पूर्णत: धर्मांध था तैमूर लंग

तैमूर लंग ने भारत पर 1398 ई. में आक्रमण किया। इस विदेशी आततायी का उद्देश्य भी भारत के धर्म और संस्कृति को मिटाकर यहां इस्लाम का झण्डा फहराना था। इसमें कोई दो मत नही कि हिंदुओं के प्रति तैमूर अत्यंत क्रूर था। उसकी क्रूरता को सभी  इतिहासकारों ने स्वीकार किया है, हिन्दुओं के प्रति वह पूर्णत: धर्मांध था, उसने भारतवर्ष में अपने प्रवासकाल में हर स्थल पर अपनी धार्मिक असहिष्णुता का परिचय दिया। अपनी क्रूरता के प्रदर्शन से उसने अब तक के मुस्लिम शासकों की क्रूरता के पिछले सारे कीत्र्तिमानों को ध्वस्त कर दिया था। उसके अत्याचारों का उल्लेख करते समय सचमुच लेखनी भी कांप उठती है।

देश को हिला दिया था तैमूर के अत्याचारों ने

पिछले अध्यायों में हमने यह स्पष्ट करने का प्रयास किया था कि तुगलक वंश के अंतिम दिनों में सल्तनत की दुर्बलता के कारण सर्वत्र अराजकता का परिवेश था। सुल्तान का महत्व समाप्त प्राय: हो रहा था और हिंदू अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करते जा रहे थे। तभी तैमूर लंग ने भारत पर आक्रमण करके देश को हिला दिया। उसके अत्याचारों की सूनामी से लोग त्राहिमाम्-त्राहिमाम् कर उठे थे।

दया भाव से शून्य था तैमूर

तैमूर यद्यपि एक निर्धन तुर्क परिवार में जन्मा था और निर्धनता को उसने निकट से देखा था, परंतु इसके उपरांत भी किसी निर्धन असहाय या अनाश्रित के प्रति उसके हृदय में तनिक भी दयाभाव नही था। वह मनुष्य के प्रति दानवता का भाव लेकर उठा और धूमकेतु की भांति भारत के राजनीतिक गगन मंडल पर चमक उठा।

तैमूर का  प्रारंभिक जीवन

उसके पिता का नाम अमीर तुरघाई और माता का नाम तकीना खातून था। वह 25 वर्ष की आयु में ही तुर्किस्तान का सुल्तान बनने में सफल हो गया था, परंतु लोगों ने उसके विरूद्घ विद्रोह कर दिया और उसे अपनी सत्ता छोडक़र भाग जाना पड़ा। कुछ समय उपरांत उसने समरकंद को जीतने में पुन: सफलता प्राप्त कर ली, जिससे वह एक बार पुन: शासक बनने में भी सफल हो गया। वह बल्ख का बादशाह बन गया, जिसे हमारे प्राचीन भारतीय संस्कृत साहित्य में बाहलीक कहा गया है। इस क्षेत्र पर आर्यावत्र्तकालीन कितने ही सम्राटों और हिंदू राजाओं का राज रहा था।

समय का परिवर्तन

यह  समय का परिवर्तन था कि जिस क्षेत्र पर कभी हमारा ही साम्राज्य था, उन्हीं से लोग हमारे शत्रु बनकर उठने लगे, और हमारा ही काल बनकर हम  पर छाने लगे। जब कभी बाहलीक भारत से अलग हुआ होगा तो उस समय भी इस्लाम के आक्रामकों ने यही घोषणा की होगी कि भारत के इस क्षेत्र को भारत के ही विरूद्घ एक अड्डे के रूप में प्रयोग किया जाएगा, जैसे 1947 ई. में भारत से पाकिस्तान अलग बनने पर वहां के नेताओं ने कहा था। काल के प्रवाह में हम अपने घावों को भूलते गये, पर जो लोग इस देश को तोड़ तोडक़र इसके टूटे हुए भाग को इसी के विरूद्घ प्रयोग करने की रणनीति या कार्य योजना पर काम कर रहे थे, उनकी सोच में तो कोई परिवर्तन आया नही। हमारे और उनके मध्य की सोच में अंतर केवल इतना रहा कि वे इतिहास दोहराते रहे और हम इतिहास को भूलते गये। सर इलियट इसे एक ‘धृष्ट और मजेदार धोखा’ कहते हैं। जब इतिहास को कूड़ेदान में फेंकने का प्रयास किया जाएगा तो ‘धृष्ट और मजेदार धोखे का इतिहास’ तो पढऩा ही पड़ेगा। जैसा कि हम अपने वर्तमान इतिहास में पढ़ भी रहे हैं।

