देरिदा का वायनरी अपोजीशन और तुलसीदास

जगदीश्‍वर चतुर्वेदी

तुलसीदास ने अभिव्यक्ति की शैली के तौर पर रामचरित मानस में वायनरी अपोजीशन की पद्धति का कई प्रसंगों में इस्तेमाल किया है। इस क्रम में रावण और राम दोनों के गुण और अवगुणों की प्रस्तुति को रखा जा सकता है। रावण का राम के प्रत्येक कार्य और अवस्था में विपक्ष में रहना, मन्दोदरी और रावण के विलोम विचारों का होना, उत्तरकाण्ड में रामराज्य और कलियुग का एक ही साथ वर्णन, मजेदार बात यह है कि ज्योंही रामराज्य का वर्णन खत्म होता है उसके ठीक बाद ही कलियुग वर्णन शुरू हो जाता है, वायनरी अपोजीशन की व्यवस्थागत रीडिंग के लिहाज से इन दोनों की तुलना की जा सकती है।

मसलन् रामराज्य में भेदभाव नहीं है। सब लोग अपने-अपने वर्ण और धर्म के बताए मार्ग पर चल रहे हैं, वेदों में बतायी गयी नीति का पालन कर रहे हैं। संसार में कहीं भी पाप के दर्शन नहीं होते। स्त्री और पुरूष सभी रामभक्ति के पारायण में मगन हैं, सभी को मोक्ष मिलेगी, अल्पायु में किसी की मौत नहीं होती, न किसी को कोई पीड़ा है, कोई बीमार नहीं है, सभी लोग निरोग हैं, न कोई मूर्ख है और न कोई शुभ लक्षणों से हीन है। सभी दंभरहित,पुण्यात्मा और धर्मपरायण हैं।

कलियुग में तुलसीदास बताते हैं कि कलियुग में कपट, हठ, दंभ, द्वेष, पाखण्ड, मान, मोह और काम आदि ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो गए हैं। इस तरह कलियुग का वर्णन रामराज्य से एकदम विपरीत दिशा में ले जाता है। यही पद्धति अन्य कई स्थलों पर भी देखने को मिलती है,जहां पर वायनरी अपोजीशन की पद्धति का इस्तेमाल नहीं किया है,वहां पर तुलना का इस्तेमाल करके तुलसीदास ने अपनी बात कही है।सवाल यह है कि वायनरी अपोजीशन की पद्धति का इस्तेमाल कृति में किस तरह की संरचनाओं और अर्थगत तनावों को जन्म देता है।

तुलसी ने इस क्रम में रामराज्य और कलियुग की जो परिकल्पना पेश की है वह परीकथा जैसी है। यही स्थिति वानर सेना की भी है। राक्षसों की सेना की तुलना में शक्तिशाली वानरसेना का रूपायन परीकथाओं की पद्धति को सामने लाता है। वायनरी अपोजीशन, मिथक और फैण्टेसी इन तीन तत्वों से बने मॉडल का प्रयोग रामचरित मानस को आकर्षक और अविस्मरणीय बना देता है।

तुलसी ने विचार के विकास का प्रगतिशील रास्ता चुना है और उसी दिशा में अग्रसर हुए हैं। लेवीस्त्रास के शब्दों में कहें तो मिथकीय विचार हमेशा जागरूकता के विलोम के रूप में कार्य करते हैं, वे प्रगतिशील सेतु का काम करते हैं।

मिथकीय मॉडल का मकसद है अन्तर्विरोधों को कम करना है। ‘‘माइथोलॉजी’’ में एक जगह लेवीस्त्रास ने ‘वायनरी ऑपरेटर’ नामक उप अध्याय में लिखा है कि सभी किस्म का वायनरी अपोजीशन मिथत्व है। यह असल में मिथ की बुनियादी यूनिट ही है। ”सभी किस्म का मिथत्व, चाहे वह कैसा भी हो, सामान्य तौर पर देखें तो वायनरी अनोजीशन पर आश्रित होता है। वह विचार और भाषा की भूमिका अदा करता है।

वायनरी अपोजीशन में चीजें पेश करते समय व्यवस्था के क्रम को हमेशा ध्यान में रखा जाता है।इसी क्रम में लेखक अपने लेखन का फार्मूला बनाता है।चीजों को क्रम से पेश करता है,वह धारावाहिकता के फॉर्म को सतही बनाता है।

रामराज्य या कलियुग, राम या रावण आदि मिथों को पेश करते हुए तुलसीदास उसे भाषा में पेश करते हैं। भाषिक संदर्भ में जब मिथ आता है तो अन्य मिथ के संदर्भ में अपनी बात कहता है। मिथ जब भाषिक रूप में व्यक्त करता है तो पहले तो वह भाषिक पदबंध के स्तर पर अपने को संगठित करता है, मिथ के अर्थ को आत्मसात करता है, यदि भाषिक पदबंध में निहित कहानी में प्रवेश किया जाए तो पाएंगे कि वहां कहानी का मनमाने ढ़ंग से संगठन किया गया है।

भाषिक संरचना में प्रस्तुत मिथ वस्तुतः आधार के क्रम को ही व्यक्त करता है। तुलसी जब वायनरी अपोजीशन में मिथ की सृष्टि करते हैं तो तुलना के तत्व का इस्तेमाल करते हैं, इस क्रम में मिथ से जुड़ी संस्कृति का हवाला देते हैं। कभी उनका मिथ प्रेरक होता है, कभी प्रेरक नहीं बन पाता।

