क्या टुट गया भ्रष्टाचार मुक्त भारत का सपना ?

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एस .के. चौधरी

आंदोलन, मिडीया और राजनीति !

जिस जंतर-मंतर पर बैठकर डेढ साल पहले अन्ना ने देश को जगाया, उसी जंतर मंतर ने, जनलोकपाल के आंदोलन को एक नया आयाम दिया ।अनशन के रास्ते भ्रष्टाचार से लड़ने की लड़ाई ने मृतप्राय ब्यवस्था से कुठीत हिन्दुस्तान को आगे का रास्ता पहली बार क्या अनशन करते हुए दिखा। शायद हां और शायद नहीं भी। क्योंकि रास्ता राजनीतिक चुनौती की दिशा में जाता जरुर है, लेकिन चुनाव का आधार सिर्फ अनशन से या जनलोकपाल की मांग के आसरे खोजना नामुमकिन है। राजनीतिक विकल्प की तैयारी के लिये अन्ना टीम को भी अब देश के असल हालात को अपने संघर्ष का हिस्सा बनाना होगा। हिन्दुस्तान से राय मांगी गई और टीवी चैनलों, वेबसाईटों और अखबारों के जरिए इंडीया ने टीम अन्ना को राजनीति मे आने की सलाह दे डाली । टीम अन्ना का राजनीतिक विकल्प कितना सही हैं यह तो चुनाव के बाद ही समझ आएगा, क्योकी भ्रष्टाचार एक दिन, एक महिने या एक साल का परिणाम नहीं हैं बल्की ये तो आजादी के समय से हीं देश को अपने गिरफ्त मे लिए हुए हैं, फिर क्यों बार-बार उन्ही भ्रष्ट सरकारों को चुना जाता हैं, अब सवाल ये हैं कि क्या कभी कोशिश हीं नहीं हुई इसे बदलने की या राजनेताओं ने ब्यवस्था हीं ऐसी बना दी की जनता के पास कोई विकल्प हीं ना बचे । टीम अन्ना के राजनीति मे आने के फैसलों को लेकर पुराने समाजवादी नेता बेनी प्रसाद वर्मा (अब कांग्रेस मे हैं) ने कहा की ये इंडीया हैं, यहां लोग बंदरों के खेल देखने के लिए इकट्ठे तो होते हैं लेकिन कोई बंदर नहीं पालता, बेनी बाबू का यह बयान टीम अन्ना के लिए जरुर था लेकिन नेताओं की नजर मे इंडीया की सच्चाई भी कुछ ऐसी हीं हैं । यहां लोग आंदोलन का हिस्सा तो बनते हैं लेकिन वोट के नाम पर अपने रास्ते अलग कर लेते हैं। इस बात की कोई गारंटी नहीं की जिन्होने टीम अन्ना के लिए एसएमएस कर वोट दिए वो चुनाव मे भी उनको वोट दे । खैर हिन्दुस्तान की वोटींग फैक्टर को समझने से पहले इस आंदोलन के रंग-रुप, मिडीया और राजनीति की भूमिका को समझने की जरुरत हैं । पिछले एक साल में अन्ना को जनमानस ने ऐतिहासिक समर्थन दिया। जो अन्ना ने कहा उसने किया, जहां बुलाया वो चला आया। ऐसे में सवाल ये है कि इस बार वो क्यों नही आए? या उसके समर्थन में वो ऊर्जा, वो सहजता, वो आकर्षण क्यों नहीं दिखा ? क्या जनमानस बदल गया है? क्या जनमानस का अन्ना और उनकी टीम पर से भरोसा उठ गया है? उसी जंतर मंतर पर एक साल पहले जब अन्ना अनशन पर बैठे तो सिर्फ चार दिन मे पुरे हिन्दुस्तान ने उन्हे अपने सर आंखों पर बिठा लिया । अप्रैल 2011 मे शुरुआत हुई एक उम्मीद की, और अगस्त मे वो उम्मीद जीत मे बदलते हुए दिखने लगी लेकिन साल के अंत में जीत की उम्मीद खत्म होने