लोकतंत्र की नर्सरी के बिना कैसा लोकतंत्र

election-preprations-28429-777629छात्र संघ! हमारे आधे शताब्दी से थोड़े ज्यादा पुराने लोकतंत्र में यह महज सवाल बन कर रह गया है। दशकों से छात्र राजनीति पर नकेल कसने की फिराक में बैठे लोगों ने आखिरकार 15 वीं लोकसभा के आते-आते इस पर अघोषित आपातकाल थोप ही दिया। पिछले कुछ वर्षों से एक नई बहस स्थापित की जा रही है कि गैर सरकारी संगठन चुनाव लडेंग़े क्योंकि आम-आदमी के मुद्दों पर राजनीति नहीं हो रही है। ऐसे में यह बड़ा दिलचस्प पहलू है कि एक राजनैतिक पाठशाला को बंद कर ये माहौल बनाया जा रहा है। क्योंकि ये गैर सरकारी संगठन कितने सरकारी हैं ये बात किसी से अब छुपी नहीं रह गयी है। यंगिस्तान के हो-हल्ले में इस कटु सच्चाई को दबा सा दिया गया है। विडंबना तो ये है कि जिन लोगों ने 77 में इस आधुनिक लोकतंत्र की जनता को पहली बार सरकार बदलना सिखाया था उनमें और उस ‘मजबूत दरख्त’ वाली सरकार में कोई फर्क नहीं रह गया है। वे एक ही पाले में घूमते फिरते नजर आ रहे हैं। इन सबके बीच युवाओं की ‘पप्पू’ वाली छवि निर्माण कर राजनीति अपने लिए ऐसी जनता निर्माण कर रही है जो उसके ‘युवा सम्राटों’ की दरबारी करे।बहरहाल छात्र राजनीति पूरे देश में एक खांचे में बध कर कभी नहीं रही है। छात्र राजनीति में मील का पत्थर साबित हुए असम में क्षेत्रीयता और राष्ट्रीयता के उभार पर छात्र राजनीति पनपी, पर जल्द ही मुख्य धारा की राजनीति ने उसे दिग्भ्रमित कर सांप्रदायिक रुप दे दिया। कश्मीर जिसे शुरुवाती दौर से ही हिंदुस्तान सैनिक तंत्र पर नियंत्रित किए हुए है वहां भी शुरुवाती दौर में प्रगतिशील छात्र आंदोलन रहा है। पर सोची समझी रणनीति के तहत उस आंदोलन के ऊर्जावान युवा को दबाकर उसे प्रतिक्रियावादी ताकतों के खेमे में जाने को मजबूर किया ताकि उन आवाजों को राष्ट्रवाद के नाम पर दबाया जा सके। तो वहीं पंजाब में छात्र संगठनों के तेवर इतने तीखे थे कि सिख स्टूडेंट फडरेशन सरीखे संगठनों को प्रतिबंधित करना पड़ा। हाल में पश्चिम बंगाल जहां सीपीएम की सरकार है वहां पर नंदीग्राम जैसी घटनाओं के बाद एसएफआई जैसे संगठनों की तरफ से मुखर आवाज न उठना उनके विश्वसनीयता पर सवाल उठा चुका है।

आज जब लोकतंत्र के पतन पर ‘चिन्ता’ व्यक्त की जा रही तब ऐसे में देश की राजनीति को नियंत्रित करने वाले यूपी और बिहार के बारे में बात करना जरुरी हो जाता है। मुख्यधारा की राजनीति और छात्र राजनीति का सबसे गहरा संबंध बिहार में रहा। सामाजिक कार्यकर्ता अनिल चमड़िया बताते हैं कि 80 के दौर में भी पिछड़े व दलित तबके के छात्रों का प्रवेश पाना आसान नहीं हुआ करता था। जो छात्र आंदोलनों से ही संभव हो सका। सामाजिक न्याय केंद्रित आंदोलनों ने एक यथार्थवादी नेतृत्व तैयार किया। उस दौर में जय प्रकाश नारायण और कर्पूरी ठाकुर के आंदोलन से कोई छात्र-नौजवान अछूता नहीं था। पर आज लंबे समय से इस ऊर्वरक खेत को वही बंजर बनाने में लगे हैं जो इसकी उपज थे। इसके पीछे यह महत्वपूर्ण कारण था कि जो छात्र राजनीति मूलत: विपक्ष की राजनीति होती है उसके नेतृत्व करने वाले ही सत्ता में आ गए थे। जिन्होंने उसके तेवर पर दलाली की सान धरायी। क्योंकि उनका चरित्र बदल गया था और वे सड़क पर उतरने वाले छात्रों के चरित्र से भली-भांति वाकिब थे।

यही हाल यूपी में भी हुआ। फर्क इतना था कि मंडल की उपज मुलायम सिंह यादव को उस दौर में अपनी राजनीति के लिए नौजवानों की जरुरत थी जो जल्द ही पूरी हो गई। बीएचयू में नक्सल धारा के छात्र संगठन आइसा से छात्र संघ अध्यक्ष हुए आनंद प्रधा

2 COMMENTS

  1. आप ने जो कहा सही कहा विश्विद्यालय मे छात्र संघ को प्रतिबंधित करना गलत है

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