विश्व विजेता बनने का लिया  संकल्प

तैमूर लंग का जीवन चरित्र ‘मुलफुजद ए तैमूरी’ व ‘तुजके तैमूरी’ के नाम से हमें मिलता है। जब तैमूर कुछ बड़ा हुआ तो उसने भी तलवार के बल पर विश्व विजेता बनने का संकल्प लिया। इन लोगों की दृष्टि में विश्व विजेता बनने का अर्थ होता था लोगों और देशों को बलात् अपने नियंत्रण में लाना और बलात् उनके ऊपर शासन करना, उनकी  संस्कृति को मिटाना, उनके धर्म और इतिहास को मिटाना और उन पर अपनी मजहबी मान्यताओं को बलात् थोप देना।

भारत पर तैमूर के आक्रमण

भारत पर तैमूर ने कई विजय अभियान चलाये। उसने अपने लगभग 70 वर्ष के जीवन में 35 विजय अभियान भारत के विरूद्घ चलाये थे। भारत में उसने हरिद्वार से लेकर पश्चिम में कैरो तक के प्रदेश में भारी विनाश किया था। इतिहास की इसे विवशता पूर्ण विडंबना ही कहा जाएगा कि इसे अपने पृष्ठों पर विकास के स्थान पर विनाश की कहानी लिखने वाले शासकों को ही स्थान देना पडऩे लगा। तैमूर के विषय में यह सत्य है कि उसकी मानसिकता केवल विनाश की मानसिकता थी और वह विनाश के अतिरिक्त कुछ सोच भी नही सकता था।

तैमूर की गाजी बनने आत्मस्वीकारोक्ति

तैमूर ने स्वयं कहा था-‘‘काफिरों (हिन्दुओं) के विरूद्घ एक अभियान चलाकर गाजी बनने की इच्छा मेरे मन में पैदा हुई, क्योंकि मैंने सुना है कि काफिरों की हत्या करने वाला गाजी होता है। मैं अपने दिमाग में यह तय नही कर पा रहा था कि चीन के काफिरों के विरूद्घ पहले जाऊं या हिंदुस्तान के। इस बारे में मैंने कुरान से हुकुम लिया। मैंने जो पद निकाला वह यों है-हे पैगंबर! काफिरों, नास्तिकों से लड़ाई छेड़ दो, और उनसे बड़ी कठोरता से पेश आओ।’’

ऐसे पूर्वाग्रह के साथ और हिंदुओं के संहार के दृढ़ निश्चय के साथ तैमूर ने भारत पर आक्रमण करने का निर्णय लिया। उपरोक्त उद्घरण हमने ‘इलियट एण्ड डाउसन’ के ग्रंथ से लिया है। इसी ग्रंथ के पृष्ठ 397 पर लिखा है-कि तैमूर ने भारत पर आक्रमण करने से पूर्व अपने लोगों को संबोधित करते हुए कहा था-

‘‘हिन्दुस्तान पर हम लोग उस देश के लोगों को मुसलमान बनाकर काफिरपन की गंदगी से उस देश की जमीन को पाक और साफ कर सकें और उन लोगों के मंदिरों तथा मूर्तियों को नष्ट कर हम लोग गाजी और मुजाहिद कहला सकें।’’

तैमूर का जीवनोद्देश्य

हर व्यक्ति का अपना एक आदर्श होता है, जिसे आप जीवनोद्देश्य भी कह सकते हैं और इसी जीवनोद्देश्य को उसके जीवन का आप एक सपना भी कह सकते हैं। हर व्यक्ति महानता और ऊंचाई पर पहुंचकर प्रशंसा प्राप्त करने का अभिलाषी होता है। अत: वह ऐसा कुछ कर जाना चाहता है जिसे देखकर उसके स्वजन और हितैषी लोग उसकी प्रशंसा करें, और जिसे करने के उपरांत उसे स्वर्ग का सम्मानित पद भी प्राप्त हो जाए। तैमूर के लिए इस्लाम की व्यवस्था के अनुरूप इससे उत्तम कोई आदर्श या जीवनोद्देश्य नही हो सकता था कि वह भारत से काफिर पन (हिंदुत्व) को समाप्त करने के लिए आये और उससे विनाश के लिए अपनी सारी शक्ति का पूर्ण मनोयोग से उपयोग करे।