रामचरित मानस में राम और रावण का मिथकीय वायनरी अपोजीशन दो प्रमुख और ताकतवर के बीच का अपोजीशन है। रामचरित मानस के बारे में सभी एकमत हैं कि यह एक लोककाव्य है,रामकथा लोक कथा है। इसमें कुछ कच्चा माल है, कुछ कल्पना है, कुछ मिथ है और कुछ स्तर ऐसे भी हैं जहां मनोविज्ञान का इस्तेमाल किया गया है।

मसलन् बालकांड में बच्चे के मनोविज्ञान खासकर परिपक्व बच्चे के मनोविज्ञान के दर्शन होते हैं। राम कथा का लोक मिथ समूचे रामचरित मानस को एक सूत्र में बांधता है। यहां अन्तस्संबंधों को व्यवस्था या सिस्टम के रूप में काम करता दिखाई देता है। तुलसीदास ने मिथ का अभिव्यक्ति के लिए इस्तेमाल इसलिए किया क्योंकि उस समय व्यक्ति मिथों में ही सोचता था। व्यक्ति के मन में मिथ कैसे सक्रिय रहता था इस तथ्य के प्रति वे अनभिज्ञ थे।

तुलसीदास के मिथ की खूबी यह है कि आप उसका अनालोचनात्मक ढ़ंग से आनंद ले सकते हैं और आलोचनात्मक ढ़ंग से भी आनंद ले सकते हैं। यह स्थिति इसलिए है कि लोग उसे वैसा ही महसूस करते हैं। रामचरित मानस के वाक्य किसी के लिए अर्थहीन लग सकते हैं, किंतु ऐसे भी लोग मिल जाएंगे जिनके लिए वे सत्य वाक्य हैं,अर्थपूर्ण वाक्य हैं, आस्था के वाक्य हैं, जीवंत अनुभव का हिस्सा हैं।

जब आप रामचरित मानस जैसे मिथक काव्य पर लिखते हैं तो मिथ की तरह लिखते हैं,मिथ के आवेश, प्रभाव, बचाव, आस्था, संवेदना आदि में डूबकर लिखते हैं। यानी मिथ पर लेखन स्वयं में ही एक मिथ है।

तुलसी के मिथकीय पात्र मजबूत हैं, कहानी भी पुख्ता है। उनके यहां मिथ लोककथा के जरिए अभिव्यक्ति पाता है। इस क्रम में मिथ,लोककथा और फैण्टेसी के आकर्षक संबंध की सृष्टि होती है। तुलसी अपनी समूची प्रस्तुति में मिथ को मिथ ही रहने देते हैं, उसे सत्य समझने की भूल नहीं करते। वे मिथ और लोककथा में फ़र्क नहीं करते। हिन्दी आलोचना की मुश्किल यह है कि रामचरित मानस में मिथ और लोककथा को अलग करके मूल्यांकन नहीं किया गया है। अधिकांश आलोचना मिथ में ही डूबी रही है। कुछ ऐसे भी सिरफिरे हैं जो मिथ को सत्य मान बैठे हैं। रामचरित मानस की सबसे जटिल समस्या है मिथ से लोककथा को अलग करने की। हमें इसकी तहकीकात करनी चाहिए कि इसमें लोककथा कहां हैं।

राम कथा में लोककथा का भाव एकजुटता बनाए रखने,एकजुट होने का संदेश देता है,वानरों की खूबी है कि वे एकजुट हैं, जबकि राक्षसों में ऐसा नहीं है। संदेश यह है कि यदि हम एकजुट होते हैं तो विजयी होंगे, विभाजित होते हैं तो पराजित होंगे।यह संदेश ऐसे समय में प्रसारित किया गया जब भारत पहलीबार सम्राट अकबर के शासन में राष्ट्र के रूप में एकजुट हो रहा था।

इसी तरह राम को भगवान बनाया है,रावण को मनुष्य। इस तरह भगवान और मनुष्य (राक्षस) की लड़ाई को सामने रखा गया है। भगवान बनाम मानव अथवा देवता बनाम दानव के संघर्ष में यदि कथानक को पेश किया जाएगा तो भगवान या देवता को जीतना है,राक्षस अथवा मानव को हारना है।यह वायपरी अपोजीशन का लोककथा वाला तत्व है जो रामचरित मानस में है। इसीलिए कहा जाता है मिथ को मिथ के जरिए जानना असंभव है।

1 COMMENT

  1. “वायनरी अपोजीशन की पद्धति” को समझने के लिए कई-कई बार अपन जैसे लोगों को पढ़ना होगा. वास्तव में आ. चतुर्वेदी जी का लेखन विद्वता की पराकाष्ठा है. तुलसी ने तो वास्तव में स्वान्तः सुखाय लिख इसे जन-जन तक पहुचाया. लोकभाषा में, सरल और सपाट शब्दों में लिखे गए इस ग्रन्थ को उसके सरलत्व के कारण ही जन-जन तक पहुचना संभव हो पाया. देरिदा के ‘मानस’ को समझना भले ही कठिन है, लेकिन अगर पाश्चात्य चश्मे से ही हम चीज़ों को देखना चाहें तो ‘फादर कामिल बुल्के’ के तुलसी के राम को समझना ज्यादा आसान है. यह जानना अपने आपमें दिलचस्प है कि किस तरह बेल्जियम में बैठे किसी पाठक को ‘सुरसरि सम सबके हित होई’ जैसी पंक्तियाँ भारत तक खीच लाता है, और उसके बाद उस अध्येता का जीवन ना केवल राम अपितु हिन्दी को भी समर्पित हो जाता है…..! अस्तु…अपने लेखन से हम जैसों को अनुग्रहित करते रहें सर….यही निवेदन.

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