अब आगे देखेंगे हम लोग : व्यंग्य – अशोक गौतम

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vikramarkधुन के पक्के विक्रमार्क से जब रामदीन की पत्नी की दशा न देखी गई तो उसने महीना पहले घर से बाजार आटा दाल लेने गए रामदीन को ढूंढ घर वापस लाने की ठानी। रामदीन की पत्नी का विक्रमार्क से रोना नहीं देखा गया तो नहीं देखा गया। ये कैसी व्यवस्था है भाई साहब कि जो अब राजा राजा नहीं है वह तो प्रजा के आंसू पोंछ राज धर्म निभाने के लिए आतुर है और जो प्रजा के वोट मार कर सत्ता पर कुंडली मार बैठे हैं वे जनता के रोने को राग हंसोड़ मान फाइव स्टार होटलों में रात रात भर कालगर्लों के साथ झूमे जा रहे हैं, न सात फेरे लगा कर लाई बीवी की चिंता न जवान होती बेटियों की।

आखिर अपना वचन निभाते हुए विक्रमार्क ने बाजार से आटे दाले के चक्कर में खाली झोला टूटे कंधे पर लटकाए आटे दाल को घूरते महीने से घर से गायब हुए रामदीन के पंजर को लाखों करोड़ों में पहचान पकड़ा और उसे कंधे पर डाल उसके घर की ओर चल पड़ा,’ यार तू यहां इतने दिनों से बैठा है और तेरी बीवी बच्चों ने तेरे बिना घर में रो रोकर बुरा हाल कर रखा है। क्या तुझे अपनी बीवी बच्चों की भी चिंता नहीं? पता है तेरे बिना तेरी घरवाली के पुलिस स्टेशन के चक्कर लगाते लगाते चप्पल तो चप्पल पांव के तलवे भी घिस गए। पर तेरी गुमशुदगी की रिपोर्ट थाने में तब भी दर्ज नहीं हुई।’

‘है विक्रमार्क है। मुझे सभी की चिंता है। तभी तो इस आस में बाजार में डटा था कि शायद आटा दाल सस्ते हो जाएं। सरकार को जनता पर तरस आ जाए और मैं कुछ घर ले जाकर पति और बाप का फर्ज निभा सकूं। उनके सामने छाती चौड़ी कर खड़ा हो परिवार का मुखिया होने का दावा कर सकूं। पर तूने मुझे ऐसी दशा में घर ले जा कहीं का न छोड़ा। अब न तो मैं पत्नी की नजरों में आदर्श पति ही रह पाऊंगा और न ही बच्चों की नजरों आदर्श बाप। बेहतर हो कि तू मुझे मरने दे।’

‘देख रामदीन! यह व्यवस्था का सच है कि गंगा को गए हाड जैसे वापस नहीं आते वैसे ही बढ़ी महंगाई कभी वापस नहीं आती। रही बात मरने की तो मरने की भी मत सोच! मरने में नही, जीने में ही समस्याओं का समाधान है। इस अपराध बोध को छोड़। इस देश में ऐसा बाप, पति एक तू ही नहीं। हजारों हैं। तेरी अपराध बोध की भावना को खत्म करने के लिए मैं तुझे एक कथा सुनाता हूं। सुन! इससे तेरी भूख भी मिट जाएगी और बेकार की अपराध बोध की भावना भी। और हो सकता है कि तू जाग भी जाए।’ कह विक्रमार्क ने महीने से भूख से पिचके पेट वाले रामदीन का पेट कहानी से भरना शुरू किया,’ आजादी के बाद उस देश में राजाओं के राज खत्म हुए और लोकतंत्र आ गया। जनता को लगा कि ये उसका राज है। वह गुनगुनाने लगी। वोट डालने जाती तो पचास ग्रामी जनता मनों भारी होकर। धीरे धीरे जनसेवक धन सेवक होने लगे। शुरू शुरू में जनता चीखी, पर उससे हुआ कुछ नहीं। उसने सरकार बदल दी। सबक सिखाने के लिए। खानेवाले दूसरे आ गए। जनता फिर परेशान। बस चुनाव का इंतजार करती रहती । धीरे धीरे उस देश की जनता ने जनसेवकों के बारे में सोचना ही छोड़ दिया।

अब जो भी जनता की सेवा करने का ढोंग रचता जीत जाने के बाद बिना किसी डर के अपना घर भरता। कारण, उसे पता होता कि अगली बार जनता उसे चांस नहीं देगी। इसलिए जब तक सत्ता में है जितना हो सके खा लो। रस्म अदायगी के लिए हो हल्ला होता। भूतपूर्व होते ही उनके अभूतपूर्व घोटाले सामने आते। जो जन सेवक नंगा जीत कर जनता की सेवा करने आता तो अगले चुनाव तक अरबों जोड़ कर भूतपूर्व से अभूतपूर्व हो बेकार के डर से डर कर अस्पताल में भर्ती हो जाता। मसाला बेचने वालों को मसाला मिल जाता और सरकार को जनता को उलझाने का टोटका। अब तू ही बता रामदीन! जिस देश में जनसेवक धनसेवक हो जाएं वहां की जनता कितने दिन जिएगी? संपत्ति की मौज उसका सुख भोगने में है या अपनी ही जोड़ी संपत्ति से डर कर अस्पताल में बीमारी का नाटक कर लेटने में?’

तब रामदीन ने अपना महीने से थूक सूखा गला जबरदस्ती साफ करते कहा,’हे विक्रमार्क! अजीब बात है। जो भी आज तक तुम्हारे कंधे पर चढ़ा तुम्हे कहानी सुनाता रहा और आज तुम मुझे कंधे पर भी उठाए हो और कहानी के बहाने मेरे लोकतंत्र का सच भी बता रहे हो। महीनों से भूख से बेहाल रामदीन तुम्हारे प्रश्न के उत्तर दे तो कैसे? मुझसे तो भूख के मारे खड़ा तक नहीं हुआ जा रहा।’ विक्रमार्क ने तनिक रूक कर घुप्प अंधेरे में वहीं रामदीन को अपने कंधे से उतारते कहा,’जीना है तो खड़े होना सीखो। ऐसे। जीना है तो अपने पांव पर चलना सीखो। ऐसे, हां ऐसे!’ रामदीन को क्या अब हिम्मत करनी चाहिए? यही देखेंगे अगले एपीसोड में हम लोग।

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