क्या भारतीय मीडिया सबक लेगी?

  कुंवर बी. एस. विद्रोही

इंगलैंड के सबसे ख्यातनाम अखबार ‘न्यूज ऑफ द वर्ल्ड’ के मालिक रूपर्ट मर्डोक अपनी अतिवादी व्यवसायिक नीति के कारण 168 वर्ष पूराना अखबार जिसे दुनिया का सबसे बड़ा अखबार होने का गौरव प्राप्त था। एक झटके में बंद ही नही करना पड़ा, बरन खुद को भी जेल की हवा खानी पड़ी है। और साथ ही उनके समय साथी, कर्मचारी, राजनेता, पुलिस अफसर थी जांच के दायरे में आ गए।

मीडिया मुगल की नजर में अखबार संस्थान एक उत्पाद कंपनी और खबर एक प्रोडक्ट थी। उनकी सोच थी कि कैसे भी, कहीं से भी, ऐसी मिर्च मसालेदार चटपटी, सनसनीखेज खबरें लाओ कि अखबार खूब बिके, जरूरत पड़े तो अखबार बिकने का मतलब अधिक विज्ञापन प्राप्त होना और अधिक धन कमाने का अवसर। और ऐसा करना वे और उनके प्रशिक्षित कर्मचारी भी करते थे। किसी संपादक-संवाददाता ने उनकी अखबार की गलत नीति का विरोध नहीं किया। वैसा किया जैसा रूपर्ट मर्डोक चाहते थे। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि अखबारों की मुख्य साधन विज्ञापन ही होते हैं। कमसिन लड़की मिली की फोन टैपिंग ही नही किए, बल्कि उनकी मौत की खबर को छुपाए रखने के अपराध में रूपर्ट मर्डोक का मीडिया साम्राज्य का पतन एक झटके में हो गया। बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि भारतीय मीडिया रूपर्ट मर्डोक के पदचिन्हों पर चलकर अपना भविष्य तलाश रही हैं। आज अखबार संस्थान कॉर्पोरेट संस्थान की तरह संचालित किए जा रहे हैं। अधिकांश अखबार विशुध्द व्यवासायी की तरह कार्य कर रहे हैं। और अपने व्यवसाय की काली करतूतों-गोरखधंघों पर पर्दा डालने के लिए अखबार प्रकाशित कर रहे हैं। धन, बल से बौध्दिक संपदा का अपहरणकर, उसे अपनी मनमर्जी से उपयोग कर रहे हैं। अखबार के संपादक-संवाददाता मजबूरीवश उनकी ही मर्जी का काम करने के लिए विवश होते हैं। ऐसे अखबार स्थायी जनमानस की बाहबाही लूटने एवं खुद को बरिष्ठ समाजसेवी स्थापित करने के लिए समय-समय पर कुछ सामाजिक कार्यक्रम आदि अखबार संस्थान के माध्यम से करते रहते हैं। कोइ संपादक-संवाददाता उनके अनैतिक काम का विरोध नही करता। यह इसलिए कि सभी को अपने परिवार का भरण-पोषण करना है। अंतःखंड स्टांप की तरह अक्षयबट अखबार संस्था की आज्ञायों का पालन करते रहते हैं। अखबार स्थायी के सुर में सुर मिलाना उनकी मजबूरी होती है। अखबार के माध्यम से व्यवसायी अखबार स्वामी राजनैतिक लोगों से करीबी संबंध स्थापित कर राजनैतिक लाभ लेने में नहीं चूकते, वर्तमान समाज में अखबार जनसेवा नही, धन कमाने वाली औद्योगिक संस्थाओं की तरह चलाया जा रहा है। वास्तव में अखबार जनमानस के समस्याओं के निराकरण का मंच होता है। अखबार समाज और राजनीति नौकरशाही के बीच एक आदर्श मध्यस्थ की भूमिका निभाता है। समाज का चौथा प्रहरी ही यदि समाज पर रौब गाठने लगे तो पीड़ित समाज कहां जाए! अखबारों की भी एक न्यायिक सीमा होती है। रूपर्ट मर्डोक इसका स्पष्ट उदाहरण है।

नेता-अभिनेता को जुखाम होता हैतो खबर मुख्य पृष्ठ पर कवरेज होती है। जबकि गरीब की झोपड़ी जलती है। रसूखदार जमीन अधिग्रहण करने के लिए किसान की सरेआम हत्या कर दी जाती है। तो कोई खबर नहीं बनती और प्रकाशित भी हुई तो हाशिए पर डाली जाती है। क्यों? इसी तरह देश और समाज की राष्ट्रवादी खतरों को कितना कवरेज मिलता है। खबर की बानगी देखिए ‘ऐश्वर्या राय बच्चन मां बनने वाली है।’ और ‘मिलेनियम स्टार बिग-बी दादा बनने वाले हैं।’ दिल्ली और मूंबई में करोड़ों के सट्टे लगाए जा रहे हैं कि ऐश्वर्या को लड़का होगा अथवा लड़की, इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया मातृत्व के इस भौंडा प्रदर्शन को बढ़ा-चढ़ाकर हाइलाईट्स कर रहे हैं। क्यों? ऐश्वर्या राय बच्चन ऐसे कौन-सी महान विभूति को जन्म देनेवाली है। जो देश का उध्दार करेगा। शब्दों से महिमा मंडन कर यह चाटूकारिता शर्मनाक है। भारतीय मीडिया को समय रहते अपने आचरण को सुधार लेना चाहिए। क्या देश और समाज के लिए शुभ है। उसे प्रकाशित करना चाहिए। अखबार को पीड़ित समाज के आंसू पोछने का काम करना चाहिए। आज हम देख रहे हैं। अखबार को नया कलेवर (सास-सज्जा) के नाम पर हिंदी दैनिक अखबारों में अंग्रेजी भाषा का तड़का लगाया जा रहा है। क्यों? क्या हिंदी के शब्द अभिव्यक्ति करने में सक्षम नही है। या पाश्चात्य भाषा को हम श्रेष्ठ समझ कर महिमा मंडन कर रहे हैं।