लगी। राजनीतिक पार्टियों से लोग पहले ही उम्मीद खो चुके थे। जनांदोलन ने उम्मीद बंधाई कि वो भ्रष्ट व्यवस्था को बदलने में कामयाब होगी। जब सरकार और राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान ने अपनी चालबाजियों से इस भरोसे को भी तोड़ दिया है। इस बार जंतर मंतर पर इकट्ठा हुए लोगों ने साफ कहा कि अन्ना ने बड़ी गलती कि रामलीला मैदान से उन्हें उठना नहीं चाहिए था। वो सरकार के बहकावे में आ गए। लोकपाल बिल तब बन सकता था। अब नहीं। नेताओं के बारे मे वही पुरानी लाइने लोग इस्तेमाल कर रहे थे, कुछ गालीयां दे रहे थे तो कुछ उन्हे गोली तक मार देने की बात कर रहे थे, सरकार की बेरुखी देखकर लोग कहने लगे की अब ये कानून नहीं बनाएंगे अन्ना कुछ भी कर लें, कितना ही अनशन क्यों न कर लें? यानी लोग एक बार फिर अप्रैल 2011 के पहले की स्थिति मे पहुंचते नजर आए। ‘उम्मीद-की-टूटन’ ही अन्ना के नए अनशन को वो आग नहीं दे पाई जो उसने रामलीला मैदान में दिखाई थी। पिछले साल अन्ना ने जब जनआह्वान किया था तब जनमानस की ताकत के सामने सरकार झुकी और उसने लोकपाल बनाने वाली कमेटी में अन्ना और उसकी टीम को जगह दी। अप्रैल ने लोगों में आशा का भयानक संचार किया। ऐसे में जब अन्ना ने रामलीला मैदान में अनशन का ऐलान किया तो जीत की एक और उम्मीद से जनता फिर जुटी। और आजादी के बाद और टेलीवीजन इतिहास मे पहली बार किसी गैर राजनीतिक आंदोलन इतनी बड़ी भीड़ लोगों ने देखी। सरकार और संसद एक बार फिर झुकी संसद और सरकार ने वायदा किया कि लोकपाल बिल बनेगा। और जल्दी ही पास भी हो जाएगा। लेकिन इसके बाद सरकार ने रंग बदला। वो अपने वायदे पर कायम नहीं रह पाई। दिसंबर महीने में लोकसभा में बिल पास तो किया लेकिन राज्यसभा में बिल लटक गया। लोकपाल कानून बनेगा ये दावे से नहीं कहा जा सकता। उम्मीद धूमिल पड़ गई है। उस जनलोकपाल का हश्र संसद के अंदर क्या हुआ समुचे देश ने रातभर टीवी के सामने बैठकर देखा, लोकपाल बिल को लेकर राजनैतिक सोंच को राजनीति प्रसाद ने 29 अगस्त को संसद मे दिखाया जब लोकपाल बिल की कॉपी तक फाड़ दी । टेलीवीजन इतिहास के युग मे यह पहला ऐसा आंदोलन था जो जाती धर्म से उपर था । ऐसा क्या हुआ कि भ्रष्टाचार की यह लड़ाई कमजोर पर गई.. क्या सरकार अपने मकसद मे कामयाब हो गई हैं..क्योंकी सरकार और उसके मंत्री आंदोलन के शुरुआत से हीं यह आरोप लगाते आए हैं कि टीम अन्ना राजनीति मे आना चाहती हैं और वह अपना प्लेटफॉर्म तैयार कर रही हैं । जो अब खुलकर कपिल सिब्बल सहीत कई मंत्री भी कहने लगे हैं कि हमें तो पहले से पता था कि इनका एजेंडा क्या हैं । सरकार की कामयाबी उनके नुमाइंदो के चेहरों पर साफ दिखने लगा हैं । पिछले साल के आंदोलन के समय सरकार की मुखिया और कांग्रेस पार्टी की अध्यक्षा सोनीया गांधी देश से बाहर थी, और उनकी गैरमौजुदगी मे सरकार ने जो फैसले लिए वो उसी के