हम नज़रबन्द हो गये हैं !

कीर्ति दीक्षित
chatting
वो बेधड़क हंसी! वो मुहल्लों की चुगलियां ! वो आपसी संवाद ! सब आश्चर्यसूचक चिन्ह के भीतर के कथन हो गये हैं । खासकर शहरी जीवन में, अब दिल्ली को ही ले लीजिए कभी आप मेट्रो में यात्र कीजिए तो उम्र कुछ भी हो लेकिन तनाव में डूबे चेहरे और टच फोन पर चलती उंगलियां ही दिखाई देती हैं, एक दिन मेट्रो पर सफर करते हुए मैं सबके चेहरे ही देख रही थी, सबके सर फोन पर झुके हुए, ऊंगलियां चलती हुईं, मैने अपने बगल में बैठी महिला से पूछा, क्या आप हंसी को पहचानती हैं, तब उसे पहले तो एक मिनट सोचने में लगा और फिर मुस्कराई। इस पूरी प्रक्रिया में संभवतः जो उनका आन्तरिक क्रियाकलाप हुआ वो कुछ ऐसा हुआ होगा, व्हाट हंसी?, फिर मस्तिष्क में बिजली दौड़ी होगी और प्रश्न किया होगा, हू इज हंसी ? तब याद आया, ओह हंसी, फिर उत्तर मिला छोटी सी स्माइल याद रखिए स्माइल नॉट हंसी ।
तकनीक ने जितनी सहजता प्रदान की है, उतनी ही अनकही दरारें हमारे जीवन में भर दी हैं । जब टेलीविजन आया क्या बात है सभी परिवार साथ में बैठ के टीवी देखते थे, दूरदर्शन ही था, कार्यक्रमों का समय निश्चित था तो हमारे सामाजिक जीवन का थोड़ा सा समय चुराया, फिर भी हंसी ठहाकों के जीवन पर कोई खतरा नहीं आया क्योंकि ये शुरूआती उपक्रम प्रायः खतरनाक नहीं होते किन्तु खतरे का आरम्भ अवश्य होते है ।
टीवी के दायरे बढ़े और समय गया, अब अपने अपने कमरों में टेलीविजन होने लगे । अब सामाजिकता के पर ही कतर दिये जो समय पड़ोसी के साथ हंसने में दिया करते थे वो अब टीवी को देने लगे, अब हंसने का ठेका टीवी कलाकारों को मिल गया, आप केवल उन हंसते चेहरों को देखिए, आपका रहा सहा हंसने का अधिकार गया, फिर भी घर की सब्जियां, बैंक, डाकघर, बाजार जैसी जगहों ने सामाजिकता को जिन्दा रखा, लोग आपस में सुबह शाम ही सही मिलते बात करते रहे । कम से कम एक दूसरे को पहचानते, आते जाते राम राम हो जाती, सुख दुख की बातें हो जातीं ।
किन्तु एक ओर क्रान्ति आई ऑन लाइन मार्केट ये वो न्यायालय बनके आया जिसने आपकी स्वेच्छा से ही आपको आपके घरों में नज़रबन्द कर दिया आप कब अपने घर के अहाते में कैद हो गये आपको पता ही नहीं चला । कपड़ों तक ठीक था अब ज़नाब सब्जी से लेकर घर का राशन पानी भी आपके घरों मे हाजिर बस एक क्लिक कीजिए । अब आपका समाज आपके कमरे की चारदीवारी में सिमट गया है, और हम खुश हैं वाह कितना विकास कर गये । हम फेसबुक ट्विटर पर सारी दुनिया को जानते हैं लेकिन आपके घर के सामने कौन रहता है नहीं जानते, ये तो फिर भी दूर की बात है आपके घर के आँगन में कौन आया है इससे भी कोई सरोकार नहीं रहा । फलस्वरूप अब मनुष्य को मनुष्य के प्रति आत्मीयता नहीं रही जिसके परिणाम हम आए दिन होने वाली घटनाओं में देख रहे हैं, लड़ाई झगडे बढाती वैमनस्यता, इस तकनीक ने किसी को जानने का अधिकार आपसे छीन लिया ।
फिलहाल ये नज़रबन्दी का रोग बड़े शहरों को अपनी चपेट में पूरी तरह ले चुका है, अब यह छोटे कस्बों से लेकर गांवों तक अपने पैर फैला ले उससे पहले तकनीकी को अपने पर हावी होने से रोक दें तो शायद समाज का मूल अर्थ, मूल चेहरा बचा रह सकता है ।
कदाचित लोग ये भी कहें कि मैं तकनीकी विरोधी हूँ, तो ऐसा कदापि नहीं मैं भी इससे मुक्त नहीं यद्यपि मैं इस अति की विरोधी अवश्य हूँ । अगर याद हो तो बचपन के दोहों में अति को अच्छे से समझाया था ‘अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप, अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप’ । तकनीकी का विकास अच्छा है बहुत अच्छा है, एवं किसी भी देश की उन्नति के लिए तकनीकी विकास भी उतना ही आवश्यक है परन्तु क्या सामाजिक जीवन की आहूति देना आवश्यक है । पृथ्वी पर ं जो भी है, होता है, या होगा वह सब कुछ अच्छे बुरे के संयोजन के साथ होता हैै, अब ये हम पर निर्भर है कि हम उस वस्तु का प्रयोग किस सीमा तक करते हैं, दूसरे तौर पर कहें तो सीमाओं को पहचानना अनिवार्य है । आप स्वयं का आंकलन करिए तो जानेंगे तकनीकी के अति प्रयेाग ने आपको किस हद तक आपके घर की चारदीवारों भर का बना कर रख दिया है, आपका समाज इसी चारदीवारी में सिमट गया है। याद कीजिए कितने दिन पहले ठहाका लगाया था आपने? अगर तकनीकी आपके हमारे जीवनों पर ऐसी ही सवार होती रही तो, वह दिन भी दूर नहीं जब बच्चे हंसी के विषय में किताबों पढे़ंगे, आपसे ठहाकों की परिभाषा पूछेंगे । हंसी का विस्फोट जीवन है, खुशी का त्योहार जीवन है, अपने घरों की दीवारों से सिर बाहर निकालकर, अपने फोन पर झुकी आंखों को उठाकर देखिए, समाज आज भी उतना ही खूबसूरत है, उसे आज भी आपकी हमारी सभी की जरूरत है । किसी पार्क में जाकर बनावटी हंसी का अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं रहेगी । जीवन को आनन्द का त्योहार बनाइए, नज़रबन्दी की कैद नहीं ।

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