पैसा कमाने की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में आज मीडिया संस्थान भी पीछे नही है। अखबार खूब बिके इसके लिए पाठकों को उपहार देकर खुद के अखबार को थोपने का कार्य किया जा रहा है। परंतु सुधि पाठक जनता है। कौन-सा अखबार क्या छाप रहा है। और हमें क्या पढ़ना है। पाठक खबरों से मुखातिव होने के लिए पढ़ता है। विज्ञापन दर्शन के लिए नहीं हम देखते हैं। अखबार के मुख्यपृष्ठ पर अखबार नाम के आजू-वाजू उपर-नीचे एंकर न्यूज के स्थान पर भी विज्ञापन प्रकाशित किए जा रहे हैं। विज्ञापन भी अच्छे उत्पाद के हो, जो समाज के बेहतरी में काम करे ऐसे फूहड़ सेक्सूअल नहीं, जो पाठक की मानसिकता को पथभ्रष्ट नैतिक पतन करे, लेकिन ऐसे विज्ञापन प्रकाशित होते हैं। बानगी देखे जैसे एडल्टफिल्म, सेक्सपावर दवाओं के, टाइमपास प्रेम के लिए भी डायल करे तथा और भी तमाम जिनके बारे में बालक पूछे तो पाठक क्या जबाब दे। सिवाय टाल-मटोल करने के, लेकिन ऐसे बोगस विज्ञापन छाप रहे हैं। पाठक न चाहकर भी झेल रहा है।

हॉफपेज-फूलपेज विज्ञापन लगे होते हैं। अब खबरे कहां लगाई जाए, हम यह भी नहीं कहते कि विज्ञापन से आय होती है। आप न लगाए, विज्ञापन प्रकाशित करें पर पेज बढ़ा दें। खबरों के स्पेस पर अतिक्रमण नहीं होना चाहिए। अन्यथा हिंदी अखबार और एक टेबलॉयड अखबार में क्या फर्क रह जाएगा, अखबारों में डेक्स न्यूज नहीं लगाना चाहिए, ऑन द ग्राउंड न्यूज तैयार करनी चाहिए, जहां तक हो सके लैटर पैड न्यूज की विश्वसनीयता को परखे बिना। ज्यों का त्यों प्रकाशित करने से परहेज करना चाहिए। साथ ही कार्पोरेट जगत एवं राजनैतिक पार्टियों से प्रेस वार्ता में मौजमस्ती और उपहारों से नवाजे जाने से बचना चाहिए। क्योंकि तभी हम खबर के साथ ईमानदारी से न्याय कर सकते हैं। उपकृत होकर की गई रिपोर्टिंग महज यशोगान ही होगी, अखबार का संपादन एवं संवाददाता समाज के सजग प्रहरी की भूमिका में होने चाहिए। एक दो बार प्रेसवार्ता में शामिल होने का अवसर मिला, जैसा कि आज प्रेस वार्ताओं में होता है। प्रेस नोट बांटे गए, फोटो पत्रकारों ने फ्लैश चटकाए, खाना-पीना हुआ, एक दो वरिाष्ठ पत्रकारों ने सवाल जबाब भी किए, विदाई के समय हमारे कोषाध्यक्ष से पूछा भईए! सबकुछ समझ में आया, किंतु यह गिफ्ट का माजस समझ में नही आया, वे बोले विद्रोही जी किस युग में जी रहे हो पर्याप्त कबरेज पाने के लिए यह रिश्वत दी गई थी। क्योंकि उपहार भी एक तरह की रिश्वत ही है। हम स्वयं आदमी की आदत खराब करते हैं। आगे जो गिफ्ट नहीं देता है। उसकी न्यूज हाशिए पर जाना स्वाभाविक है।

रूपर्ट मर्डोक के मीडिया साम्राज्य का पतन फोन टेपिंग एवं मौत की खबर छुपाना मंहगा पड़ा, अमेरिका का वॉटर गेट कांड में राष्ट्रपति निक्सन को पद से स्तीफा देना पड़ा था। भारतीय मीडिया को उक्त घटना क्रम से सबक लेना चाहिए। ग्वालियर शहर में भी नमक, मिर्च, आटा, दाल, चावल और पानी बेचने वाले अखबारों के स्वामी मालिकों को चिटफंड मामले में गिरफ्तारी वारंट जारी हुए हैं। और कार्यालय एवं चल-आल संपत्ति राजघाट की गई है। ये अखबार स्वामी खबरें कम अपने प्रोडक्ट के विज्ञापन ज्यादा परोस रहे थे।

धन कमाने के लिए कई और साधन व्यवस्था किए जा सकते है। किंतु मीडिया जनसेवा का मंच होता है। गांधी का ‘हरिजन’ पक्ष पंडित नेहरू का पक्ष ‘नेशनल हेरॉल्ड’ आवाम की शसक्त आवाज थे, राष्ट्रीय आंदोलन में अहम भूमिका निभाई थी।

* लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। 

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