गले की हडडी बन गई, सरकार का एक गलत फैसला अन्ना को गिरफ्तार करना, या उनके मंत्रीयों और नेताओं के द्वारा आंदोलन के खिलाफ मे बोलना उसे महंगी पड़ी, कई गलत फैसलों ने आंदोलन को हवा देने मे आग मे घी की तरह काम कर गई और पिछला आंदोलन सफल रहा । इस बार सरकार पहले से सचेत थी, उसके पास मुकम्मल प्लान था, सोनीया गांधी यही हैं और संसद कांड के बाद से हीं सरकार अपने एजेंडे पर काम कर रही थी, लगातार अन्ना और उनकी टीम के खिलाफ वातावरण बनाने का काम जारी था बिच-बिच मे टीम के सदस्य भी अपने बयानों और कार्यशैली से सरकार के एजेंडे को सफस करने मे मदद करती रही । इस बार के अनशन मे सुबह से आधी रात तक हरी दरी पर बदलते चेहरों के बीच यह एक सामान्य सा सवाल था। की वही सरकार। वही नेता। वही ताने। । फिर रास्ता कैसे निकलेगा। पहले सरकार के चेहरे खुलकर कहने लगे कि दम है तो चुनाव लड़ लो। और इस बार मंच पर अनशन किये टीम अन्ना के सदस्यों के बीच भी यह सुगबुगाहट चल निकली थी, और वही हुआ सरकार की इग्नोर करने की स्ट्रेटजी काम कर गई, राष्ट्रपित चुनाव के बाद कांग्रेस ने डैमेज कंट्रोल का हिस्सा बनाकर यह तय कर लिया था कि इस बार नहीं झुकेंगे, सरकार का कोई मंत्री जंतर- मंतर नही जाएगा..इस बिच एक दिन महाराष्ट्र के मुख्यंमंत्री अशोक चाह्वान ने फोन पर आंदोलन का हाल-चाल लिया था उस समय लगा की सरकार का इशारा हैं बातचित का विकल्प खुले रखने का । हो सकता हैं अगर आंदोलनकारी एक-दो दिन और इंतजार करते तो कोई ना कोई रास्ता जरुर निकल जाता, जैसा कि इंडीया अगेंस्ट करप्शन के सदस्य और वोलेंटीयर भी मानते हैं जो टीम के इस फैसलें से नाराज भी हैं ।

इस आंदोलन मे मिडीया की एक बड़ी भूमिका रही हैं, पिछली बार के आंदोलन मे मिडीया के भूमिका को लेकर सरकार के कुछ मंत्री और नेता सहीत मिडीया जगत के कुछ दिग्गज भी सवाल उठाते रहे, लगातार आंदोलन को कवरेज मिल रहा था खास कर न्यूज चैनलों के द्वारा, हालांकी उस बार भी सरकार ने कुछ मिडीया हाउसों को मैनेज किया था जो लगातार आंदोलन की आलोचना करते रहे लेकिन सरकार ने शायद देर कर दी थी या यूं कहें नीरा राडीया सहीत कुछ जाने माने पत्रकारों पर दलाली के आरोप ने मिडीया के विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए थे मिडीया को मौका मिला उसने अपना डैमेज कंट्रोल किया। और दुसरी वजह आंदोलन के साथ जनभावना का जुडना था जो मिडीया को मजबुर कर रहा था साथ हीं न्यूज चैनलों की टीआरपी इंटरटेनमेट चैनलों से मुकाबला कर रही थी । हालांकी भारतीय मिडीया स्वतंत्र हैं अपने हिसाब से खबरों को दिखाने और छापने के लिए इसलिए उससे यह उपेक्षा करना ठिक नहीं था कि इस बार मिडीया और सरकार की सांठगांठ की वजह से जानबुझकर आंदोलन को कमजोर करने के लिए गलत खबर दिखाई जा रही थी । एक पल को ये मान लिया जाए की सरकार ने मिडीया को मैनेज किया भी था तो