घटते सामाजिक मूल्यों के जिम्मेदार हम तो नही?

रामस्वरूप रावतसरे

हमारा संस्कार युक्त भारतीय समाज अपराधवृति प्रकार हो गया है । जिस किसी की भी बात सुनों वह अपराध की ही बात करेगा। जिस किसी भी पत्र पत्रिका या टीवी चैनल को देखों, उसमें भी सबसे पहले अपराध युक्त समाचारों का ही बोल बाला मिलेगा ।

एक अनुमान के अनुसार देश में प्रति दिन 59 बलात्कार, 92 अपहरण ,62 लूटपाट की वारदाते ,888 चोरी की वारदाते होती है यह आंकडा पुलिस थानों में दर्ज होने वाली रिर्पोट के आधार पर है। लेकिन शायद इससे भी अधिक आपराधिक घटनाएं होती है जो किन्ही कारणों से दर्ज नही हो पाती है या दर्ज नही की जाती ।

समाज में दिन प्रतिदिन बढ रही अपराध की घटनाओं को लेकर अलग अलग व्यकित अलग अलग कारण बताते है। कुछ का तो कहना है कि यथा राजा तथा प्रजा यानि जब देश की लोकसभा में ही 123 सांसद दागी होगे तो कानून व्यवस्था एवं प्रजा की किस प्रकार की स्थिति होगी, सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है। कुछ लोगों का मानना है कि लोगो में सामाजिकता की भावना का अभाव हो गया है वे अपनी मस्ती में ही मस्त रहना चाहते है उन्हें समाज में होने वाली किसी भी घटना से कोर्इ सरोकार नही है ।

कानून के जानकार लोगों का कहना है कि हमारी संवैधानिक स्थिति इस प्रकार की है कि वकीलों के माध्यम से अपराधी कानूनी खामिओं का लाभ लेकर आसानी से बच निकलते है। इन सब के साथ समाज में आर्थिक असमानता से विकृत होती मानसिकता ने भी अपराध को आधार मान कर सुख सुविधा को पाने की ललक बढी है । क्या हमारी शिक्षा और व्यवहार ही ऐसा हो गया है कि अपराधवृति हमारे जीवन का अंग सा बनती जा रही है? लेकिन यदि हम अपने घर को आधार मान कर चले तो शायद सारी स्थिति अपने आप स्पष्ट होती चली जावेगी। बच्चा जब चार पांच साल का होता है तब मां बाप उसमें उन सारी बातों को देखने की इच्दा रखते है जो एक 15 साल के बच्चे में होनी चाहिये ।

बच्चा जब उनकी इच्छा के अनुसार हरकतें करता है तो वे लोगों के सामने अपने आपको गौरवानिवत महसूस करते है। हम आधुनिकता का लबादा ओढे बचपन में बच्चे को बडों के आगे प्रणाम करना या पैर छू कर आशीर्वाद लेने की बाते नहीं सिखा कर हाय हैलों या हवा में किस्स करना या फिर किसी ना किसी बात का विरोद्ध करना सिखाते हैं। बचपन में सिखार्इ गर्इ ऐसी हरकतें ही आगे चलकर बच्चे की आदतों में सुमार हो जाती है । बचपन में ही बच्चे से बडी बडी बातों की अपेक्षा करना ही माता पिता की भूल तब सामने आती है जब बच्चा बडा होने पर उनके ही खिलाफ बोलने या बगावत करने पर उतर आता है ।

बच्चा ज्यों ज्यों बडा होता जाता है उसमें समझ भी बढती जाती है । समझ उसी रास्ते की ओर बढती है जिस रास्ते का अनुभव बचपन में मांता पिता करवाते है । बच्चा बडा होकर छोटे बडे की समझ और संस्कारों की बात भूल कर असमय उपजी स्वार्थ की भावनाओं के सहारे प्रथम तो किसी प्रकार की सकारात्मक सोच को रखता नही है और रखता भी हे तो अपने स्वार्थो को पूरा होने तक की। शायद यहीं से वह उस छोटे रास्ते को अपनाता है

पहले संयुक्त परिवारों में जो कुछ भी आता था या जैसी भी सुविधा होती थी उसे बिना किसी नुकताचीनी के घर के सभी लोगों द्वारा स्वीकार कर लिया जाता था । छोटे बडों में रह कर बच्चे का मानसिक विकास होता था । लेकिन जब से परिवारों का स्वरूप पति पत्नी तक आकर सिमटा है और बाजार घरों मे और घर बाजारों में हो गये है तब से पारीवारिक सम्बन्ध भी बाजार के मोल भाव तथा खरीद फरोख्त की तरह हो गये है। अब यदि परिवार का मुखिया परिवार के लोगों की तमाम जरूरतों को बिना किसी उफ या आह किये पूरा करता है तो वह परिवार के सदस्यों के लिये सामाजिक तोर पर बने रिस्ते के अनुरूप बैठता है और यदि नही तो, घरों में बाजार वाद की अवधारण हर छोटे बडे सदस्य के श्री मुख से उच्चारित होना शुरू हो जाती है ।

जिस घर में सदस्यों के बजाय साधनों को अधिक महत्व दिया जाता है । वहां शांति पूर्ण तन्मयता के नही होकर तनाव पूर्ण शांति होती है । यही कारण है कि आज किसी भी छोटे बडे व्यकित या औरत को देखों, वह थोडी देर तो ठीक ठीक बात करेगा । उसके बाद उसका स्वंय पर भी कन्ट्रोल नही रहेगा । फिर चाहे उसके हित की ही बात करो पर उसे गलत ही लगेगी । इन सब बातों से यह नही लगता कि हम स्वंय अपराधवृति को बढावा देने में लगे है ।

1 COMMENT

  1. वस्तुतः आज मानसिकता ही बदल गयी है,जरूरत सोच को बदलने और समझने की है

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here