वादे हैं वादों का क्या ?

अमरेंद्र किशोर 

डेनमार्क के पत्रकार टॉम हैनमान की एक फिल्म कॉट इन माइक्रो-डेट चर्चाओं में है। बीते 30 नवम्बर को नार्वे टेलीविजन में इस फिल्म के प्रसारण के बाद पूरे विश्व भर में बहस गहराता जा रहा है कि गरीबों के उत्थान एवं उनकी समृद्धि के लिए चलाये जा रहे माइक्रो-फाइनेंस (लघु ऋण) का अर्ध्द-सत्य जितना पावन और पवित्र है, उसका शेष सत्य उतना ही दारूण है। सबसे खास बात यह है कि माइक्रो-फाइनेंस के मक्का समझे जानेवाले देश बांग्लादेश पर केंद्रित इस फिल्म के नायक या खलनायक डॉ0 मोहम्मद युनूस हैं। डॉ0 युनूस को लघु ऋण के बेहतर उपयोग से वचंना दूर करने के लिए नोबल पुरस्कार भी मिल चुका है।

कॉट इन माइक्रो-डेट कोई शरारत नहीं है। बल्कि उस सच का खुलासा है जिसे जानना जरूरी है। चूँकि माइक्रो-फाइनेंस आज एक होड़ बन चुका है। आंदोलन का रूप ले चुका है। यह आंदोलन जमीन पर कम वैचारिक रूप से सेमीनार-वर्कशॉप में ज्यादा प्रकट हो रहा है।निर्धन-वंचित आबादी को बैंकों से जोड़कर उन्हें आर्थिक लाभ के अवसर प्रदान कर समृद्धि के रास्ते पर लाने के सपने दिखाते माइक्रो-फाइनेंस संस्थाओं ने बैंको का दिल जीत लिया है। मामला दिल का हो तो दिमाग परस्त हो जाता है, अप्रासंगिक भी। डॉ0 युनूस आदर्श हैं, उन सबके लिए जो राज्य की समृद्धि में जुटे हैं। उनके प्रचारित मॉडल से बांग्लादेश में जो बदलाव आया है, उसे अपनाकर गरीबी-बेरोजगारी का हल अपने देश में भी संभव है। बैंकों का पंच लाइन यही है। ऐसे में टॉम हैनमान की यह फिल्म ब्रेकिंग न्यूज से कम नहीं है।

बांग्लादेश की गरीबी से समूचा विश्व वाकिफ है। वहाँ बाढ़ से होनेवाली सनातन तबाही के प्रति तमाम मुल्क सहानुभूति रखते हैं। यदा-कदा इस देश की बाहरी मदद मिलती रहती है। समाज में जैसी पर्दादारी है, कठमुल्लापन और वर्जनाएँ हैं, वैसे में सामाजिक सेवा में जनसहभागिता की कल्पना मुश्किल लगता है। डॉ0 मोहम्मद युनूस ने इस समस्या को दरकिनार किया। गरीबी जैसी युगीन समस्या के सामाजिक-आर्थिक हल माइक्रो-फाइनेंस के जरिए न सिर्फ ढूंढकर बल्कि उसे लोकसिद्ध कर पूरे विश्व भर में बांग्लादेश की पहचान कायम की है। मोहम्मद युनूस बेशक एक निर्विवादित शख्सियत हैं। मगर कॉट इन माइक्रो-डेट ने न सिर्फ माइक्रो-फाइनेंस को खोखला बताया है बल्कि इस पूरी अवधारण को गरीब विरोधी साबित करने की कोशिश की है।

