बारिश में जल भराव का दोषी कौन?

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-निर्मल रानी

वैसे तो वर्षा ऋतु अब अलविदा कह चुकी है और शीत ऋतु ने अपने आगमन की दस्तक भी दे दी है। परंतु अब भी वर्षा ऋतु में शहरों में होने वाले जल भराव का वह मंजर भुलाया नहीं जा सकता जिसने तमाम लोगों के घरेलू सामान बरबाद कर दिए, आम लोगों का सामान्य जीवन अस्त व्यस्त हो गया तथा तमाम मकान ध्वस्त हो गए। शहरी जल भराव के चलते अनजाने में किसी गङ्ढे, नाले अथवा खुले मेन होल में कभी किसी व्यक्ति की तो कभी किसी पशु के गिर कर मर जाने की ख़बरें भी अक्सर आती रही हैं। आमतौर पर इस प्रकार के जल भराव जैसी परिस्थितियां पैदा होने के बाद यही देखा गया है कि जनता द्वारा सीधे तौर पर सरकार को ही इन हालात का जिम्‍मेदार ठहरा दिया जाता है। विशेषकर नगरपालिकाएं अथवा नगरपरिषद के संफाई कर्मचारी इस आपदा के लिए जिम्‍मेदार ठहराए जाते हैं। परंतु इन्हें जिम्‍मेदार ठहराने वाले लोग स्वयं अपनी जिम्‍मेदारियों तथा कर्तव्यों से मुंह मोडे नार आते हैं।

यह माना जा सकता है कि अन्य सरकारी विभागों के कर्मचारियों की ही तरह नगरपालिका व नगरपरिषदों के कर्मचारी भी पूरी तत्परता, चौकसी तथा जिम्‍मेदारी के साथ अपना काम नहीं करते। परंतु यह भी सत्य है कि जब भी या देर-सवेर जैसे भी अपने कार्यों को करते हैं तो वही करते हैं। अर्थात् उदाहरणतया नालियों या नालों अथवा गटर की संफाई का काम देर-सवेर से ही सही आंखिर कार इन्हीं सफाई कर्मियों को ही करना पड़ता है। परंतु क्या कभी हमने यह ग़ौर करने की कोशिश की है कि हमारे तथाकथित सम्‍मानित नागरिक इन सफाईकर्मियों की राह में किस प्रकार बाधा साबित होते हैं? किसी भी शहर के किसी भी बाजार या मोहल्लों से गुजरने वाले नालों व नालियों पर नार डालिए तो आपको उस हकीक़त का एहसास हो जाएगा जो हमें यह बताती है कि शहरी जल भराव का वास्तव में कारण क्या है। आम लोगों ने तमाम नालों पर अपने मकान बना रखें हैं। कहीं चबूतरा बना कर नालों को ढक दिया गया है तो कहीं उसी नाले को व्यापारिक उपयोग में लाया जा रहा है। कहीं लोगों ने उन्हीं नालों व नालियों पर अपने घरों के चबूतरे या सीढ़ियां बना रखी हैं तो कहीं कार गैरेज बने हुए हैं। कहीं-कहीं मकान की बाहरी गैलरी उसी नाले व नाली पर बनाकर नाले को ढक दिया गया है।

अब जरा सोचिए कि उपरोक्त परिस्थितियों में क्या नालों व नालियों की संफाई ठीक ढंग से कर पाना संभव है? कई बार नगरपरिषदों द्वारा अतिक्रमण हटाओ अभियान के तहत इस प्रकार से नालों व नालियों पर किए गए नाजायज कब्‍जे के विरुद्ध अभियान भी चलाया जाता है। ऐसे में इस अभियान में शामिल सरकारी कर्मचारियों को कई जगहों पर जनता के विरोध, यहां तक कि हिंसक विरोध तक का सामना करना पड़ता है। यहां हम कह सकते हैं कि ऐसे लोगों की ‘एकता व जागरुकता’ सरकारी जमीनों विशेषकर नालों व नालियों पर अवैध कब्‍जा करने के लिए तो है परंतु बरसात में होने वाले जल भराव अथवा रुके हुए नालों व नालियों में पलने वाले कीड़ों-मकौड़ों व मच्छरों आदि को लेकर उनकी चिंताएं बिल्कुल नहीं है। सवाल यह है कि ऐसे लोग जो अपने कर्तव्यों तथा जिमेदारियों का सही ढंग से निर्वहन नहीं करते क्या उन्हें अपने अधिकारों की दुहाई देते रहने अथवा बेवजह केवल सरकार को दोषी ठहराने का कोई अधिकार है?