क्यों एक जनआंदोलन को मिडीया का मोहताज होना पड़ा ये सवाल खुद टीम अन्ना को अपने आप से पुछना चाहिए था बजाय मिडीया पर आरोप लगाने और नाराजगी जाहिर करने के । इस बार के अनशन मे मिडीया ने कम से कम उनकी बोलती तो जरुर बंद कर दी पिछली बार जिन्हे लगता था कि जंतर मंतर और रामलीला मैदान का जनसमुह टेलीवीजन चैनलों के कैमरों की वजह थी, क्योकी इस बार भी हर छोटे बड़े मिडीया ग्रुप के रिपोर्टर वहां लगातार कवरेज कर रहे थे, भिड़ अगर कैमरों की वजह से होती तो यकिनन जंतर मंतर रामलीला मैदान बन चुका होता औऱ टीम अन्ना को भी मिडीया से शिकायत भी नहीं होती । हां इन सबके बिच टीम अन्ना की मिडीया से शिकायत उनकी महात्वाकांक्षा को जरुर जगजाहीर कर दिया । अन्ना की टीम ने यह साफ जरुर कर दिया की उनकी खुद की क्षमता क्या हैं, मिडीया का भूखा हर कोई होता हैं लेकिन एक आंदोलन कारी को मिडीया की जरुरत नहीं पड़ती, मेघा पाटकर समेत ऐसे कई उदाहरण हैं इस देश मे, जिन्हे कभी किसी की जरुरत नहीं पड़ी वे अपना काम सच्चे दिल से करते रहे जब- जब मिडीया को लगा उसने उनको तहरीज दी, लेकिन कभी मेघा पाटकर को मिडीया से शिकायत नही हुई । टीम अन्ना की लालसा तो सामने आ हीं गई साथ मे मिडीया की कमजोरी भी सामने आई कल तक जो मीडिया, अन्ना और भ्रष्टाचार के अलावा किसी और मुद्दे पर बात नहीं करता था वहीं आज भ्रष्ट नेताओं और भ्रष्टाचार के स्थान पर बात होने लगती है अरविंद केजरीवाल की, बाबा रामदेव की और उनके सहयोगी बालकृष्ण की. एनबीए और बीइए टीम अन्ना के खिलाफ तो प्रेस रिलीज जारी कर सकती हैं लेकिन मिडीया कर्मियों के लगातार बिगड़ते हालात, शोषण और बदहाली के लिए जिम्मेदार प्रतिस्ठानों के खिलाफ कुछ नहीं कर सकता, अगर मिडीया इतनी पाक साफ होती तो प्रशांत भूषण और टीम अन्ना को नोटीस भेजने की जरुरत नहीं पड़ती, क्योकी मिडीया दुसरों की छवी बनाता है अपनी नहीं और अगर अपनी छवी को लेकर खुद मिडीया को सफाई देनी पड़े तो मामला कोई भी समझ सकता हैं । टीम अन्ना भी अपनी नाकामी की वजह बड़े साफगोई से मिडीया को बताकर पल्ला झाड़ गई, हो सकता हैं पारंपरिक मिडीया को मैनेज किया गया हो लेकिन पिछली बार जो समर्थन सोसल मिडीया पर था वह भी इस बार फिका पड़ गया क्यों…. क्या सोसल मिडीया को भी किसी ने मैनेज किया था । मंच के ऊपर लिखा है बड़े बड़े अक्षरों में www.facebook.com/indiaagainstcorruption यानी सोशल मीडिया को पूरी तरज़ीह दी गई. फिर भी जोश नहीं दिखा ।

