यह कैसी दीवाली ?

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विजय कुमार

दीवाली अंधकार पर प्रकाश की जीत का विजय पर्व है। प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है। भारतवासी ज्ञान के पुजारी हैं। इसीलिए भारतीय मनीषियों ने ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ कहकर प्रकाश का स्वागत और अभिवंदन किया है।

जन-जन के आराध्य मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचंद्र जी द्वारा रावण वध के बाद अयोध्या आने पर अयोध्या के नागरिकों ने घी के दीपक जलाकर खुशी मनायी थी। उसी की याद में लाखों वर्ष बीत जाने के बाद भी दीपावली मनाई जाती है। भारत में ऐसे सैकड़ों पर्व हैं, जो किसी ऐतिहासिक घटना की याद में मनाये जाते हैं।

लेकिन समय-समय पर इन पर्वों के साथ कुछ परम्पराएं भी जुड़ जाती हैं। ये परम्पराएं कभी सुखद होती हैं, तो कभी दुखद। लम्बा समय बीतने पर ये कई बार कुरीति और अंधविश्वास का रूप भी ले लेती हैं। होली के पर्व पर कई बार आपस में झगड़ा हो जाता है। यद्यपि बरसाने की लट्ठमार होली की मधुरता का आनंद लेने दुनिया भर से लोग आते हैं; लेकिन दीवाली पर आपस में युद्ध की बाद सुनकर कुछ अजीब सा लगता है; पर यह भी सत्य ही है।

खूनी दीवाली 

उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में दीवाली से एक दिन पूर्व (कार्तिक कृष्ण 14, छोटी दीवाली) को होने वाले खूनी युद्ध की विकृत परम्परा गत 400 साल से निभाई जा रही है।

बुजुर्गों के अनुसार बदायूं में गंगपुर और मिर्जापुर के लोगों के बीच फैजगंज गांव को बसाने के लिए कई बार विवाद और झड़प हुई। हर बार गंगपुर के लोग हार जाते थे। एक बार छोटी दीवाली पर हुए पथराव में गंगपुर वालों की जीत हुई और उसी दिन फैजगंज बेहटा आबाद हो गया। तब से हर छोटी दीवाली पर दोनों गांवों के लोग एक मैदान में एकत्र होकर एक-दूसरे पर पथराव करते हैं और लाठी चलाते हैं। यह युद्ध दोपहर से रात तक चलता है। इसमें कई लोग लहूलुहान हो जाते हैं; पर परम्परा के नाम पर लोग इसे छोड़ने को तैयार नहीं हैं।

इस दिन पुलिस वाले भी वहां उपस्थित रहते हैं। उन्हें भय रहता है कि इसकी आड़ में कोई निजी रंजिश न निकाल ले। प्रशासन चाहता है कि यह विकृत परम्परा बंद हो; पर स्थानीय लोगों का कहना है कि इसमें घायल लोग पुलिस में नहीं जाते। इसलिए कानून-व्यवस्था के नाम पर प्रशासन को चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। इतना ही नहीं, लोग युद्ध के बाद एक-दूसरे के घर जाकर घायलों का हालचाल पूछते हैं तथा मिठाई खाते-खिलाते हैं।

अनेक समाजसेवी लोग यह प्रयास कर रहे हैं कि पत्थर और लाठी की बजाय फूल और फलों की मार से परम्परा निभा ली जाए; पर उनके प्रयास कब सफल होंगे, कहना कठिन है।

हिंगोट युद्ध

मध्य प्रदेश में इंदौर के पास होने वाले ‘हिंगोट युद्ध’ की चर्चा भी यहां उचित होगी। आंवले के आकार का फल हिंगोट इंदौर के पास देपालपुर क्षेत्र में बहुतायत में होता है। दीवाली से दो माह पूर्व इसे तोड़कर सुखा लेते हैं। फिर इसे खोखला कर इसमें छोटे कंकड़ और बारूद भरते हैं। एक ओर छोटी लकड़ी लगाकर जब इसमें आग लगाते हैं, तो यह राकेट की तरह उड़कर दूसरी ओर जा गिरता है।

दीवाली से अगले दिन (कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा) को गौतमपुरा तहसील के मैदान में निकटवर्ती गांवों के लोग आकर तुर्रा और कलंगी नामक दो दलों में बंट जाते हैं। फिर वे एक-दूसरे पर हिंगोट छोड़ते हैं। इसमें कई लोगों को चोट आती है। कई दर्शक भी घायल हो जाते हैं; पर सैकड़ों वर्षों से चली आ रही परम्परा के नाम पर लोग इसे छोड़ने को तैयार नहीं हैं। राजनेता भी जनता का समर्थन खोने के भय से इसके विरुद्ध नहीं बोलते।

यहां भी पुलिस-प्रशासन तथा चिकित्सक उपस्थित रहते हैं। फिर भी कुछ लोगों को अस्पताल भेजना पड़ जाता है। कुछ स्थानीय लोगों का कहना है कि प्रतिभागियों को हेलमेट और जैकेट उपलब्ध कराई जाएं, जिससे चोट की संभावना कम हो सके।

परम्परा किसी भी देश और समाज के इतिहास तथा संस्कृति का अभिन्न अंग हैं; पर कभी-कभी यह कर्मकांड बनकर अहितकारी हो जाती है। ऐसे में समाज के पुरोधा उसे उचित मोड़ दे सकते हैं। जैसे कई मंदिरों में पशुबलि की जगह नारियल फोड़कर या कद्दू काटकर लोग परम्परा का निर्वाह करने लगे हैं। ऐसे ही अपना या दूसरे का खून बहाने वाले पर्वों के बारे में भी धार्मिक और सामाजिक नेताओं को मिलकर कोई नया मार्ग खोजना चाहिए।

1 COMMENT

  1. कुरीतियों को परम्परा मान कर ढोते रहना बुद्धिहीनता का परिचायक है.इसको हम जितनी जल्द समझ लें उतना ही अच्छा हो.

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