तैमूर का पहला आक्रमण

अपने ऐसे जीवनादर्श को सम्मुख रखकर तैमूर ने भारत की ओर प्रस्थान किया। मार्च 1398 में तैमूर ने कटक के पास से सिंधु नदी को पार किया और तुलुम्ब नामक कस्बे के सारे हिंदुओं को मारकर उनका सारा धनादि उनसे छीन लिया। इस प्रकार पहले झटके में ही हजारों हिंदू तैमूर की तलवार से बलि का बकरा बन गये।

किया कश्मीर की ओर प्रस्थान

इसके पश्चात तैमूर ने कश्मीर की ओर प्रस्थान किया। कश्मीर के राजा ने तैमूर के आतंक के सामने समर्पण कर दिया और उससे संधि कर ली। परंतु इसके उपरांत भी तैमूर ने वहां भारी विनाश किया। इसका कारण यही था कि वह भारत से केवल धन लूटने के लिए या अपने साम्राज्य का विस्तार करने की इच्छा से नही आया था, अपितु उसका उद्देश्य इस पवित्र भूमि से वेद, पुराण, रामायण, गीता, महाभारत, उपनिषद आदि की परंपराओं और उनके अनुसार चलने वाली जीवन प्रणाली को पूर्णत: समाप्त करना था। इसलिए तैमूर ने भारतवर्ष के हिंदू किसानों से उनका अन्न तक छीन लिया। इसके पीछे उसका उद्देश्य यह था कि हिंदुस्तानी लोग भूख से मरने लगें। इतने पर भी जब उसे संतोष न हुआ तो उसने लूटे गये क्षेत्रों में आग लगा दी।

चला दिल्ली की ओर

कश्मीर में अपने आतंक का साम्राज्य स्थापित कर तैमूर फतहबाद, राजपुर और पानीपत होकर दिल्ली आ धमका। दिल्ली के बहुत से हिंदुओं को तैमूर के अत्याचारों की सूचना पहले ही मिल चुकी थी कि तैमूर अब से पूर्व मुलतान, दीपालपुर, सरसुती, कैथल आदि में कितने ही अत्याचार कर चुका है। हृदय को झकझोर देने वाले तैमूरी अत्याचारों की कहानी से बहुत से हिंदू राजधानी दिल्ली से इधर-उधर भाग गये या जिन्हें अवसर मिला उन्होंने आक्रांता के क्रूर अत्याचारों से बचने के लिए आत्महत्या कर ली, अथवा अपने बच्चों व पत्नी को जीवित ही जला दिया। जो हिंदू बचे उनके साथ क्रूरता की सीमाएं लांघकर अत्याचार किये गये।

तैमूर क्या कहता है-…..

तैमूर का जीवनीकार ‘मुलफुजद-ए-तैमूरी’ में तैमूर को उद्घृत करते हुए हमें बताता है कि उसने दिल्ली के लिए प्रस्थान करने से पूर्व कह दिया था-‘‘मैंने तेहाना से अपना माल असबाब भेज दिया था। मैंने जंगलों और पहाड़ों के रास्ते सफर किया। मैंने 2000 शैतान जैसे जगहों की हत्या की, उनकी पत्नियों और बच्चों को बंदी बनाया, और उनके सारे धन तथा गायों को लूट लिया। समाना, कैथल और असपंदी के सारे लोग धर्मविरोधी बुतपरस्त, काफिर और नास्तिक हैं जो अपने-अपने घरों में आग लगाकर अपने बच्चों सहित दिल्ली भाग गये, और सारा देश सूना कर गये।’’

हिन्दुओं की दयनीय अवस्था

तैमूर के इस वर्णन से स्पष्ट है कि हिंदू लोग अपने धर्म और संस्कृति की रक्षार्थ उस समय कितने कष्ट सह रहे थे? सूचना मिलते ही कि कोई आक्रांता अत्याचार करने के लिए आ रहा है, लोग अपने घर बार छोडक़र भाग जाया करते थे। अपने ही घर और अपने ही देश में बेघरबार (आज कश्मीरी पंडित विस्थापित हो रहे हैं तो यह कश्मीर के लिए या हमारे लिए कोई नई बात नही है, ऐसे क्रम तो पूर्व में भी कश्मीर में  चल चुके हैं, उसी का उदाहरण है यह।) हो जाना कितना कष्ट प्रद होता है? यह बात केवल वही जानता है, जिसने ऐसी पीड़ा को सहन किया हो।

