क्या हो सकते हैं अमेरिका की नई अफगान नीति के दूरगामी परिणाम

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अमेरिका पर हुए विश्व के अब तक के सबसे बडे 26/11 के आतंकी हमले के बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्लू बुश ने आनन-फानन में अफगानिस्तान में क्रूर तालिबान शासकों को सत्ता से उखाड़ फेंका था। निश्चित रूप से उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था कि नाटो सेनाओं तथा अफगानिस्तान के स्थानीय नार्दन एलॉयंस के सहयोग से कुचले गए तालिबान शायद अब कभी सिर नहीं उठा सकेंगे। परंतु उनकी जड़ें कितनी गहरी हैं तथा उनमें अपने इरादों के प्रति किस क़द्र आत्मबल, समर्पण व आत्मविश्वास कूट कूट कर भरा है यह बात उनके सत्ता से बेदख़ल होने के मात्र दो वषों बाद ही पता चलनी शुरू हो गई थी। दरअसल तालिबानों ने जहां अपने ऐतिहासिक जुझारूपन के बल पर स्वयं को अमेरिकी नेतृत्व वाली नाटो सेना के सामने एक चट्टान की तरह कायम रखा वहीं तालिबानों को अपदस्थ करने के दौरान अंफगानिस्तान में हुई सैन्य कारवाई में आम अफगान नागरिकों की हुई दुर्दशा ने भी उन्हें काफी बल प्रदान किया। जहां तक तालिबान प्रमुख मुल्ला मोहम्मद उमर का प्रश्न है तो उसकी अलकायदा प्रमुख ओसामा बिन लाडेन से रिश्तेदारी तो जग ज़ाहिर है ही। और इस रिश्ते की बदौलत तालिबानों को अलकायदा का समर्थन भी निरंतर मिलता रहा।

जो तालिबान अपनी कमर टूटने के मात्र दो वर्षों बाद ही खड़े होने शुरू हो गए थे वही तालिबान आज स्वयं को इस स्थिति में पहुंचाने में सफल हो चुके हैं कि वहां मौजूद नॉटो सेना तथा इसे संचालित करने वाली अमेरिकी सेना को अपने भविष्य के बारे में कांफी कुछ सोचना पड़ रहा है। अंफंगानिस्तान में अमेरिकी सेना के प्रवेश के कुछ समय बाद ही यह कयास लगाए जाने लगे थे कि कहीं जार्ज बुश का यह फैसला उनके लिए मंहगा न साबित हो। उस समय यह भी सोचा जाने लगा था कि कहीं अंफंगानिस्तान अमेरिका के लिए दूसरा वियतनाम न साबित हो। लगता है कि उस समय की वह सभी संभावनाएं कुछ न कुछ जरूर सही साबित होने लगी हैं। भले ही वियतनाम तथा अंफंगानिस्तान की राजनैतिक व सामरिक परिस्थितियों में कुछ अंतर क्यों न हो। परंतु निष्कर्ष लगभग एक जैसा ही निकलता दिखाई दे रहा है। अर्थात् जिस प्रकार अनिर्णय की स्थिति में अमेरिकी सेना को वियतनाम से अपनी सेना वापस बुलानी पड़ी थी उसी प्रकार अब अमेरिका अंफंगानिस्तान से भी वापस जाने के मांकूल उपाय तलाश रहा है।

दरअसल 9-11 के बाद की परिस्थितियां ही कुछ ऐसी थीं कि लगभग पूरी दुनिया की सहानुभूति अमेरिका के साथ जुड़ गई थीं,और यह स्वाभाविक भी था परंतु उस समय जार्ज बुश द्वारा लिए गए फैसले निश्चित रूप से जल्दबादी में लिए गए फैसले तो थे ही साथ ही साथ उनमें राजनैतिक व कूटनीतिक दूरदर्शिता का भी अभाव था। जिसका दुष्परिणाम आज देखने को मिल रहा है। आज के अफगानिस्तान व इरांक संबंधी हालात ऐसे हैं कि अमेरिका के सैन्य सहयोगी देश अब अफगानिस्तान व इरांक में अमेरिकी दखल अंदाजी से पूरी तरह ऊब चुके हैं। ब्रिटेन में तो हालात ही कुछ और हैं। वहां के तत्कालीन सरकार के जिम्मेदारों को तो ब्रिटिश नागरिकों को इस बात का जवाब देना पड़ रहा है कि ब्रिटिश सेना किन परिस्थितियों में अंफंगानिस्तान में गई और क्या इन हालात को टाला नहीं जा सकता था। यहां एक बात यह स्पष्ट करते चलें कि अमेरिका या उसके सहयोगी देशों को अंफंगानिस्तान व इरांक में कहीं भी अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने में कोई दिक्क़त पेश नहीं आ रही है। न ही उनके पास सैनिक साजोसामान की कोई कमी है। और न ही बेगुनाह आम नागरिकों के मारे जाने पर उन्हें कोई विशेष शर्मिंदगी या जवाबदेही आदि का सामना करना पड़ता है। हां यदि उनके लिए परेशानी का सबब कुछ चीजें बन रही हैं तो एक तो वह है आप्रेशन अफगानिस्तान में समयावधि का लंबा खिंचते जाना और दूसरी इससे भी बड़ी बात यह है कि अफगानिस्तान में समय-समय पर किसी न किसी अमेरिकी, ब्रिटिश या अन्य नाटो सैनिक का तालिबानों के हाथों मारा जाना। गौरतलब है कि जो अमेरिका अपने किसी हमले में अनेक बेगुनाहों के मारे जाने पर किसी परेशानी का एहसास नहीं करता वहीं अमेरिकावासी अपने एक भी ंफौजी की मौत को बहुत गंभीरता से लेते हैं। एक भी अमेरिकी फौजी की अफगानिस्तान या इरांक में होने वाली मौत सीधे तौर पर अमेरिका में यह प्रश् खड़ा कर देती है कि हमारे सैनिक अफगानिस्तान या इराक़ में क्यों हैं? कब तक हैं और कब तक वापस आ रहे हैं?

