आगे कुंआ पीछे खाई’ की स्थिति में पाकिस्तान

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तनवीर जाफरी

पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद के करीब एबटाबाद में हुए अमेरिकी सील कमांडो के आपे्रशन जेनोरिमो के बाद न सिर्फ पाकिस्तान व अमेरिका के मध्य रिश्तों में गहरी दरार पैदा हुई है बल्कि एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन की मौजूदगी की ख़बर से पूरी दुनिया में पाकिस्तान का आतंकवाद के प्रति वास्तिवक रवैया भी उजागर हुआ। पाकिस्तान ने दुनिया की नज़रों में अपनी विश्वसनीयता भी लगभग समाप्त कर दी है। क्योंकि एक ओर तो वह आतंकवाद के विरूद्ध अमेरिका द्वारा घोषित युद्ध में अमेरिका के साथ खड़ा दिखाई दे रहा था, आतंकवाद के विरूद्ध लडऩे के नाम पर अरबों डॉलर की रकम अमेरिका से ऐंठ रहा था तो दूसरी ओर इन्हीं पैसों का दुरूपयोग कर लाडेन व अलक़ायदा के तमाम सहयोगी संगठनों व नेताओं को संरक्षण भी दे रहा था।

लादेन की मौत के बाद आज भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सैकड़ों आतंकवादी व मोस्ट वंटेड अपराधी पाकिस्तान में शरण लिए बैठे हैं। पाकिस्तान में आतंकवादियों को कितनी सुरक्षा व कितना संरक्षण मिलता है इस बात का अंदाज़ा अभी चंद दिनों पूर्व ओसामा बिन लाडेन की पत्नी द्वारा दिए गए उस बयान से भी हो जाता है जिसमें उसने साफ तौर पर यह स्वीकार किया है कि ओसामा बिन लादेन कई वर्षों से पाकिस्तान की सीमाओं के भीतर सुरक्षित रह रहा था।

लाडेन के विरूद्ध 2 मई 2011 को एबटाबाद में की गई अमेरिकी कार्रवाई को लेकर पाकिस्तान व अमेरिका के मध्य रिश्ते बिगडऩे जैसी नौबत का आ जाना अपने-आप में स्वयं इस बात का सुबूत है कि पाकि स्तान अमेरिका को पाकिस्तान में लाडेन की मौजूदगी को लेकर अपनी अनभिज्ञता का सुबूत नहीं दे पाया। कहा जा सकता है कि कम से कम इस पूरे प्रकरण में भारत की तो कोई भूमिका नहीं थी। लिहाज़ा इस पूरे घटनाक्रम का जि़म्मेदार वहां की सेना, सरकार तथा वहां के हुक्मरानों की नीतियों को ही ठहराया जा सकता है। हां पाकिस्तान ने एबटाबाद की अमेरिकी कार्रवाई को अपने देश की संप्रभुता पर हमला करने का बहाना बनाकर अमेरिका से नाराज़गी का एक दूसरा बहाना ज़रूर तलाश लिया।

नि:संदेह अमेरिका की या किसी भी देश की इस प्रकार की कार्रवाई किसी भी देश की संप्रभुता पर हमला ज़रूर है। परंतु बात जब आतंकवाद के विरूद्ध युद्ध की हो और मामला ओसामा बिन लाडेन जैसे दुनिया के सबसे बड़े दहशत गर्द से जुड़ा हो तो राष्ट्र की संप्रभुता का बहाना ज़रा कमज़ोर दिखाई देता है। इस घटना के लगभग एक वर्ष बीत जाने के बावजूद अभी तक पाकिस्तान दुनिया को यह नहीं समझा सका कि पाक सरकार,सेना तथा वहां की आई एस आई की नज़रों से बचकर लाडेन पाकिस्तान में रह रहा था।

और अब एक बार फिर पाकिस्तान को उसी प्रकार की असहज स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। पाकिस्तान में सरेआम घूम-घूम कर अमेरिका व भारत के विरूद्ध ज़हर उगलने वाले कुख्यात प्रतिबंधित संगठन जमात-उद-दावा के प्रमुख हाफ़िज़ सईद को अमेरिका ने इश्तहारी मुजरिम बनाते हुए उस पर एक करोड़ डॉलर का इनाम घोषित कर दिया है। उसके साले अबदुल रहमान मक्की पर भी दस लाख डॉलर का इनाम रखा गया है। इन दोनों के अतिरिक्त भी पाकिस्तान में ही मौजूद इनके कई अन्य साथी आतंकी सरगनाओं को अमेरिका ने अपनी इश्तहारी मुजरिमों की सूची में शामिल किया है। इस अमेरिकी घोषणा के बाद हाफ़िज़ सईद व पाकिस्तान सरकार दोनों के स्वर लगभग एक जैसे हो गए हैं। दोनों एक साथ एक सुर से इस अमेरिकी घोषणा को गलत, गैऱक़नूनी तथा अवैध बता रहे हैं।

