पश्चिम बंगाल : आसमान से गिरे, खजूर पर अटके

0
133

-पंकज झा

हालांकि पश्चिम बंगाल में लगभग चार दशक के बाद वामपंथी दुर्ग का ढह जाना निश्चय ही वर्तमान राजनीति की एक बड़ी घटना है. लेकिन इस खबर के आलोक में जिस तरह देश और प्रदेश के प्रेक्षकों में जश्न का माहौल है, उसका कोई कारण दिखाई नहीं दे रहा है. राज्य के 16 जिलों के 81 निकायों पर हुए चुनाव में 36 पर तृणमूल ने अपना परचम लहराया, जबकि उसकी प्रतिद्वंद्वी वाम मोर्चा के खाते में 18 निकाय गई, वहीं कांग्रेस को छह निकायों से संतोष करना पडा. इसलिए तृणमूल ने वाम मोर्चे का सूपडा साफ कर दिया, ऐसा नहीं माना जाना चाहिए लेकिन कोलकाता समेत अन्य तमाम वामपंथी किले का दरक जाना तो एक नयी शुरुआत मानी ही जा सकती है. लेकिन असली सवाल तो यह है कि देश या प्रदेश को विकल्प क्या मिलने जा रहा है. अगर नक्सलियों के समर्थन से साढे तीन दशक तक चलने वाली वामपंथी सरकार ने पश्चिम बंगाल में भूख, आतंक, अराजकता, गरीबी, पिछडापन के सिवा कुछ नहीं दिया. मजदूरों की सरकार कहे जाने पर भी मजदूरों की यह दुर्गति, की पूरी दुनिया में आदमी द्वारा ‘घोड़ा’ बन कर लोगों को ढोने की अमानवीय व्यवस्था केवल वही है तो फिर उसी नक्क्सल समूह का समर्थन पा कर ममता बनर्जी कौन सा तीर मार लेने वाली हैं?

मुख्य मुद्दा राष्ट्रवाद का है. देश का हर भाग अपने को यह समझे कि अपनी मौलिकता को कायम रखते हुए देश का अभिन्न हिस्सा है. बस इसी मामले में पश्चिम बंगाल से आशा कि किरण दूर-दूर तक निकलती नहीं दिखाई देती है. जैसा कि सब जानते हैं ममता बनर्जी के रेल मंत्री रहते हुए यह पहली बार हुआ है कि मोटे तौर पर इस मंत्रालय के लिए भारत की राजधानी आज कोलकाता है. अगर अति-आवश्यक संवैधानिक मजबूरी नहीं हो तो मंत्रालय का सारा काम-काज वो कोलकाता से ही निपटाती है. आप कल्पना करें कि अगर सभी मंत्री ऐसा ही करने लगे तो केंद्र के रूप में दिल्ली का क्या होगा? इस तरह तो हर राज्य से आने वाले लोग अपनी-अपनी राष्ट्रीय राजधानियां अपने शहर में ही लगाने लगेंगे. और बाकी देश को कभी नहीं लगेगा कि सम्बंधित मंत्रालय से उनका भी कोई सरोकार है. ऐसा एक भी अवसर ममता के पूरे कैरियर के दौरान नहीं आया होगा जब उन्होंने किसी राष्ट्रीय सरोकारों की बात की हो कभी. हाल ही में एक प्रेस वार्ता में ‘ये हिन्दी-चिंदी क्या होता है’ कहकर राष्ट्रभाषा का मजाक उड़ाने वाली याद अभी भी ताज़ी है.

अगर आज एक युग के बाद वामपंथ कमज़ोर हुआ है वहां तो इसका कतई मतलब यह नहीं है कि ऊपर कही गयी कम्युनिस्टों की असफलता इसका जिम्मेदार है. वहां साम्यवादियों ने जिस तरह अपनी किलेबंदी की थी, जिस तरह उनका कैडर ही पंचायत और मोहल्ले तक सारे फैसले लेने के लिए जिम्मेदार था उसमें तो कही भी किसी तरह के सेंध की कोई गुंजाइश नहीं थी कभी. वो तो सीधी सी बात यह है कि नंदीग्राम और सिंगुर जैसे मुद्दे पर नक्सली इनसे अलग हो गए और मज़ी हुई राजनीतिज्ञ ममता ने इसे एक अवसर के रूप में देख कर ‘हज़ार चौरासी की नयी मां’ बनने को तत्पर हो मौके को लपक लिया तो कहीं जा कर आज थोडा पराजेय महसूस कर रहा है वामपंथ. तो सफलता ना तृणमूल की है और ना ही किसी और का.