इस बार आंदोलन को इसलिए नाकामयाब माना गया कि भिड़ कम थी, क्या किसी आंदोलन के कामयाबी का पैमाना सिर्फ भिड़ ही होती हैं अगर ऐसा हैं तो 1984 मे दिल्ली, 2000 मे गुजरात के सड़को पर जो हुआ भी उसका कारण भी भिड़़ थी… भिड़ को देखकर सवाल ये हैं कि क्या भ्रष्टाचार खत्म हो गया इस देश से या लोगों की समस्याएं कम हो गई जो इस बार लोगों ने दिलचस्पी नहीं दिखाई, इसके कई कारण हो सकते हैं ।लोग परेशान तो हैं लेकिन इन परेशानियों के बिच सबकी कुछ जिम्मेदारियां भी हैं जिसे निर्वाह करना पड़ता हैं । एक अनशनकारी ये सोंचकर अनशन नहीं करता कि उसके समर्थन मे भिड़ जुटेगी, गांधी जी ने कहा था कि अनशन कोई साइंटीफिक चिज नहीं हैं जिसे जो जब चाहे आजमा ले, अनशन करनेवाला यह मानकर चलता हैं कि उसकी जान भी जा सकती हैं लेकिन इस बार का अनशन शायद भिड़ को देखने के लिए हीं किया गया था । चौधरी चरण सिंह के एक आदेश के खिलाफ छात्रों ने तब तक अनशन नहीं तोड़ा जब तक आदेश को वापस नहीं लीया गया । अगर अन्ना के आंदोलन मे इस बार लोग कम आए तो इसका कारण भी खुद टीम अन्ना ही थी, लोग पिछले एक साल मे कन्फ्ूज हो गए थे कि टीम मे चलती किसकी हैं कभी अरविंद केजरीवाल कुछ कहते हैं तो कभी मनीष सिसोदिया ऐसा लगा टीम की कमान किसी के हाथ मे नहीं हैं अन्ना सिर्फ नाम के लिए हैं आंदोलन के नेता हैं ।जबकी किसी भी आंदोलन को सफल बनाने के लिए एक मजबूत नेतृत्व की जरुरत होती हैं । टीम अन्ना अपने आंदोलन के साथ तो लोगो को जोड़ना चाहती थी लेकिन अपनी टीम के साथ किसी को नहीं उन्हे डर हैं कि आंदोलन के सफलता का श्रेय कहीं औऱ लोगों मे ना बट जाए इसलिए आजतक उनकी टीम मे सिर्फ वही पुराने चेहरे दिखे ।कई फैसले तो ऐसे हुए जिनसे यह लगने लगा कि टीम अन्ना को यह भ्रम हो गया हैं कि वे हीं सबकुछ हैं…कहने को तो वे लोगों के बिच जाते रहे लेकिन रवैया किसी फिल्म स्टार से कम नहीं था, कितनी सभाओं मे वे आमलोगों से मिलते थे, मंच पर भाषण नेता और फिल्म स्टार भी देते हैं लेकिन कभी-कभी वे भी आमलोगों से मिल लेते हैं..अरविन्द केजरीवाल या उनकी टीम जब भी कोई इंटरव्यू देते हैं सिर्फ कुछ गिने-चुने बड़े चैनलों और अखबारों को हीं जैसा की हर बड़ा स्टार या मंत्री करते हैं ।मतलब वे अपने आप को मंत्रीयों और सुपस्टारों की श्रेणी मे देखने लगे । टीम ने पिछले डेढ़ साल में अपनी शैली में कोई बदलाव भी नहीं किया। न तो उनकी ‘स्ट्रेटजी’ मे ‘नयापन’ दिखा और न ही उनके ‘मकसद’ में। अन्ना हो या फिर अरविंद या फिर प्रशांत भूषण अपने आप को बार-बार दोहराते से दिखे। वे यह भूल गए कि भारतीय समाज नए दौर में सांस ले रहा है। गांधी जी को अपना संदेश कश्मीर से कन्याकुमारी तक पहुंचाने में सालों लगे थे और जेपी को महीनों तो अन्ना को चंद घंटे या चंद दिन। यानी ये ‘संचार-युग’ है। टीम यह भूल गई संदेश जितनी तेजी से फैलता है उतनी ही तेजी से मरता भी है। मार्केटिंग की इस ‘ट्रिकबाजी’ में अन्ना और टीम पिछड़ गई। अन्ना आज भी वही पुराना भाषण देते है । अप्रैल में ये बात नई थी लोगों को अपील करती थी अब नहीं ।

