तुम्हारा नाम क्या है ?

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nameनाम की बड़ी महिमा है, नाम पहचान है, ज़िन्दगी भर साथ रहता है। लोग शर्त तक लगा लेते हैं कि ‘’भई, ऐसा न हुआ या वैसा न हुआ तो मेरा नाम बदल देना।‘’ कहने का मतलब यही है कि नाम मे क्या रक्खा है, कहना सही नहीं होगा । नाम बडी अभूतपूर्व चीज़ है। उसके महत्व को नकारा ही नहीं जा सकता। माता पिता ने नाम रखने मे कुछ ग़ल्ती करदी तो संतान को वो आजीवन भुगतनी पड़ती है। आज कल माता पिता बहुत सचेत हो गये हैं और वो कभी नहीं चाहते कि बच्चे बड़े होकर उनसे कहें ‘’ये क्या नाम रख दिया आपने मेरा।‘’

पुराने ज़माने मे लोग नाम रखने के लियें ज्यादा परिश्रम नहीं करते थे या तो किसी भगवान के नाम पर नाम रख दिया या फिर वही उषा, आशा, पुष्पा, शीला, रमेश, दिनेश, अजय और विजय जैसे प्रचिलित नामो मे से कोई चुन लिया। गाँव के लोग तो मिठाई या बर्तन के नाम पर भी नाम रख देते थे, जैसे रबड़ी देवी, इमरती देवी या कटोरी देवी आदि।

दक्षिण भारत से हमारे एक मित्र हैं जिनका नाम जे. महादेवन है। जे. से जनार्दन उनके पिता का नाम था। जब महादेवन जी का पहला पुत्र हुआ तो उन्होंने उसका नाम जनार्दन रख दिया और पुत्र ऐम. जनार्दन हो गये, इस प्रकार उनके कुल का पहला पुत्र या तो एम. जनार्दन या जे. महादेवन ही होगा। दूसरे पुत्र का नाम नाना का होता है। पहली पुत्री का नाम दादी का और दूसरी पुत्री का नानी का नाम ही होता है। यदि इससे अधिक बच्चे होते हैं तभी नया नाम खोजना पड़ता है।कितना अच्छा तरीका है, नाम भी ख़ानदानी हो गया !

दक्षिण भारत मे नाम से पहले वर्णमाला के कई अक्षर भी लगाने की प्रथा है, इन अक्षरों से पिता का नाम, गाँव का नाम, ज़िला तक पता चल जाता है। यहाँ नाम मे पूरा पहचान पत्र छिपा होता है। महाराषट्र और कुछ अन्य प्रदेशों मे महिलाओं के लियें पति या पिता का नाम सरनेम से पहले लगाने का प्रचलन है, पुरुष भी पिता का नाम लगाते हैं, यानि संरक्षक के नाम से पहचान और भी पक्की कर दी जाती है।

उत्तर भारत मे पहचान से ज्यादा नये नाम की खोज करने का अभियान महत्वपूर्ण है। नये बच्चे का नाम रखना भी आजकल बड़ी महनत का काम हो गया है। अधिकतर नये बनने वाले माता पिता बच्चे के नाम की खोज जन्म से पहले ही शुरू कर देते हैं। ऐसे अति उत्साहित माता पिता को दो नाम खोजने पड़ते हैं, एक लड़की का और दूसर लड़के का। पहले बच्चे का नाम खोजते खोजते कभी दूसरे बच्चे का नाम भी सूझ जाता है। अतः महनत बेकार नहीं जाती, जो इस दोहरी महनत से बचना चाहते हैं, उन्हे बच्चे के जन्म तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है।

बच्चे का नाम कुछ नया….. कुछ नहीं एकदम नया होना चाहिये, जो कभी किसी ने सुना ही न हो। नया नाम रखने की इस धुन मे जो लोग हिन्दी बोलने मे हकलाते हैं या हकलाने का नाटक करते हैं, उनका हिन्दी क्या, संसकृत से भी मोह हो जाता है। हिन्दी संसकृत के अलावा बंगला, गुजराती, मराठी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का अध्ययन करके वहाँ के साहित्य से या पौराणिक गाथाओं से नाम लेने के लियें भी लोग माथापच्ची करते हैं। कोई नाम इतने जतन से ढूँढ कर रक्खा जाता है, तो उसके उद्गम और अर्थ की जानकारी माता पिता को होती ही है ,जब कोई उनसे बच्चे का नाम पूँछता है तो वे बड़े गर्व से बताते हैं । अब पूछने वाले ने वह क्लिष्ठ सा नाम सुना नहीं होता तो समझ मे ही नहीं आता, ऐसे मे नाम दोबारा पूछ लेते हैं। माता पिता अपने पूरे ‘नाम अनुसंधान कार्यक्रम’ की जानकरी ऐसे देते हैं मानो सीधे भाषाविज्ञान मे पी. एच. डी. कर के आर हे हैं। यह समझिये कि ऐसे मे यही समझा जा सकता है कि उनकी महनत सफल हुई, क्योकि लोगों ने वह नाम सुना ही नहीं था। ऐसा अनोखा नाम ही तो वो रखना चाहते थे।