हिन्दू को स्वतंत्रता प्रेमी और धर्म प्रेमी होना महंगा पड़ा

तैमूर लंग के आक्रमण का मूलोद्देश्य हिंदुत्व का विनाश करना था। इसलिए हिंदू का धर्म और उसकी स्वतंत्रता को मिटाना उसका प्रमुख लक्ष्य था। उसे उलेमा और सूफियों ने परामर्श दिया-‘‘इस्लाम को मानने वाले सुल्तान का और उन सभी लोगों का, जो मानते हैं, कि अल्लाह के  अतिरिक्त अन्य कोई ईश्वर नही है और मुहम्मद अल्लाह का पैगंबर है, यह परम कत्र्तव्य है कि वे इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए युद्घ करेंगे, उनका पंथ सुरक्षित रह सके, और उनकी विधि व्यवस्था सशक्त रही आवे, वह अधिकाधिक परिश्रम कर अपने पंथ के शत्रुओं का दमन कर सकें। विद्वान लोगों के ये आनंददायक शब्द जैसे ही सरदारों के कानों में पहुंचे, उनके हृदय हिंदुस्तान में धर्म युद्घ करने के लिए, स्थिर हो गये और अपने घुटनों पर झुक कर, उन्होंने इस विजय वाले अध्याय को दोहराया।’’ (संदर्भ : तैमूर की जीवनी ‘मुलफुजात-ए-तैमूर’ एलियट एण्ड डाउसन खण्ड तृतीय पृष्ठ 397)।

पिछले छह सौ वर्षों से हिंदू इस्लाम की इसी पंथीय व्यवस्था का शिकार होता आ रहा था। अभी तक एक भी तो ऐसा सुल्तान नही हुआ था जो इस व्यवस्था का उल्लंघन करा सके, अथवा मानवता को अपने शासन का आधारभूत सिद्घांत बनाकर शासन कर सके।

भटनेर में काट दिये थे दस हजार हिंदू

भटनेर में हिंदुओं ने तैमूर की सेना का सामना किया। धर्म और स्वतंत्रता की रक्षाथ हिंदुओं ने जमकर संघर्ष किया, परंतु विजयश्री नही मिली, तो उन लोगों ने स्वतंत्रता की बलिवेदी पर अपना सिर मौन रहकर चढ़ा दिया। तैमूर की उक्त जीवनी के पृष्ठ 421-422 पर लिखा है-‘‘इस्लाम के योद्घाओं ने हिंदुओं पर चारों ओर से आक्रमण कर दिया और तब तक युद्घ करते रहे जब तक अल्लाह की कृपा से मेरे सैनिकों के प्रयासों को विजय की किरण नही दीख गयी। बहुत थोड़े समय में ही किले के सभी व्यक्ति तलवार के घाट उतार दिये गये और समय की बहुत छोटी अवधि में ही दस हजार हिंदू लोगों के सिर काट दिये गये। अविश्वासियों के रक्त से इस्लाम की तलवार अच्छी तरह धुल गयी, और सारा खजाना सैनिकों की लूट का काल बन गया।’’