हाफ़िज़ सईद व पाकि स्तान सरकार दोनों का ही कहना है कि अमेरिका के पास हाफ़िज़ सईद के किसी आतंकवादी घटना में शामिल होने उसमें सज़ा पाने और सज़ा काटने से बचते हुए फरार हो जाने जैसे कोई सुबूत नहीं हैं। हाफ़िज़ सईद आतंकवाद को बढ़ावा देने के आरोपों से तो स्वयं को बचाता ही है, साथ-साथ वह अपने आप को एक महान समाजसेवी के रूप में भी प्रचारित करता है। उसका कहना है कि पाकिस्तान में तमाम स्कूल मदरसे,अस्पताल व कई प्रकार के सामाजिक हितों से संबंधित संस्थान संचालित करता है। इस प्रकार वह स्वयं को जनसेवक बताता है न कि आतंकवादी।

हाफ़िज़ सईद भले ही किसी अपराध या आतंकवाद की घटना में स्वयं शारीरिक रूप से न भी शामिल हुआ हो तो भी वह आम मुसलमानों को भावनात्मक रूप से अमेरिका भारत तथा गैऱ मुस्लिमों के विरुद्ध नफरत फैलाने व इनके विरूद्ध भडक़ाने का सबसे बड़ा दोषी है। उसी का सिखाया,पढ़ाया व पोषित किया हुआ 26/11 के मुंबई हमलों का एकमात्र जीवित गुनहगार अजमल क़साब स्वयं हाफ़िज़ सईद की मुंबई हमलों में सरपरस्ती व संलिप्तता की बात स्वीकार कर चुका है। वैसे भी सार्वजनिक रूप से जनसभाओं में हाफ़िज़ सईद कई बार यह कहते सुना गया है कि जब अमेरिका अफगानिस्तान में हमसे नहीं लड़ सका तो भारतीय सेना हमसे क्या लड़ पाएगी। बड़ा आश्चर्य होता है जब पाकिस्तान की सरकार हाफ़िज़ सईद जैसे मानवता विरोधी के पक्ष में खड़ी नज़र आती है।

हाफ़िज़ सईद केवल अमेरिका, भारत या गैर मुस्लिमों का ही दुश्मन नहीं बल्कि वह पाकिस्तान,भारत-पाक रिश्तों, वहां की अवाम, इस्लाम तथा मुसलमानों का भी उतना ही बड़ा दुश्मन है। पिछले दिनों जब पाकिस्तान ने भारत को एमएफएन (मोस्ट फेवर्ड नेशन)का दर्जा देने की घोषणा की उस समय भी पाकिस्तान सरकार के इस फैसले के विरुद्ध हाफ़िज़ सईद अपने सहयोगी संगठनों के साथ सडक़ों पर आ गया था। भारत-पाकिस्तान के मध्य व्यापार,शिक्षा,मनोरंजन, साहित्य-संस्कृति,कला अथवा किसी भी क्षेत्र के रिश्तों में सुधार की दिशा में दोनों देशों के कदम आगे बढ़ते हैं तभी हाफ़िज़ सईद के पेट में मरोड़ उठने लगते हैं और वह ज़हर उगलना शुरु कर देता है।

पिछले दिनों पाक में दिफा-ए-पाकिस्तान नामक एक ऐसा संगठन वजूद में आया जिसमें पाकिस्तान में सक्रिय अधिकांश आतंकी संगठन शामिल हैं। इसका मुखिया भी हाफ़िज़ सईद को ही बनाया गया है। पाकिस्तानी अवाम को मोटे तौर पर समझाने के लिए इस संगठन का उद्देश्य इसके नाम के अनुरूप अर्थात् पाकिस्तान की दिफा, यानी रक्षा करना बताया जा रहा है। परंतु इसके पीछे की छुपी हकीकत कुछ और ही है। यह सभी आतंकी संगठन मिलकर पाकिस्तान की सत्ता पर अपना नियंत्रण हासिल करना चाहते हैं तथा वहां के परमाणु हथियारों को अपने कब्ज़े में लेना चाह रहे हैं। इनकी इस सोच के पीछे भी दो मुख्य कारण हैं। एक तो ऐसा यह इसलिए करना चाह रहे हैं ताकि कहीं इनसे पहले तालिबान व पाकिस्तान में सक्रिय तहरीक-ए-तालिबान व अलकायदा आदि मिलकर ऐसा न कर डालें।