हमारे एक परिचित युवा दम्पति ने अपनी पहली संतान जो कि पुत्र है उसका नाम रक्खा ‘’स्तव्य ’’ पहली बार मे किसी के समझ मे ही नहीं आया, किसी ने समझा ‘’स्तब्ध’’ किसी ने ‘’तव्य’’। माता पिता अपने उद्देश्य मे सफल हो गये, उन्होने बताया कि ‘स्तव्य’ का अर्थ ‘विष्णु भगवान’ होता है। हम तो पूरी तरह अभिभूत हो गय उनके ज्ञान पर। विष्णु जी के पर्यायवाची शब्द कभी अपने बच्चों को रटाये अवश्य थे, पर स्तव्य तो याद नहीं आ रहा। हिन्दी मे थोड़ा बहुत लिख लेते है इसका यह मतलब नहीं कि हमने हिन्दी का शब्द कोष कंठस्त किया हुआ है, सोच कर ख़ुद को दिलासा दिया। अब ये ‘स्तव्य’ थोड़े बड़े हुए तो किसी ने पूछा ‘’बेटा तुम्हारा नाम क्या है ?’’ वह तोतली ज़बान मे कहते ‘’तब’’, तब माता पिता को ‘’स्तव्य’’ शब्द के बारे मे एक बार अपना ज्ञान बाँचने का एक और अवसर मिल जाता है। इस संदर्भ मे एक और नाम याद आरहा है ‘’हिरल’’ जी हाँ, आपने सही सुना ‘’हिरल’’ यह नाम एक उत्साही मातापिता ने गुजरात से आयात किया है। गुजराती मे इसका क्या अर्थ होता है, उन्होंने बताया तो था, मुझे याद ही नहीं आ रहा। किसी भी भाषा को बोलने वाले दूसरे प्रदेश की भाषा के नाम रख रहे हैं, इससे अच्छा देश की भाषाई एकता का और क्या सबूत होगा। साथ ही साथ आपका एकदम नया नाम खोजने का अभियान भी सफल हो गया। वाह क्या बात है ! एक पंथ दो काज !

सिक्खों को नाम रखने मे एक बड़ी अच्छी सुविधा है , लड़की लड़के के लियें अलग अलग नाम नहीं ढूँढने पड़ते, बेटी के लियें ‘कौर’ लगा दिया, बेटे के लियें ‘सिंह’, बस हो गया अन्तर। कभी कभी एक असुविधा या सुविधा भी कह सकते हैं, हो सकती है , यदि लड़का लड़की एक ही नाम वाले मिल जायें तब ‘’मनदीप वैड्स मनदीप’’ शादी के निमंत्रण पत्र मे छपवाना पड़ेगा। यह तो अच्छा ही लगेगा, ऐसा संयोग किसी को मुश्किल से ही मिलता होगा। पति-पत्नी अपने ही नाम से एक दूसरे को पुकारेंगे । पुकारने से याद आया कि कभी कभी माता पिता ऐसे नाम रख देते हैं जिसके कारण बच्चों को एक अजीब स्थिति का सामना करना पड़ सकता है जैसे ‘प्रिया’ नाम अच्छा है पर राह चलते हर व्यक्ति बेटी को प्रिया पुकारे तो क्या अच्छा लगेगा ! ‘हनी’ या ‘स्वीटी’ भी बेटियों के नाम रखने मे यही ख़तरा है। लोग बेटों के नाम ‘सनम’ या ‘साजन’ तक रख देते है तो ऐसे मे मां बहने क्या कह कर पुकारेंगी ! मै मज़ाक नहीं कर रही मैने ये नाम सुने हैं, शायद आपने भी सुने हों।