क्या वाकई देश एक ऐसे मुहाने पर आ खड़ा हुआ है जहां से आगे का रास्ता संविधान को तार तार करेगा। भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरु हुई एक जंग अब अनशन का रास्ता छोड़ ब्यवस्था परिवर्तन के लिए राजनीति के कठिन डगर पर चलने को तैयार हैं । अरविंद केजरीवाल ने अनशन खत्म करते समय अपने राजनैतिक तैयारियों और भागिदारियों के बारें लगभग आधे घंटे तक बताया, हालांकी जो कुछ भी उन्होने मंच से बताया उसे सुनकर यकिन तो हुआ कि वाकई अगर ऐसा हुआ तो देश बदलेगा । अगर वाकई राजनीति के रास्ते संसद को पवित्र करने कि यह योजना सफल रही तो वो दिन दुर नहीं जब डॉलर के मुकाबले रुपया का दाम बढेगा और पुरी दुनीया भारत पर निर्भर होगी, क्योंकी इस देश मे आपार क्षमता हैं जरुरत हैं सच्चे दिल से इस क्षमता को बढाने की, लेकिन टीम अन्ना के इस फैसले ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं, अरविंद जिस व्यवस्था से तंग आकर अपनी नौकड़ी छोड़ चुके हैं दुबारा उसी ब्यवस्था मे शामिल होकर क्या वो बदल पाएंगे हिन्दुस्तान की भ्रष्ट ब्यवस्था को, क्योकि राजनीति एक ऐसी काजल की कोठरी हैं जिसमे बेदाग रहना मुश्किल हैं । मौजुदा चुनावी ब्यवस्था मे पैसा सबसे प्रबल दावेदार हैं, एक विधानसभा सीट को पाने के लिए लोग कड़ोरो रुपये खर्च कर देते हैं, कहां से आएगा इतना पैसा, क्या गारंटी हैं कि इतना पैसा जिसके पास होगा वो भ्रष्ट नहीं होगा, क्योकी आज इमानदारी से कमाने वाले के पास इतना पैसा होना नामुमकिन हैं, राजनैतिक पार्टीयों को जो चंदा देते हैं वो अपने मकसद को पुरा करने की गारंटी मनी के रुप मे देते हैं, फिर इनको जो चंदा देगा क्या वाकई वो समाज सेवा के लिए होगा । इस देश मे लगभग 400 राजनीतिक पार्टीयां रजीस्टर्ड हैं, अगर ये राजनिती मे आए तो हो सकता हैं कि वे उन वोटकटवा पार्टीयों की कतार मे खड़ी ना हो जाए.. हालांकी इस देश की सड़ी हुई ब्यवस्था को सुधारने के लिए अंतिम विकल्प शायद ब्यवस्था मे घुसकर ब्यवस्था को बदलने की हैं । वक्त आ गया है कि अब लोकतंत्र और संविधान विरोधी आंदोलन की शुरुआत इस देश में हो जाये। क्योकी खराबी लोकतंत्र या संविधान में नहीं खराबी तो राजनीतिक सत्ता में है। सरकारों में है। व्यवस्था में है। बदलना है तो उन्हें बदलें । आंदोलन उन्हीं के खिलाफ हो । जब इस देश का संविधान बनाया गया था उस समय भारत कि आबादी सिर्फ 36 कड़ोर थी जो आज 1 अरब को पार कर चुकी हैं, लेकिन वही कानुन वही बय्वस्था अगर देश के पास कुछ हैं तो राजनीतिक पैकेज या कल्याणकारी योजनाएं जो फाइलों मे अधिक कारगर और सफल हैं.. हालांकि अभी भी मेरा साफ मानना है कि अन्ना के आंदोलन को जो लोग चुका हुआ मान चुके हैं वो गलती कर रहे हैं। सड़क पर आकर लड़ने के जज्बे में थकान आ सकती है लेकिन समर्थन में कमी आई है ये मैं नहीं मानता। ऐसे में अन्ना के आंदोलन को बुलबुला मानने की गलती मैं नहीं करूंगा। कांग्रेस यह गलती एक बार कर चुकी हैं जिसका परिणाम उसे हाल हीं मे हुए चुनावों मे दिखा भी हैं, भले पार्टी यह ना माने की