इसलिए इनकी मंशा है कि इस प्रकार के कदम यदि उठें तो पाकिस्तान के आतंकी संगठनों व इनके आकाओं द्वारा उठाएं जाएं व अफगानी तालिबानों का इसमें कोई दखल न होने दिया जाए। दूसरा यह कि पाकिस्तान की सत्ता तथा वहां के परमाणु ठिकानों पर काबिज़ होकर यह अमेरिका व भारत को भी अपने वहशी इरादे दिखाकर डराना चाहते हैं। यही है दिफा-ए-पाकिस्तान के गठन का असली मकसद और इसी का सूत्रधार व सरगना है इश्तहारी मुजरिम हाफ़िज़ सईद।

रहा सवाल हाफ़िज़ सईद के इस्लाम व मुस्लिम जगत के दुश्मन होने का तो यह बात भी अपनी जगह पर सत्य है कि हाफ़िज़ सईद जैसे तथाकथित इस्लामी मौलवियों के उकसाऊ व भडक़ाऊ भाषणों से प्रभावित होकर दुनिया में बेरोज़गार मुस्लिम नवयुवक आतंकवाद की ओर आकर्षित होते हैं। कहीं पैसे की लालच में तो कहीं इनके द्वारा दिखाए गए जन्नत के सुनहरे ख्वाब के झांसे में आकर अबोध नवयुवक आत्मघाती हमलावर तक बन जाते हैं। और जब यह इस तरह के धर्मांध व गुमराह नवयुवक दुनिया के किसी भी देश में आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देते हैं तो घटना के बाद आम लोगों की नज़रों में इस्लाम धर्म व मुसलमान कौम दोनों ही बदनाम होते हैं। मज़े की बात तो यह है कि जब ऐसे आतंकी सरगनाओं को अपनी मौत सामने खड़ी नज़र आने लगती है और इन्हें इश्तहारी मुजरिम घोषित कर दिया जाता है तो फिर इनके मुंह से यही निकलने लगता है कि ‘यह पश्चिमी देशों का इस्लाम पर हमला है और पूरी दुनिया के मुसलमानों पर हमला है’ आदि।

लाडेन भी कई बार ऐसी फुज़ूल की बातें किया करता था। अमेरिकी सेना द्वारा गिरफ्तार किए जाने से कुछ ही समय पूर्व सद्दाम हुसैन के मुंह से भी ऐसे ही शब्द सुने गए थे। और भी कई दुर्दांत आतंकवादी या क्रूर तानाशाह अपने सिर पर मौत खड़ी देखकर उसे इस्लाम व मुस्लिम जगत पर हो रहा हमला बताते देखे गए हैं। परंतु इन हालात के पैदा होने की हकीकत से रुआशना होने व इसके वास्तविक कारणों को समझने की कोशिश इनमें से कोई नहीं करता। ऐसे में ज़रूरत इस बात की है कि हाफ़िज़ सईद जैसे आतंक के आ$काओं के एक-एक शब्द को व उसके पीछे छुपे मकसद को गौर से सुनने व समझने की। साथ ही पाकिस्तान को भी यह महसूस करना चाहिए कि राष्ट्र की संप्रभुता की आड़ में एक बार फिर वह जिस हाफ़िज़ सईद के साथ खड़ा दिखाई दे रहा है वह दरअसल कोई इस्लामी रहनुमा या धर्मगुरु नहीं बल्कि इनका भेष धारण किए हुए एक ऐसा दुर्दान्त आतंकवादी है जो ओसामा बिन लाडेन से कम नहीं है। और यदि पाकिस्तान हाफ़िज़ सईद के साथ खड़ा दिखाई दिया तो एबटाबाद कांड की ही तरह पाकिस्तान बार-बार दुनिया की नज़रों से गिरता रहेगा तथा आतंकवाद को संरक्षण देने वाले देश के रूप में बदनाम होता रहेगा।

 

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  1. तनवीर जाफरी जी का यह आलेख साढ़े तीन साल पहले आया था.क्या कोई बता सकता है कि विद्वान लेखक ने इस आलेख में जिन हालातों का वर्णन किया है ,उसमें आज क्या परिवर्तन आया है?

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