भटनेर का राजा दुलीचंद

भटनेर का राजा उस समय दुलीचंद था। तैमूर की जीवनी ‘मुलफुजात-ए-तैमूरी’ के अनुसार दुलीचंद उस समय बहुत बड़ा व्यक्ति था और संपूर्ण भारतवर्ष में उसकी ख्याति थी। तैमूर की जीवनी से हमें पता चलता है कि भटनेर के निवासियों ने सर्वप्रथम आक्रामक सेना का नगर की चहारदीवारी के पास सामना किया। संघर्ष के पश्चात चहारदीवारी को पार करने में मुस्लिम सेना सफल हो गयी तो उसके पश्चात उसका दुर्ग के भीतर हिंदू सेना से प्रतिरोध हुआ। अपनी पराजय का अनुभव होने पर राजा ने संधि का प्रस्ताव सुल्तान के पास भेजा, परंतु लगता है कि वह प्रस्ताव उसके दरबारियों को अच्छा नही लगा, क्योंकि प्रस्ताव के अनुसार राजा नियत दिन को तैमूर के समक्ष उपस्थित नही हुआ। तैमूर ने किले पर पुन: आक्रमण करने का आदेश अपनी सेना को दिया। तैमूर की सेना का प्रतिरोध ंिहदुओं ने किले की दीवारों पर चढक़र जितना संभव था, उतना किया। बाद में राजा नौ नवंबर को तैमूर के समक्ष उपस्थित भी हो गया, परंतु तैमूर ने रूष्ट होकर नरसंहार कराना आरंभ कर दिया। ‘मुलफूजात-ए-तैमूरी’ में एवं ‘जफरनामा’ में हिंदुओं के वीरतापूर्ण संघर्ष की बात कही गयी है। परंतु यह वीरता इन शेरों को सफलता नही दिला पाई। बड़ी संख्या में हिन्दुओं ने देशधर्म के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया। जिससे स्पष्ट है कि हिंदू प्रतिरोध का सामना यहां तैमूर को करना पड़ा था।

दस हजार लोगों का किया गया वध

हम कह सकते हैं कि दस हजार लोगों के सिर काटकर तैमूर और उसके सैनिकों ने युद्घ क्षेत्र में और उसके पश्चात नगर व किले में इधर-उधर बिखेर दिये। मां भारती के हजारों शेर उसके आंगन में पराजित योद्घा के रूप में बिखरे पड़े थे, मां करूण विलाप कर रही थी, पर शत्रु के हृदय में तनिक भी दयाभाव और मानवता का भाव नही पनपा। जो लोग मां भारती के आंगन में अपना सर्वोत्तम बलिदान देकर आज केवल शवों के रूप में बिखरे पड़े थे, वे लोग भेड़ बकरियां नही थीं, अपितु वह लोग  थे देशधर्म के दीवाने हिंदू, जो अपने आदर्श के लिए लड़ मर रहे थे। इसलिए इन सिरों का अपमान करना होगा यदि इन्हें बिखरा हुआ कहा जाए, इसलिए इनके लिए उपयुक्त शब्दाबली यही होगी कि इन्हें मातृभूमि की सेवा में इनके द्वारा दी गयी ‘सर्वोत्तम भेंट’ कहा जाए।

सिरसा में भी यही हुआ

उसी पुस्तक में आगे उल्लेख है कि-‘‘जब मैंने सरस्वती नदी के विषय में  पूछा, तो मुझे बताया गया कि उस स्थान के लोग इस्लाम के पंथ से अनभिज्ञ थे। मैंने अपनी सैनिक टुकड़ी उनका पीछा करने भेजी और एक महान (भयंकर) युद्घ हुआ। सभी हिंदुओं का वध कर दिया गया, उनकी महिलाओं तथा बच्चों को बंदी बना लिया गया और उनकी संपत्तियां और वस्तुएं मुसलमानों के लिए लूट का माल हो गयीं। सैनिक अपने साथ कई हजार हिंदू महिलाओं और बच्चों को साथ ले लौट आये। हिंदू महिलाओं और बच्चों को मुसलमान बना लिया गया।’’

इस विवरण से स्पष्ट है कि हिंदुओं ने सिरसा में भी अपना बलिदान यूं ही नही दे दिया था, अपितु बलिदान से पूर्व भयंकर युद्घ हुआ। उस युद्घ का वर्णन जानबूझकर नही किया गया है। हिंदू की केवल संख्या का अनुमान लग सकता है, कि कितने लोगों ने अपना बलिदान दिया? उक्त वर्णन में हजारों हिंदू महिलाओं और बच्चों को सैनिकों द्वारा लाने का उल्लेख है, तो अनुमान लगाया जा सकता है कि सिरसा में भी हजारों हिंदुओं ने ही अपना बलिदान दिया था। तैमूर के विवरणों में हिंदू वीरता को कहीं भूलकर भी नही दिखाया गया है। इसलिए किसी हिंदू वीर का नामोल्लेख भी नही किया गया है। बस उन्हें तो गाजर मूली की भांति कटते हुए दिखाया गया है। इसलिए हिंदू बलिदान विषयक तैमूर की जीवनी की भाषा को बड़ी सावधानी से पढऩे और समझने की आवश्यकता है। हजारों लोगों के बलिदानों की गाथा को हम आज तक खोज नही पाये हैं। हमारे लिए यह शोक और दुर्भाग्य का विषय है।

