. लेकिन सोनिया और राहुल का कहाँ जाएंगे?

फैसले अराजनीतिक और जनता से विन्मुखी होते चले गए. क्या तुक थी कि हरियाणा की 90 में से 64 सीटें लाकर देने वाले भजन लाल को कांग्रेस मुख्यमंत्री न बनाए? क्यों उस हुड्डा को जिसके मुख्यमंत्री हो सकने के डर से जनता के भाग खड़े हो सकने का डर खुद कांग्रेस को भी था और इसी लिए विधानसभा का चुनाव तक नहीं लड़ाया उसे पार्टी ने. वही अब उत्तराखंड में. हरीश रावत का चेहरा दिखा के चुनाव लड़ते हैं आप मगर जब मुख्यमंत्री बनाने की बारी आती है तो उसी को ठेंगा दिखा देते हैं आप. ठीक कह रहे हैं एम.जे.अकबर, परिवार-प्रतिष्ठान की तरह चलेगी कांग्रेस तो कहीं की नहीं रहेगी. यही हाल रहा तो एक दिन लोग कहते मिलेंगे एक थी कांग्रेस!

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