एक समय हमारे यहाँ दोहरे नाम रखने के प्रचलन ने भी ज़ोर पकड़ा था। दक्षिण भारत मे भानु-प्रिया, सुधा-लक्ष्मी और जयप्रदा जैसे नाम बहुत पहले से रक्खे जाते थे, उत्तर भारतीयों ने भी यह प्रयोग किया और उदित भास्कर, सुर सरिता या भानु किरण जैसे नाम सुनाई देने लगे। इस श्रंखला मे ही कुछ और नया करने के लिये ‘’शुभी शुभाँगिनी’’, ‘’ प्रीति प्रियंका’’ नाम भी रक्खे गये, इनसे ऐसा लगा कि लोग कहना चाहते हैं कि ‘’हमारी बेटी का नाम तो शुभाँगिनी है पर यह कठिन लगे तो आप उसे शुभी कह सकते हैं। हम भी शुभी ही कहते हैं।‘’ ‘’प्रियंका को भी प्रीति कहा जा सकता है।‘’ दोहरे नाम ने पूरा संदेश दे दिया।

नये से नये नाम की खोज करने वालों का जुनून देखकर कुछ प्रकाशकों ने नामों की पुस्तिकाये भी छाप दी हैं। बाज़ारवाद का नियम है जो बिकता है वही बनता है। हमारे जैसे क्या ,अच्छे अच्छे बड़े बड़े लेखकों और कवियों को प्रकाशक नहीं मिलते, पर नामो की सूचियों की पुस्तिकायें ख़ूब छप रहीं है।छात्र जब पाठ्य पुस्तकें न पढके कुँजियों और गाइड से पढ रहे हैं, तो भावी माता पिता विभिन्न स्रोतों से जानकारी न लेकर इन पुस्तिकाओं से काम चला रहे हैं। नामो को वर्णमाला के अनुसार रखकर, अर्थ सहित और कभी कभी उद्गम की जानकारी के साथ, ये पुस्तिकाये खूब बिक रहीं थी, पर इंटरनैट ने इनकी ज़रूरत को भी कम कर दिया है। नामावलियाँ आज हर चीज़ की तरह इंटरनैट पर भी उपलब्ध हैं। कितना आसान हो गया नाम रखना ! हींग लगे न फिटकरी और रंग चोखा होय !

भारत से अंग्रेज़ चले गये, पर अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत छोड़ गये, काफ़ी हद तक सही है। हम अंग्रेजी को भारतीय भाषाओं से ज्यादा मान देने लगे, रसोई मे पटरे पर न बैठकर मेज़कुर्सी पर बैठकर खाना खाने लगे वगैरह वगैरह परन्तु नामो के मामले मे हमने उनकी नक़ल नहीं की, उनके यहाँ तो गिने चुने नाम हैं टौम ,डिक, हैरी, जेम्स, जौन, डायना या डौना। राजा रानियों के नाम के आगे प्रथम, द्वितीय या तृतीय लगाकर काम चला लेते हैं। हमारे जितनी महनत करके नाम चुनने का काम शायद ही कंही किया जाता हो।

आप सोच रहे होंगे कि मैने आज नाम रखने की प्रक्रिया पर इतना लम्बा प्रवचन कर डाला तो आखिर अपने बच्चों के क्या नाम रक्खे है । चलिये, अपनी बात भी कह देते हैं, बेटी का नाम ‘तनुजा’ है, तनु नाम से पुकारते हैं पर यकीनन उसका नाम ‘तनु तनुजा’ नहीं है। बेटी को उसका नाम पसन्द है, इसके लियें अभी तक कोई शिकायत उसने हमसे नहीं की। हाँ इंगलश के अक्षर ‘T’ से शुरू होने के कारण वर्णमाला के अनुसार बहुत पीछे रह जाता है इसलियें मौखिक या प्रयोगात्मक परीक्षा मे नाम बहुत बाद मे आने से कभी कभी दि़क्कत हो जाती थी।