आज का अमेरिका जाहिर है जार्ज बुश के अमेरिका से भिन्न नजर आ रहा है। जहां जार्ज बुश के नेतृत्व में अमेरिका पूरी दुनिया पर अपनी मनमानी थोपता तथा दुनिया में नए-नए सैन्य ठिकाने स्थापित करता, नए-नए प्रताड़ना केंद्र स्थापित करता तथा मनमाने तरीके से अपनी तांकत के बल पर किसी भी देश में घुसपैठ करने का हौसला रखे हुए दिखाई देता था वही अमेरिका आज राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा के नेतृत्व में जियो और जीने दो की नीतियों का अनुसरण करता दिखाई दे रहा है। सत्ता में आने के बाद ओबामा ने सर्वप्रथम क्यूबा स्थित ग्वांतानामो बे जेल के रूप में बदनाम अमेरिका के प्रताड़ना केंद्र को बंद करने का आदेश पारित किया था। जार्ज बुश के शासन काल में दुनिया इस बात को लेकर भयभीत थी कि कहीं इस्लाम व ईसाईयत के मध्य सभ्यतारूपी विश्वव्यापी संघर्ष न छिड़ जाए। उधर ठीक इसके विपरीत ओबामा ने पहले अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में इजिप्ट की राजधानी काहिरा में पूरे विश्व के इस्लामी देशों के विशाल सम्मेलन को अस्लाम अलेकु म कहकर जब संबोधित करना शुरु किया उसी समय जार्ज बुश के दौर में पैदा हुई गलतफहमियों पर विराम लग गया।

अब यही राष्ट्रपति ओबामा अंफंगानिस्तान के विषय में भी कुछ ऐसे फैसले लेना चाह रहे हैं जिससे कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। अर्थात् आतंकवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने के जिस संकल्प के साथ अमेरिका ने अंफंगानिस्तान में कदम रखा था वह संकल्प भी यदि पूर्ण रूप से नहीं तो कुछ हद तक तो जरूर पूरा होता दिखाई दे। रहा सवाल अंफंगानिस्तान से आतंक व आतंकवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने का तो इस सिलसिले में अमेरिका एक नई रणनीति पर काम करने जा रहा है। और वह रणनीति है तालिबानों में ही उन्हें श्रेणी में विभाजित करना यानि गुड तालिबान और बैड तालिबान की परख करना तथा गुड तालिबानों को अपने साथ जोड़कर उन्हें अंफंगानिस्तान की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में शामिल कर, तथा अफगानिस्‍तान को अंफगानों के हाथों सौंप कर स्वयं अपने नाटो सहयोगियों के साथ वापसी की राह पकड़ना। सुनने में यह बात बहुत ही अच्छी व शांतिप्रिय प्रतीत होती है। इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि नाटो सेना के अंफंगानिस्तान छोड़ने की दशा में तमाम तालिबानी अपने हथियारों का समर्पण कर मुख्य धारा में शामिल होने का मन बना सकते हैं। परंतु अमेरिका की यह सोच तथा अंफंगान राष्ट्रपति अहमद करज़ई द्वारा इस नई अमेरिकी नीति को दिया जाने वाला समर्थन वास्तव में अपने उन मापदंडों पर कितना खरा उतर सकेगा जिन्हें ध्यान में रखकर इतने अहम फैसले लिए जाने प्रस्तावित हैं।

नि:संदेह सैन्य कार्रवाई, हिंसा तथा अराजकता की मानवीय मूल्यों के समक्ष कोई गुंजाईश नहीं होनी चाहिए। परंतु जब सामना राक्षसी या पाशविक प्रवृति के ऐसे लोगों से हो जिनकी नज़र में किसी भी समस्या का समाधान मात्र हिंसा, अत्याचार, हठधर्मी व कट्टरपंथी विचारधारा से ही नजर आता हो ऐसे में कठोर से कठोरतम रुंख अख्तियार करना ही एकमात्र रास्ता शेष बचता है। लिहाजा यदि तालिबान संबंधी नई अमेरिकी नीति तालिबानों के बीच वास्तव में गुड तालिबानों की शिनाख्त कर पाने में तथा उन्हें मुख्यधारा में शामिल कर पाने में सफल रहती है फिर तो राष्ट्रपति ओबामा का यह कदम अफगानिस्तान व अमेरिका दोनों ही देशों की जनता के लिए तस्सली का कारण बनेगा। और यदि भविष्य में यही अमेरिकी नीति एक बड़ा धोखा या गलत फैसला साबित हुई तो इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि कहीं यही तालिबानी अपने आप को पूर्व के तालिबानी शासनकाल से भी अधिक सुदृड़ व शक्तिशाली न कर लें।

जो भी हो तालिबानों के विषय में उठाए जाने वाले इन नए अमेरिकी कदमों से जहां अमेरिका को पूर्णतया चौकस व सचेत रहने की जरूरत है वहीं भारत को भी चाहिए कि वह भी इस विषय पर अपनी गहरी नार रखने के साथ-साथ स्वतंत्र, स्पष्ट व दूरदर्शी राय भी रखे। क्योंकि अंफगानिस्तान के हालात का प्रभाव भारत पर भी पड़ना स्वाभाविक है। लिहाजा अमेरिका को भी अंफंगान संबंधी सभी नीतियों का गहन अध्ययन करना चाहिए उसके बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए।

-तनवीर जाफरी

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