आम जनता तो कल भी नक्सलियों का प्रकोप झेलते थे कल भी झेलेंगे. नाम और चेहरे बदल जायेंगे लेकिन छुपी हुई ताकत या बंगाल के आस्तीन में छुपे हुए नक्सली वही रहेंगे. अभी-अभी कि बात है. जब मिदनापुर के झारग्राम में नक्सलियों ने ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस को उड़ाकर 150 परिवारों को अनाथ कर दिया. खुद आगे आ कर उस नरसंहार कि जिम्मेदारी भी नक्सल समूहों ने ली. लेकिन खुद रेल मंत्री रहते हुए इसकी जिम्मेदारी लेने के बजाय उन लाशों पर भी राजनीति की रोटी सकने से बाज़ आनाही आयी ममता. पहले तो इन्होने इसे राजनीतिक कारवाई कह नक्सलियों को सीधे ही क्लीन-चिट दे दी, लेकिन बाद में फस जाने पर निर्लज्ज़ता पूर्वक कहा कि वे कोई ज्योतिषी नहीं हैं जो बता सकें कि हमला किसने किया था. केवल एक इसी उदाहरण से आप ममता के पूरे राजनीति का अंदाजा लगा सकते हैं. आखिर यह समझ से पड़े है कि यूपीए के मंत्रीगण अपना सारा काम ज्योतिषी के भरोसे ही क्यू चलाना चाह रहे हैं. पहले महंगाई जैसे मुद्दे पर शरद पवार की ज्योतिषी णा हो पाने की ‘विवशता’ व्यक्त करना लेकिन नौ चीनी मिल का मालिकाना हक होने के कारण शक्कर के दाम बढाने का बयान देने में उन्हें किसी ज्योतिषीय ज्ञान की ज़रूरत नहीं पड़ी और ‘मतलब’ निकल जाने पर बयान से पलटने में भी कोई समस्या नहीं हुई. तो इसी तरह अपनी ज्योतिषी ना हो पाने की मजबूरी को अपनी मजबूती बना जहां ममता बनेर्ज़ी जी-जान से नक्सलियों के समर्थन-संवर्धन में जुट कर अपना भला कर रही हैं वही उनकी बी-टीम कांग्रेस शायद पश्चिम बंगाल में किसी और ज्योतिषी से अपनी तकदीर दिखवाने में लगी होगी क्युकी उन्ही के पाले-पोसे समूहों ने सदा की तरह कांग्रेस को नस्तनाबूत करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है.

तो सोचनीय विषय यही है कि देश आखिर किस बात पर जश्न मनाये. मोटे तौर पर जिस संक्रमण काल से हम गुजर रहे हैं, जिस तरह से राष्ट्र चौतरफा दुश्मनों से घिडा हुआ है वैसे हालत में एक के बाद एक राष्ट्रवादी शक्तियों का कमज़ोर होते जाना, देश के नाम्लेवों में कमी होते जाना तो चिंता का कारन है ही. अगर अपनी नयी ‘मां’ को पाकर नक्सली और मज़बूत होते दिखें, इतनी मज़बूत कि अब अरुंधती जैसी छुपी दुश्मन को भी अपना नकाब हटाकर खुल कर अपने मालिक नक्सलियों के पक्ष में आ जाने में कोई डर नहीं लगता तो अब आखिर क्या किया जाय?

आज की तारीख में आप भारतीय लोकतंत्र में जश्न मानाने का अवसर तब ही पा सकते हैं जब लगे कि जनता के किसी फैसले से नक्सली कमज़ोर पड़ते जा रहे हों. कम से कम पश्चिम बंगाल के निकाय परिणाम ने तो ऐसा मौका आन्ही ही मुहय्या कराया है. बस चेहरे ज़रूर बदल गए हैं, लेकिन चल, चिंतन और चरिता पुराना ही कायम रहने वाला है. बस एक बात पर थोड़ी सी खुशी मना सकते हैं आप, जैसा कि एक प्रेक्षक कहते हैं कि, पहले किसी भी तरह कम्युनिष्टों को कमज़ोर पडने दीजिए. एक बार उनका अगर सफाया हो गया. उनका नेटवर्क और चक्रव्यूह अगर नष्ट हो गया तो फिर ममता के पास उनके जैसी सांगठनिक क्षमता है नहीं. अपनी बचकाना हरकतों एवं तानाशाही के कारण वो जल्दे ही अलोकप्रिय हो जायेंगी और अंततः जल्द ही वो भी जनाधार खो देंगी. फिर राष्ट्रवादी ताकतों को उससे फायदा होगा. उन प्रेक्षक के मूंह में घी शक्कर, शायद ऐसा होना ही एक मात्र उम्मीद हो. वह उम्मीद जिस पर कायनात कायम है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here