वीर जाटों का बलिदान

जाट भारतवर्ष की एक क्षत्रिय जाति है। इसका एक गौरवपूर्ण इतिहास है। कितने ही स्थलों पर जाट रणबांकुरों ने अपनी वीरता का प्रदर्शन कर देश धर्म की रक्षा की है। भारत की क्षत्रिय जातियों में जाटों का महत्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने तैमूर के काल में भी अपना शौर्य प्रदर्शन किया, और शत्रु के जमकर दांत खट्टे किये। तैमूर ने अपनी जीवनी में लिखा है-‘‘मेरे ध्यान में लाया गया था कि ये उत्पाती जाट चींटी की भांति असंख्य हैं। हिंदुस्तान पर आक्रमण करने का मेरा महान उद्देश्य अविश्वासी हैं। हिंदुओं के विरूद्घ धर्मयुद्घ करना था। मुझे लगने लगा कि इन जाटों का पराभव (पूर्णत: विनाश) कर देना मेरे लिए आवश्यक है। मैं जंगलों में और बीहड़ों में घुस गया, और दैत्याकार दो हजार जाटों का मैंने वध कर दिया….उसी दिन सैयदों, विश्वासियों का एक दल जो वहीं निकट ही रहता था, बड़ी विनम्रता और शालीनता से मुझसे भेंट करने आया और उनका बड़ी शान से स्वागत किया गया। मैंने उनके सरदार का बड़े सम्मान से स्वागत किया।’’ (वही पुस्तक पृष्ठ 429)

इस विवरण में यह तथ्य उल्लेखनीय है कि जाटों के साथ रहने वाले सैयद जाटों के वध किये जाने के उपरांत तैमूर से बड़ी विनम्रता और शालीनता से भेंट करने गये थे। मानो इस बात का धन्यवाद ज्ञापित करने गये थे कि तूने बहुत ही अच्छा कर दिया जो हमारे पड़ोसी जाटों का विनाश कर दिया। अभी वर्तमान काल में भारत में पिछले 25-30 वर्षों में जब से कश्मीर से कश्मीरी पंडितों को भगाया जाने लगा तो वहां भी ऐसे कितने ही उदाहरण मिले कि कश्मीरी पंडितों के भागने पर या भगाये जाने पर वहां का स्थानीय मुस्लिम आतंकवादियों के प्रति विनम्रता और शालीनता दिखाते हुए धन्यवाद ज्ञापित करना नही भूला। कितना  पुराना संस्कार है ये कश्मीरी मुस्लिमों का?

लोनी में बना दिया था नरमुंडों का टीला

तैमूर की उक्त जीवनी में उल्लेख है-‘‘उन्तीस तारीख को मैं पुन: अग्रसर हुआ और जमुना नदी पर पहुंच गया। नदी के दूसरे किनारे पर लोनी का दुर्ग था। लोनी दुर्ग को तुरंत विजय कर लेने का मैंने निर्णय किया। अनेकों राजपूतों ने अपनी पत्नियों तथा बच्चों को घरों में बंद कर आग लगा दी, और तब वे युद्घ क्षेत्र में आ गये। शैतान की भांति (अर्थात एक वीर योद्घा की भांति) लड़े और अंत में मार दिये गये। दुर्ग रक्षक दल के अन्य लोग भी लड़े और कत्ल कर दिये गये, जबकि बहुत से लोग बंदी बना लिये गये। दूसरे दिन मैंने आदेश दिया कि मुसलमान बंदियों को पृथक कर दिया जाए, और उन्हें बचा लिया जाए, किंतु गैर मुसलमानों को धर्मांतरणकारी तलवार द्वारा कत्ल कर दिया जाए। मैंने यह आदेश भी दिया कि मुसलमानों के घरों को सुरक्षित रखा जाए, किंतु अन्य सभी घरों को लूट लिया जाए और विनष्ट कर दिया जाए।’’ (‘एलियट और डाउसन’ खण्ड तृतीय पृष्ठ 432-33)