जल भराव का एक और कारण भी गौर फरमाईए। इसके लिए भी सरकार या नगरपालिका नहीं बल्कि हम ही स्वयं दोषी हैं। जरा सोचिए कि नाली व नालों का निर्माण घर की नाली से लेकर शहर के प्रमुख नाले तक आंखिर क्यों किया जाता है। जाहिर है हमारे घरों से निकलने वाले गंदे पानी व बरसाती पानी की निकासी की खातिर। परंतु जरा शहरों के नालों व नालियों पर एक नार डालिए। नगरपालिका के संफाई कर्मचारी जब नालों व नालियों की सफाई करते हैं उस समय नालियों से निकलने वाले कचरे पर गौर फरमाईए। शीशे की बोतलें, कांच के टूटे-फूटे टुकड़े व गिलास, प्लास्टिक की बोतलें, पॉलिथिन, थर्मोकोल के छोटे व बड़े तमाम टुकड़े ईंट-पत्थर-लकड़ी, जूते-चप्पल, कपड़े-लत्ते,टीन-टप्पर आदि क्या नहीं निकलता है इन नालों व नालियों से। मैनें प्राय: यह भी देखा है कि मकान की ऊपरी मंजिल पर रहने वाले तमाम लोग अपने घरों का कूड़ा-करकट एक पॉलिथिन में बांधकर छत पर खड़े होकर अपने घर के सामने बहते हुए नाले व नाली में निशाना साधकर उसी में फेंक देते हैं। जाहिर है यह सभी वस्तुएं नालियों व नालों को बाधित अथवा जाम करने में अहम भूमिका निभाती हैं। आंखिर इन सब बातों के लिए दोषी कौन है? सरकार, नगरपालिका, नगरपरिषद या हम खुद?

तमाम लोगों ने अपने घरों में भैंसों की डेयरियां खोल रखी हैं। इनमें कुछ समझदार व जागरुक डेयरी मालिक तो ऐसे हैं जो अपने पशुओं के गोबर को इकट्ठा करवा कर किसी निर्धारित स्थान पर फेंकने की कोशिश करते हैं। परंतु तमाम डेयरी मालिक ऐसे भी हैं जो गायों व भैंसों के गोबर को अपनी डेयरी के नाली के मुहाने पर रखकर खुले पानी से उसे नाली या नाले की ओर आगे बहा देते हैं। जब भी शहरी जल भराव होता है उस समय यही गोबर के रेशे सबसे अधिक मात्रा में गलियों व सड़कों पर जल भराव होने के बाद जमी हुई शक्ल में दिखाई देते हैं। कई शहरों केप्रशासन द्वारा डेयरी मालिकों से यह निवेदन भी किया गया है कि वे शहरों से अपनी डेयरियां बाहर ले जाएं। यहां तक कि सरकार ने उन्हें शहर के बाहर डेयरियों हेतु स्थान भी उपलब्ध कराए हैं। परंतु अपना कारोबार चौपट होने के भय से तमाम डेयरी मालिक शहर से बाहर अपनी डेयरी ले जाने को राजी नहीं हुए। यहां हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि ऐसे डेयरी मालिकों को इसी ढर्रे पर चलने की आदत सी बन चुकी है। तथा उनकी नारों में नालियों व नालों में गोबर आदि का जमना तथा इसके चलते शहरी जल भराव होना या गंदगी अथवा बीमारी का फैलना कोई खास मायने नहीं रखता।