बेटे का नाम काफी सोच विचार कर ‘अपूर्व’ रक्खा था। उस समय नाम नया सा भी था, पुकारने मे भी अच्छा लगा पर धीरे धीरे कुछ समस्याऐं सामने आईं। हिन्दी मे तो अपूर्व को किसी और ढंग से लिखा नहीं जा सकता पर इंगलिश मे ‘ Apoorv’ की जगह कोई भी Apurv, Apoorva या Apurva भी लिख देता है। अंत मे ‘a’ लगाने से हिन्दी मे भी लोग कभी कभी ‘अपूर्वा’ पुकारने लगते, जो उसे अच्छा नहीं लगता है।अपूर्वा नाम लड़कियों का भी रख दिया जाता है। एक बार तो हद ही हो गई अपूर्व बचपन मे बीमार पड़़ा तो अस्पताल मे भर्ती करवाना पड़ा, कमरे के बाहर मरीज़ के नाम की जगह लिखा था ‘A poor ‘ हुआ ये कि Apoorv के A के बाद कुछ स्थान छुट गया और अंत का ‘v’ गा़यब हो गया। एक और दिक़्कत इस नाम के साथ फोन पर हो जाती है।-

‘’आप कौन बोल रहे हैं ?’’ उधर से आवाज़ आई।

‘’जी, मै अपूर्व बोल रहा हूँ ’’ अपूर्व ने कहा।

‘’अच्छा, कपूर’’ फिर उधर से आवाज़ आई।

‘’जी नहीं, अपूर्व… A for Agra,P for Pune……’’ अपूर्व को अपना नाम समझाना पड़ा।

नामो के विषय पर इतनी चर्चा की है तो चलिये, बीनू की कहानी भी बता देती हूँ। कुछ समय पहले आचार्य संजीव ‘सलिल’ वर्मा जी ने मुझसे पूछा था ‘’तुम्हारे नाम का अर्थ क्या है ?’’

मैने कहा ‘’कुछ अर्थ होता तो मुझसे पहले आप बता देते। सर, निसंदेह यह शब्द निरर्थक है। संभव है वीणा से बीना, फिर बीनू हो गया हो या वाणी से बानी और फिर बीनू हो गया हो।यह भी हो सकता है कि इसका उद्गम संपेरों वाली ‘बीन’ से हुआ हो।‘’

इस नाम की वजह से शुरू से ही बहुत कष्ट उठाये हैं। हर नई कक्षा मे, नये लोगों को नाम बताना उसके हिन्दी और इंगलिश के स्पैलिंग की व्याख्या करना बहुत मुश्किल होता था। सब लोग अपने हिसाब से वीनू, विनु, बिनु वीना या बीना कुछ भी लिख देते थे। इसमे कुछ ग़लती मेरी भी थी। मैने देवनागरी लिपी मे अपना नाम हमेशा ‘बीनू’ लिखा और रोमन लिपि मे ‘Binu’ मुझे यही पसन्द था जबकि आमतौर पर ‘ि’ के लियें ‘i ‘और ी के लियें ‘ee’ ही ध्वनि के अनुसार प्रयोग किया जाता है, इसी तरह ‘ ू ‘के लिये भी ‘oo ‘प्रयोग होता है। ‘B’ और ‘V’ मे उच्चारण की समानता है अतः जिसे जो सही लगता लिख दिया जाता जैसे Beenu, Veenu, Beenoo Veenoo, Beena, Veena वगैरह। मुझे नाम के स्पैलिंग मे बदलाव पसन्द नहीं था इसलियें जगह जगह स्पैलिंग ठीक कराने की कवायत करनी पड़ती थी। एक ही बार यह कवायत नहीं की तो आप ताज्जुब करेंगे अमरीका मे 50 डालर का जुर्माना भरना पड़ा। अपने हिन्दी से लगाव के कारण पासपोर्ट बनवाने के लियें जब फार्म भरा तो हिन्दी मे ही भर दिया और अपना सही नाम ‘बीनू’ ही लिखा पर पसपोर्ट तो इंगलिश मे ही बनना था सो उसमे नाम लिखा था ‘Beenu’, बदलवाने के लियें बहुत लम्बी कारवाही करनी पड़ती इसलिये सोचा चलने देते हैं। 2002 मे मै अमरीका गई थी। टिकिट ‘Binu’ नाम से ख़रीदे गये, अमरीका पंहुच भी गये, वहाँ बिना किसी कठिनाई के कुछ यात्रायें करली परन्तु रौचेस्टर से वाशिंगटन आते समय मुझे रोक लिया गया। यह यात्रा मुझे अकेले ही करनी थी इसलियें बड़ी घबराहट हुई। मैने काफ़ी बहस करी कि जब इतनी यात्रायें करने मे किसी ने आपत्ति नहीं की तो आपको क्या परेशानी है । वह काँउटर पर बैठी लड़की कुछ सुनने को ही तैयार नहीं थी, उसे लगा कि ‘Binu’ और ‘Beenu’ दो अलग व्यक्ति हैं। मुझसे कोई दूसरा पहचान का सबूत माँगा गया जिसमे मेरा नाम Binu हो। अब मै अपना राशन कार्ड और ड्राइविंग लाइसैंस लेकर तो अमरीका गई नहीं थी। अंत मे उस लड़की ने कहा कि मै यात्रा कर सकती हूँ पर 50 डालर जुर्माना भरना पड़ेगा। मरता क्या न करता जुर्माना दिया घबराट मे उसकी रसीद भी नहीं मागी, पता नहीं वह जुर्माना था या कुछ और..

