क्या अर्थ है धींगामस्ती भरी इस विदाई और स्वागत का

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– डॉ. दीपक आचार्य- new year

सारी दुनिया आज 2013 को विदाई देकर घुप्प रात के अंधेरे में कृत्रिम चकाचौंध के बीच नए वर्ष 2014 का स्वागत करने को उतावली, व्यग्र और उग्र बनी हुई है। अपना देश हो या दुनिया भर के मुल्क। सभी जगह पूरे दम-खम के साथ ऎसे आयोजन  हो रहे हैं, जैसे कि वर्ष नहीं बल्कि पूरी दुनिया आज की रात समाप्त हो जाएगी। और इसलिए जो करना हो आज जमकर कर लो, जो खाना हो खा लो, जो पीना हो पी लो, जो करणीय है वह भी, अकरणीय है, वह भी, सब कुछ कर गुजरो। क्योंकि वर्ष 2013 जा रहा है।

साल भर में जो कुछ नहीं कर पाए हैं, उसे आज के दिन और आधी रात तक कर लिए जाने का पागलपन सवार है। लोगबाग यह समझ कर पूरी आतुरता से इन कर्मों को कर रहे हैं, जैसे कि अब तक इन लोगों को पुराने वर्ष की विदाई का अनुभव हो ही नहीं। नौनिहाल भी वही कर रहे हैं। और वे लोग भी जो बरसों से पुराने वर्ष को विदा करते और नए वर्ष का स्वागत करते आए हैं। हर साल वर्ष के आखिरी दिन इन लोगों को यह खुमारी चढ़ जाती है कि जो आनंद प्राप्त करना है, कर लो। यह शरीर-उन्मुक्त  आनंद के शोषण की चरमावस्था पाने के लिए ही है। कई सालों से यही सब कुछ हम करते चले आ रहे हैं, मगर ठहरे हुए हैं वहीं के वहीं। जिस किसी आनंद को बार-बार पाने के लिए मचलना पड़े, वह काहे का आनंद।  इतना सब कुछ कर लेने के बावजूद शाश्वत आनंद का कहीं कोई कतरा नज़र नहीं आता। अगले दिन से फिर वही रूटीन, जो बरसों से चला आ रहा है।

वर्ष बदलने पर भी हमारी मानसिकता, संकल्प और व्यवहार नहीं बदलने वाला है, यह सब कुछ जानते-बूझते हुए भी उन्मुक्त भोग-विलास, स्वच्छंद जीवन और मनमानी-मनचाही हरकतों का कहां कोई औचित्य रह जाता है। पुराने वर्ष को विदा करने और नए वर्ष के स्वागत का यह संक्रमण काल हर वर्ष आता रहता है और साल दर साल हम फिर उन्हीं हालातों में नज़र आते हैं जैसे कि पुराने वर्ष में इसी दिन और इसी रात को हुआ करते हैं। ऎसे में इस उन्मुक्त आचार-विचार और व्यवहार का क्या तुक है।

हम आज के दिन कुछ न कुछ करने को उतावले रहते हैं जैसे कि जीवन में इससे पहले न कभी कर पाए हैं और आगे भी कभी मौका नहीं मिलने वाला है।  सारी सीमाओं, मर्यादाओं और अनुशासन को तिलांजलि देकर हम इस संक्रमण काल में जो कुछ करते हैं, वह सब कुछ कर पाने के बाद भी हमें कहां चैन है। पानी भरा बादल भी जब बरस कर हवाओं के साथ हो जाता है तो अपने मुकाम पर ही पहुंचता है। नई ताजगी और क्षमताओं के साथ। हम आज की रात सब कुछ लुटाकर भी पूरे साल भिखारियों, उन्मादियों और लुटेरों की तरह बर्ताव करते रहें, तो क्या अर्थ है इस रात को हुड़दंग भरी बनाने का। अपनी जड़ों से दूर होते जा रहे अभिजात्य वर्ग और विदेशियों की देखा-देखी हम भी जो कुछ कर रहे हैं, वह सब आत्मघाती ही है। यह सोच हमें अभी नहीं है लेकिन जब तक हम समझ पाएंगे तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।

कानफोड़ू ध्वनि प्रदूषण, शोरगुल, हुड़दंग और उन्मुक्त हरकतों से कभी शांति और सुकून का जन्म नहीं होता, यह बात हम बरसों से देखते आ रहे हैं। इतना सब कुछ करने और भोग-विलास तथा शोरगुल-हुड़दंग के समन्दर में देर रात तक जमकर गोते लगाने के बावजूद हम वहीं के वहीं हैं, सुधर तो नहीं पाए मगर उत्तरोत्तर बिगड़ने जरूर लगे हैं। हमारी मानसिक और शारीरिक स्थिति को देखकर हर कोई इस सत्य को भाँप सकता है। क्यों न हम संक्रमण काल को धीर-गंभीर होकर आत्मचिंतन के लिए निकालें और नव वर्ष की पूर्व संध्या या पूर्व रात्रि को प्रायश्चित का काल बनाते हुए जो गलतियां वर्ष  भर में हमसे हुई हैं उनके लिए ईश्वर और समय से क्षमायाचना करें और आने वाले वर्ष में इनके दोहराव से बचने का दृढ़ संकल्प लें। ऎसा होने पर ही पुराने वर्ष को विदाई और नए वर्ष के स्वागत को हम अपने जीवन के लिए यादगार बना सकते हैं। वरना इस धींगामस्ती का कोई अर्थ नहीं है।

 

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