उपरोक्त हालात से कम से कम एक बात तो बिल्कुल साफ हो जाती है कि शहरी जल भराव तथा इसके कारण फैलने वाली गंदगी तथा उन गंदगियों के चलते फैलने वाली बीमारियों को लेकर हमारे ही समाज के तमाम लोग कतई जागरुक नहीं हैं। अफसोसनाक बात तो यह है कि यही लोग अपने अधिकारों की बातें करना तो खूब जानते हैं परंतु अपने कर्तव्यों से मुंह मोड़ना भी उन्हें बखूबी आता है। जाहिर है हमारी सोच व फिक्र का यही दोहरापन हमें उन हालात तक पहुंचने देता है जो अक्सर हमारे ही समाज के लिए किसी बड़े संकट का कारण बन जाती है। यहां तक कि ऐसी परिस्थितियां जानलेवा भी हो सकती हैं तथा महामारी जैसी बीमारियों का कारण भी बन सकती हैं। ऐसे में इस निष्कर्ष पर भी पहुंचा जा सकता है कि आजादी के लगभग 65 वर्षों बाद भी हम अभी तक कर्तव्यों व अधिकारों के मध्य अंतर कर पाने की क्षमता नहीं पा सके। हमें अभी तक यही नहीं मालूम कि नालियों व नालों का क्या काम है और इन्हें व्यवस्थित रखने तथा सुचारू रूप से संचालित होने के लिए आखिर हमारे क्या कार्य हैं। केवल नालों व नालियों के बन जाने मात्र से शहर की ड्रेनेज समस्या का समाधान नहीं हो जाता। बल्कि इसे कचरा मुक्त व निर्बाध रूप से प्रवाहित रखने के लिए इसे आम लोगों के सहयोग की भी सख्‍त जरूरत होती है। नालों व नालियों को कूड़ा घर या कचरा घर समझने के बजाए इसे केवल गंदे पानी की निकासी का स्त्रोत मात्र ही समझना चाहिए।

शहरों व क़स्‍बों में तमाम ग़ैर सरकारी संस्‍थाएं, सामाजिक व धार्मिक संस्‍थाएं आम लोगों की भलाई के लिए तमाम तरह के कल्‍याण संबंधी कार्य करती हैं। मेरे विचार से ऐसी संस्‍थाओं द्वारा आम लोगों को उपरोक्‍त अति प्रारंभिक जानकारी दिए जाने की सख्‍त ज़रूरत है। यह संस्‍थाएं आम लोगों को नालों व नालियों पर किए जा रहे अवैध अतिक्रमण व क़ब्‍जे के विषय में उन्‍हें जागरुक करें कि उनका यह क़दम शहर के लोगों के लिए कितना घातक है। यह संस्‍थाएं आम लोगों को यह बताएं कि पॉलिथीन, प्‍लास्टिक, थर्मोकोल, कांच जैसी तमाम वे वस्‍तुएं जो शीघ्र गलनशील नहीं हैं उन्‍हें हरगिज़ नालों व नालियों में न फेंकें। प्रत्‍येक नागरिक को यह कोशिश करनी चाहिए कि नाली व नाले में केवल जल का ही प्रवाह होता रहे। हमें इन बातों का जवाब इस प्रकार से क़तई नहीं देना चाहिए कि चूंकि अमुक व्‍यक्ति ऐसा कर रहा है, चूंकि हमारा पड़ोसी ऐसा कर रहा है अथवा पूरा शहर ऐसा कर रहा है तो हम भी वही करेंगे। एक जागरुक भारतीय नागरिक बनने के लिए यह ज़रूरी है कि न तो आप स्‍वयं किसी ग़लत रास्‍ते पर चलें और न ही किसी से ग़लत रास्‍ते पर चलने की प्रेरणा लें। बजाए इसके स्‍वयं ठीक मार्ग पर चलें और दूसरों को भी सद्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करें। यही हमारे विकसित राष्‍ट्र तथा हमारे धर्म की बुनियाद है।

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  1. मै आपकी बातों से बिलकुल सहमत हूँ,क्योंकि जब तक हम खुद को नहीं बदलेंगे तब तक ना तो कोई नगरपरिषद बदलेगा,ना कोई नगरपालिका बदलेगी और ना ही कोई सरकार बदलेगी.

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