हजारों महिलाओं जैसी एक महिला हजेरा नाम की एक महिला ग्रामीण बैंक से लिए गये ऋण से आज बेहद परेशान है। उसके आर्थिक हालात अभी सुधरे नहीं हैं। डॉ0 मोहम्मद युनूस द्वारा संचालित इस बैंक के लोग हजेरा को परेशान कर रहे हैं। उसे पीटने और उठाकर गली में फेंकने की धमकी दे रहे हैं। उसकी सुननेवाला कोई नहीं है। विपदा गहराती जा रही हैं । टॉम हैनमान ने फिल्म निर्माण के दौरान यह महसूस किया कि ग्राहक एक माइक्रो-फाइनेंस से ऋण लेता है और उसे चुकाने के लिए उसे किसी दूसरे माइक्र्रो-फाइनेंस संस्था के पास जाना पड़ता हैं, हैनमान के पास इस बात के सबूत हैं। बीबीसी को दिए गए साक्षात्कार में हैनमान अफसोस जताते है। कि ‘मैंने बांग्लादेश के कई इलाकों में जा कर जानना चाहा कि माइक्रोक्रेडिट ऋण से क्या गरीबों को आबादी अपेक्षाकृत ज्यादा कर्ज में डूबी चुकी है। वह बताते हैं कि ग्रामीण बैंक को बाहरी मुल्कों से अनुदान के रूप में जो रकम दाताओं (डोनर्स) ने दी थी, उस राशि को मोहम्मद युनूस ने अपनी एक कम्पनी में मुनाफे के मकसद से डाल दिया है। यानी कल्याण राशि से अपनी कंपनी के कल्याण की कवायद की गयी की है।

यह सच है ऐसा गरीब और विकासशील देशों में हो रहा है। द0 पू0 एशियाई देशों में कई गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) ने अपने काम का चरित्र बदलकर माइक्रो-फाइनेंस इंस्टीटयूट (एमएफआई) का चोला पहन लिया। कई एनजीओ तो एमएफआई साथ-साथ चला रही हैं। अनुदान का अर्पवत्तान (डाइवर्जन) वे कर रही हैं। मतलब वृक्षारोपण की राशि से माइक्रो-क्रेडिट का कारोबार रिद्धि-सिद्धि पूरा होने के बाद वृक्षारोपण किया या नहीं, यह उनकी श्रद्धा पर निर्भर करता है।

अपने देश में भी यही समस्या बढ़ती जा रही है। बांग्लादेश की राह पर चल रहे भारत के एमएफआई गरीबों को ऋण का चना-चबैना देकर 30 प्रतिशत से ज्यादा ब्याज की रकम वसूल रही हैं। ये एमएफआई अब देश की गरीबी के आचरण और चरित्र को तय कर रही हैं। कहती हैं कि ‘हमारा एडमिशन कॉस्ट (प्रशासनिक खर्च) बहुत ज्यादा है। रिस्क हम लेते हैं, बैंक नहीं।’ तो मनमाना ब्याज वसूली करना वाजिब है। तो क्यों बूरे हैं देशी महाजन — भारत के या बांग्ला देश के ? सच है जो कर्ज देगा वह मनमाने ढंग से वसूली करेगा। वह सर्वहारा डिक्टेटरशिप का मुकुट जरूर पहनेगा। तभी तो आज मुहम्मद युनूस इस आंदोलन केर् वत्तामान स्वरूप से दु:खी भी हैं और क्षुब्ध भी। पूँजी के मामले में यह बात स्पष्ट है कि चाहे कोई हो, वह विचारधाराओं के आधार पर भी कर्ज देता है तो अघोषित रूप से अधिक दमनकारी, कू्रर और नृंशस हो जाता है। भारत के एमएफआई जब ऋण वसूली में आक्रामक और हिंस्त्र होने लगीं तो भारत सरकार को एक दिशा-निर्देश जारी करना पड़ा।

कॉट इन माइक्रो-डेट से एक बेबाक और अकथ्य सच उजागर होता है। उससे आलोचना और धिक्कार का जो माहौल बना है, उसमें मोहम्मद युनूस जैसे व्यक्तित्व का विसर्जन जन-आस्था पर निर्मम प्रहार है। माइक्रो-क्रेडिट एक छलावा है, विश्वास नहीं होता।

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