कटे सिरों का बनवा दिया था टीला

यहां तैमूर ने एक लाख हिंदुओं का एक दिन में ही वध करा दिया था। वध के उपरांत भी उन सबके कटे हुए सिरों को एक साथ एकस्थान पर एकत्र कराके उनका टीला बनवा दिया था। यह कार्य तैमूर ने लोनी के ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की हत्या करके पूर्ण किया था। जिसके परिणाम स्वरूप दूर-दूर तक लोगों में आतंक और भय व्याप्त हो गया था। चारों ओर दुर्गंध फैल गयी थी और उस दुर्गंध ने महामारी का रूप ले लिया था। इसलिए बहुत से लोगों ने अपने घर बार छोड़ दूर चले जाने का निर्णय ले लिया था।

वीर राजा मैमून की वीरता

लोनी में तैमूर के पहुंचने की तिथि 10 दिसंबर 1398 ई. मानी गयी है। यहां का शासक उस समय मैमून नामक एक हिंदू था। इस हिन्दू वीर राजा ने आक्रांता का प्रयोजन और परिणाम दोनों पर गंभीरता से विचार किया। इसकी वीरता देखिये कि युद्घ से भाग जाने, या आक्रांता के समक्ष समर्पण कर देने के विकल्पों के रहते हुए भी इस वीर योद्घा राजा ने उन पर अमल नही किया, अपितु आक्रांता का सामना करना ही श्रेयस्कर और क्षत्रिय परंपरा के अनुकूल माना। इसलिए अपनी सेना को उसने मुस्लिम आक्रांता का सामना करने का आदेश दिया। उस समय लोनी के आसपास जमुना के खादर में जंगल था, जहां आजकल बहुत से गांव दिखायी देते हैं, इनमें से अधिकांश गांव भी उस समय नही थे और उनके स्थान पर वनखण्ड था। इसलिए राजा के पास इन जंगलों में या वनखण्ड में जाकर छिपने का भी अवसर था। दूर-दूर तक आबादी नही होने के कारण राजा के पास सैन्यबल भी कितना रहा होगा? यह भी सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है, परंतु इन सबके उपरांत भी राजा ने लडऩे का निर्णय लिया तो उसके शौर्य और देशभक्ति को साधुवाद देना पड़ेगा।

चोटी न कटवाकर सिर कटवाना कर लिया स्वीकार

मुस्लिम सेना ने मध्यान्ह से सायं काल तक दुर्ग के चारों ओर सुरंग खोदकर अपनी विजय को सहज करने का प्रयास किया। जिसमें उन्हें सफलता भी मिली और वे किले में भीतर प्रविष्ट हो गये। तब असुरक्षित हिंदुओं ने जितना प्रतिरोध हो सकता था उतना किया पर जब देखा कि अब पराजय निश्चित है और धर्म व स्वतंत्रता की रक्षा किसी भी मूल्य पर नही होने वाली तो उन लोगों ने अपने आप को अपने परिवार सहित अग्नि को सौंप दिया। 11 दिसंबर को तैमूर ने दुर्ग पर विजय प्राप्त की और जितने हिंदू उसे वहां दुर्ग में मिले उन सबको तलवार के द्वारा काट दिया गया। तैमूर को इतना करने पर भी संतोष नही हुआ, उसने लोनी के इस ऐतिहासिक दुर्ग में आग लगवा दी। आज लोनी का यह ऐतिहासिक स्मारक रूपी दुर्ग अतिक्रमण का शिकार है, और लोगों ने बहुत ऊंचाई पर स्थित इस दुर्ग में अवैध रूप से अपने आवास बना लिये हैं। जिन्हें देखकर लगता है कि अब इस स्मारक को कभी भी अतिक्रमण से मुक्त नही कराया जा सकेगा। यह दुर्ग एक लाख उन वीर हिंदुओं का स्मारक है, जिन्होंने चोटी न कटवाकर सिर कटवा लिया था, और जनेऊ न उतारकर फांसी का फंदा (तलवार से कटना) स्वीकार कर लिया था। धन्य है वो राजा मैमून और उसकी वीर प्रजा  जिसने उस समय अपना बलिदान देकर स्वतंत्रता संघर्ष को किसी न किसी रूप में गतिमान रखा।

 

–राकेश कुमार आर्य

 

7 COMMENTS

  1. bahut hi acha lekh ….lekin vidambna ye he is desh me rahne wala musalmaan abhi bhi temoor,babar orangjeb jeso ko apna hero samajhta he…iska ak nya example hame karina kapoor or saif ali khan k bete k naamkaran ko dekh kar pata lagaya ja sakta he…..jab ak padhe likhe or sambhraant pariwaar ki ye soch he to …..baki ki to baat hi karni bekaar he vaha to bhed chaal he……islaam kitna hi khud ko paak saaf kah le….lakin uske maate par in katleaam ka tika laga rahega hamesha…jese hindu dharm k maathe par dalito ,shudro k parti atyaachar ka chandan 5000 salo se laga huwa he……