अपने इस नाम बीनू के कारण जो परेशानियाँ उठानी पड़ी वो तो मैने बता दीं,पर इसके लियें मै तो अपने माता पिता को दोष भी नहीं दे सकती क्योकि यह नाम उन्होने रक्खा ही नहीं है। उस ज़माने मे माता पता को नाम रखने की कोई जल्दी नहीं रहती थी। स्कूल जाने के समय नाम सोचते थे तब तक गुड़िया मुन्नी वगैरह से काम चला लिया जाता था। स्कूल भेजने की भी कोई जल्दी नहीं होती थी, 8-9 साल की उम्र तक घर मे ही पढा लिया जाता था फिर जैसा सही लगे कक्षा 5 या 6 मे दाख़िला हो जाता था। छोटे शहरों मे यह आम बात थी।

मुझे घर के बडों द्वारा ऐसा बताया गया था कि उन दिनो एक परिचित परिवार मे एक लड़का था जिसके साथ मेरी अच्छी पटती थी, उसका नाम बीनू था। ज़ाहिर है यह नाम पुकारने के लियें ही रक्खा होगा, वास्तविक नाम तो कुछ और ही रहा होगा। मै उसके नाम से भी प्रभावित थी बस ख़ुद को बीनू कहने लगी तो औरों ने भी कहना शुरू कर दिया। मेरे बड़े भाई जब स्कूल मे दाख़िले के लियें ले गये तो यही नाम लिखवा दिया, तबसे मेरे साथ यह नाम है। अब मुझे यह नाम बुरा भी नहीं लगता बरसों किसी के साथ रहो तो वो जैसा भी हो, उससे प्यार तो हो ही जाता है, फिर ये तो मेरी पहचान है।

मेरी नाम -पुराण पढ़ने से अब तक आपके सर मे दर्द हो गया हो तो क्षमा करें। आप चाहें तो एक सर दर्द की गोली ख़रीद कर खालें, कैमिस्ट से बिल लेकर मुझे या संपादक महोदय को भेज दें। शीघ्र भुगतान हो जायेगा। पढने की हिम्मत करने के लियें धन्यवाद।

 

6 COMMENTS

  1. नाम को लेकर आपने अच्छा खासा लेख लिख दिया है| मैंने अभी अभी भूजाल पर खोजा है कि आपकी अमरीका की यात्रा में आपके नाम को लेकर कठिनाई स्वभाविक है क्योंकि वहां जान माल की सुरक्षा को, विशेषकर ९/११ के पश्चात, और भी अधिक गंभीरता से लिया जाता है| आपके पचास डॉलर और कुछ नहीं शुल्क का भुगतान ही थे| लेकिन यदि आप अपने भारतीय नाम के ध्वन्यात्मक उच्चारण को लेकर दृढ़ बनी रहतीं तो अवश्य ही शुल्क छोड़ दिया जाता| रुचिकर लेख के लिए मेरा साधुवाद|

  2. लेख बहुत ही रोचक लगा… जिसमे हास्य का पुट भी था जो गुदगुदा रहा था … नामकरण से सम्बंधित बाते बिलकुल सही कहीं हैं आपने अपनी नामकरण-पुराण में..जो लम्बा होते हुए भी लम्बा नहीं लगा ..

    और एक बात, गोली की आवश्यकता नहीं पड़ी… इसलिए बिल भी नहीं भेज रहा…

    कृपया ऐसे ही और रोचक विषय लाते रहिये…..धन्यवाद..

    आर त्यागी
    बिजनोर (उ०प्र०)

  3. बीनू जी,
    बहुत मेहनत करी है आपने इस अच्छे लेख की प्रस्तुति में।
    बधाई।
    विजय निकोर

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