उनकी हार टीम अन्ना के आंदोलन की वजह से हैं, लेकिन कांग्रेस को यह भी नहीं भूलना चाहिए की इस देश की सबसे बड़ी घोटालों की सरकार यूपीए-2 हैं जिसे लोग इतनी आसानी से भूलेंगे । इसलिए कांग्रेस को ज्यादा खुश होने की जरुरत नहीं हैं क्योकी हो सकता हैं कि पार्टी अपने पारंपरिक वोटर को बहका ले, लेकिन बाकी वोट लेना इस बार आसान नहीं होगा । टीम अन्ना ने जो फैसला लिया हैं अगर वाकई मे वो उसमे सफलता चाहते हैं तो सबसे पहले उसे अपने स्टार होने का भ्रम तोड़ना पडेगा और इन दो सालों मे खुद लोगों के बिच जाकर उन्हे जगाने की जरुरत हैं क्योकि टीवी चैनलों और अखबारों से सहायता के मामले मे वे आंदोलन की कवरेज तो पा सकते हैं चुनावों की नहीं । जितने ज्यादा लोगों को जोड़ेगे उतना हीं फायदा उनकी पार्टी को और शायद देश को भी होगा..

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  1. पिछले महीने दिल्ली में एक समाचार एजेंसी के वरिस्ट पत्रकार से वार्ता का सुयोग मिला. मैंने पूछा की अन्नाजी के द्वारा भरष्टाचार के विरुद्ध आन्दोलन के बावजूद आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी जैसे भ्रष्ट नेता की पार्टी को अठारह में से पंद्रह स्थानों पर विजय का क्या अर्थ है. उन्होंने सपष्ट कहा की जो लोग अन्नाजी के आन्दोलन की आड़ में टी वी पर अपनी शक्लें दिख रहे थे उनमे से कितने प्रतिशत वोट डालते हैं.और जो लोग वोट डालने जाते हैं उन पर इस प्रकार के शहरी मिडिया पोषित आंदोलनों से कोई फर्क नहीं पड़ता. क्योंकि उन लोगों ने भ्रष्टाचार के साथ सहस्तित्व स्वीकार कर लिया है और उसके साथ जीना सीख चुके हैं. अतः वो उपलब्ध में से सबसे उपयुक्त को वोट देकर अपना फ़र्ज़ अदा कर लेते हैं. अब अन्नाजी की पार्टी क्या करेगी, कैसे साधनों और कार्यकर्ताओं की कमी के बावजूद स्थान स्थान पर अपना अभियान ले जायेंगे. इस कार्य में बाबा रामदेव जी ने समझदारी दिखाई और उन्होंने पिछले काफिसमय से ग्राम स्तर तक अपने स्वदेशी केन्द्रों की स्थापना का अभियान चला रखा है.उनकी योजना देश भर में एक लाख स्वदेशी केंद्र खोलने की है और ये कार्य काफी तेजी से चल रहा है. ये अभियान न केवल संगठन खड़ा करने में सहायक होगा बल्कि आन्दोलन से जुड़े लाखों कार्यकर्ताओं को लाभदायक रोजगार देने वाला भी होगा. साथ ही इन स्वदेशी केन्द्रों को माल की आपूर्ति हेतु जिन इकाईयों में उत्पादन होगा उनमे भी लाखों लोगों को रोजगार प्राप्त होगा. गांधीजी ने भी तो कड़ी भवनों के माध्यम से आन्दोलन के लिए लाखों कार्यकर्ता तैयार किये थे और ये कड़ी भंडार आज तक भी कांग्रेस के लिय कम करते आ रहे हैं तथा सर्कार भी इन्हें कर्मुक्ति तथा सब्सिडी के रूप में भरी सहायता देती है.पोलिटिकल पार्टी की घोषणा करके अन्नाजी ने आन्दोलन की हवा निकाल दी है.

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