  2. ये उन्हीं इलियट और डॉसन के आठ (४-५ हजार पृष्ठ) भाग है, जिन्हें नेहरु ने भारत में प्रतिबंधित किये थे।
    इन्हीं का हिन्दी में पूरा अनुवाद उपलब्ध कराया जाए।
    पर एक बात स्पष्ट सामने आती है; कि, हिन्दू वीर हो सकता है,पर क्रूर नहीं हो सकता। क्रूरता का स्वर्ण पदक निर्विवाद, इन्हीं को दिया जा सकता है।
    क्रूरता के सामने वीरता हतप्रभ है। इसी के कारण आतंकवाद का भी कोई हल नहीं।
    कोई समाधान आज भी दिखाई नहीं देता।
    आप का,आलेख विचारोत्तेजक हैं। स्मरण हो रही हैं, पंक्तियाँ;
    लाख लाख पीढियाँ लगी, तब हमने यह संस्कृति उपजायी।
    कोटि कोटि सिर चढें तभी, इसकी रक्षा संभव हो पायी।
    टिप्पणी करने में भी असमर्थ हूँ।
    क्या इलियट डॉसन पर का भारत का प्रतिबंध हट गया है? उस का हिन्दी अनुवाद भी होना चाहिए। मैं अनजान हूँ।
    लेखक को साधुवाद।

    • श्रद्धेय डा० साहब
      सादर प्रणाम
      इलियट एंड डाउसन के विषय में आपने अच्छी जानकारी दी है । मुझे यह तो ज्ञात नहीं कि इनकी पुस्तकों से प्रतिबंध हटा कि नहीं, परंतु इतना सत्य है कि देश के अच्छे अच्छे प्रकासकों से जानकारी करने पर भी इनके ग्रंथ उपलब्ध नहीं हो पाए तब विभिन्न विद्वानों के ग्रन्थों का दोहन किया गया तो वहाँ से इनके उद्धरण प्राप्त किए गए हैं जो सचमुच आखें खोलने वाले हैं । हिन्दू के विषय में मेरी द्रढ़ भावना है कि यह सात्विक वृत्ति का होने के कारण अपने मौलिक स्वभाव में वीर है । परंतु वीर सावरकर के शब्दों में कहें तो यह “सदगुण विकृति” का शिकार हो गया है इसकी वीरता को लोगों ने कायरता रूप में स्थापित किया और दुर्भाग्य की बात है कि हमने उसे ऐसा होने दिया और इससे भी बड़े दुर्भाग्य की बात है कि देश का एक बहुत बड़ा वर्ग इसे ऐसा ही होते रहने देने के लिए प्रयासरत है। ऐसे लोगों के सिरमौर पंडित नेहरू रहे और हम देख रहे हैं कि आज भी हम पर नेहरुवाद हावी है ।
      आपके मार्गदर्शन के लिए हृदय से आभार।

  3. तैमूरलंग ही नहीं किन्तु जितने भी आतंकवादी भारत में आये हैं वे शुरु से लेकर अंत तक धर्मांद ही रहे इस सूचि में केवल तैमूर ही नहीं बल्कि गजनी,अहमदशाह अब्दाली ,बाबर ,चंकेज खान ये सभी धर्म के कट्टर पुरोधा थे .दिक्कत यह है की इनके सामने सनातन और बौद्ध मत के लोग लोग अपनी शांतिप्रियता के कारण सशक्त प्रतिरोध नहीं कर पाए. यदि हम अधिक जंगली ,अधिक आतंकी और निर्दयी और किसी भी शर्त अपनी बात को मनाने के लिए कोई भी सहारा लेने में चुकने के आदि होते तो ये कभी के भाग जाते.

    • कर्मार्कर जी धन्यवाद
      आपके निष्कर्ष से मैं पूर्णत: सहमत हूँ । pravakta.com पर हम परस्पर विचारों का आदान प्रदान करते रहेंगे । मैं प्रयास करूंगा कि श्रंखलाबद्ध ढंग से ये विचार प्रस्तुत किए जाते रहेंगे ।
      धन्यवाद

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