-सतीश सिंह
आज भी यूनियन कारबाइड इंडिया के कारखाने के पास जहरीले रसायन की मौजूदगी से इंकार नहीं किया जा सकता है। लिहाजा सबसे बड़ी चुनौती भोपाल में मौजूदा पीढ़ी के पुनर्वास को लेकर है, लेकिन पुनर्वास कार्यक्रम बंद हो चुका है। कारण से कोई भी अवगत नहीं है। मुआवजा से प्रभावित लोग अब भी महरुम हैं और बिचौलिए मुआवजा की राशि से ऐश कर रहे हैं, फिर भी इस पर रोक लगाने के लिए किसी तरह की कोई कारवाई नहीं की जा रही है।
पीड़ितों को चिकित्सा सहायता उपलब्ध करवाने के लिए भोपाल मेमोरियल अस्तपताल का निर्माण करवाया गया था, किंतु वहाँ भी आज कालाबाजारी का माहौल गर्म है।
इन सबके बीच विष्व की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना, जिसमें 15000 से अधिक लोग मारे गए थे के 26 साल के बाद तथाकथित दोषियों को नाममात्र की सजा अदालत द्वारा मुर्करर करना सचमुच हताशाजनक है। दूसरे शब्दों में कहें तो अदालत का यह निर्णय पूरी न्याय व्यवस्था पर सवालिया निशान लगाता है।
ज्ञातव्य है कि अदालती फैसले में यूनियन कारबाइड इंडिया के पूर्व अध्यक्ष केशव महिंद्रा सहित 7 लोगों को दो-दो सालों की सजा सुनाई गई है।
भोपाल गैस त्रासदी के शिकार हुए एक मरे बच्चे की दिल दहलाने वाली तस्वीर खींचने वाले फोटो पत्रकार पाबलो बोर्थोलोम्यू का कहना है कि अदालती फैसला सिर्फ ढोंग का पर्याय है। उल्लेखनीय है कि आधे दपनाये हुए बच्चे की खींची हुई तस्वीर पर श्री बोर्थोलोम्यू को 1984 का वर्ल्ड प्रेस फोटो ऑफ द ईयर के पुरस्कार से नवाजा गया था।
अदालती फैसले से इसलिए ज्यादा अफसोस हो रहा है, क्योंकि अदालत को अच्छी तरह से मालूम था कि यूनियन कारबाइड इंडिया के कारखाने में सुरक्षा के मानकों का पालन नहीं किया जा रहा था। पूर्व में भी उस कारबाइड के कारखाने में गैस लीक हो चुका था। सुरक्षात्मक उपायों को लागू करने की चेतावनी भी दी जा चुकी थी। बावजूद इसके चेतावनी को दरकिनार करते हुए कारखाना को चलाया जा रहा था। इस घटना के बाद हमारे नेताओं को जरुर फिर से एक बार सिविल न्यूक्लियर बिल को भारत में लागू करने पर विचार करना चाहिए।
बड़ी चालाकी से कानून की आड़ लेते हुए नेता, कारपोरेट बिजनेस हाउस और पुलिस-प्रशासन के गठजोड़ ने भारत से एंडरसन को भगा दिया। किसी एक को इसके लिए दोषी ठहराना गलत होगा। सच कहा जाए तो एंडरसन को भगाया जाना पूरी व्यवस्था का फेल होना है।
हालिया अदालती फैसले के बाद एक आम आदमी के लिए अदालत पर विश्वास करना मुश्किल होगा। दूसरी संस्थाओं की विश्वसनीयता भी कम हुई है। पुलिस और प्रशासन उनमें से एक है, पर हाल के वर्षों में अदालतों की छवि सबसे ज्यादा खराब हुई है। सर्वोच्च न्यायालय उनमें से एक है।
संपत्ति को घोषित करने के मामले में सर्वोच्च न्यायलय के न्यायधीशों की आनाकानी हाल ही के दिनों में एक गंभीर मसला रहा है। भ्रष्टाचार को साधने में भी सर्वोच्च न्यायलय असफल रहा है। पारदर्षिता का अभाव अभी भी सर्वोच्च न्यायलय में है। न्यायधीशों की नियुक्तियों और स्थानातंरण में भारी अनियमितता आये दिन देखने को मिलती है।
इस तरह से देखा जाए तो आज भारतीय न्याय व्यवस्था आंतरिक कमजोरियों से जूझ रहा है। भोपाल के पीड़ितों को न्याय नहीं दिला पाना मात्र अदालती कमजोरी का पर्याय है।
सतीश जी सही कह रहे है.
कमजोर न्याय व्यवस्था और सालो चलती क़ानूनी कर्व्यवाही ही हमारे देश की सारी समस्या की जड़ है. आज पूरी न्याय व्यवस्था को बदलने या कम से कम गंभीर समीक्षा की जरुरत है.