क्या परंपरा बनेगी हूटिंग

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-प्रमोद भार्गव-

Narendra_Modi

प्रधानमंत्री के किसी भी सरकारी आयोजन में संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री का हाजिर रहना लोकतांत्रिक शिष्टाचार और अतिथि के सम्मान के तहत जरूरी है। यह आचार-व्यवहार के स्थापित नियम मसलन प्रोटोकॉल का भी तकाजा है। वैसे भी भारत के लोकतंत्र में प्रधानमंत्री मुख्यमंत्री या अन्य संवैधानिक पदों पर आसीन हुए नेता किसी दल या गठबंधन मात्र के प्रतिनिधि न होकर पूरे देश या अथवा राज्य के नेता हो जाते हैं। इसीलिए प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में विरोधी दल के मुख्यमंत्री के उपस्थित रहने की शानदार व उदार परंपरा है। किंतु नरेंद्र मोदी के शासनकाल में यह आषंका मजबूत होती दिखाई दे रही है कि हूटिंग की बेजा हरकतों के चलते कहीं यह परंपरा टूट न जाए ? क्योंकि कांग्रेस के केंद्रीय नेत्त्व ने ऐलान कर दिया है कि वे प्रधानमंत्री के किसी कार्यक्रम में हिस्सा न लें। साथ ही ऐसी ही अपील कांग्रेस ने अन्य विपक्षी दलों के मुख्यमंत्रियों से भी कर डाली। नकारने के इस आचरण को देश के संघीय ढांचे और लोकतंत्र की मर्यादा के अपुरूप नहीं कहा जा सकता है ?

किसी सार्वजनिक सभा में नेता का अपमान हो तो उसका मन आहत होगा ही। क्योंकि नेता भी एक सामान्य नागरिक होता है और आम नागरिक की तरह उसमें भी गुण-दोष होते हैं। इच्छा के विपरीत घटनाएं किसी भी नेता की संवेदनशीलता को प्रभावित करके उन्हें अपमानित होने का अहसास कराती हैं। यदि यह अपमान सार्वजनिक सभा में हो तो व्यक्ति कहीं ज्यादा आहत होता है। हालांकि नेता अपने लंबे राजनीतिक जीवन में कभी न कभी भीड़ के विरोध से दो-चार जरूर होते हैं। एक ही दल के विरोधी गुटों में भी हूटिंग की स्थितियां बनती रहती हैं। लोकसभा या विधानसभा के टिकट वितरण के दौरान तो ऐसी घटनाएं आमतौर से हरेक दल में देखने को मिल जाती हैं। लेकिन सारकारी कार्यक्रम की अपनी एक गरिमा होती है। लिहाजा उसमें नेता या कार्यकर्ताओं का आचरण दलगत भावना से उपर उठा हुआ दिखाई देना चाहिए। किंतु पिछले दिनों जो देखने में आया वह न केवल अशोभनीय रहाबल्कि ऐसा लगा कि हुड़दंग को अंजाम देने वाली हरकतें राष्ट्र-राज्य कि संघीय अवधारणा को चटकाने का काम कर रही है। इस टकराहट का चरम जिस तरह से प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में मुख्यमंत्रियों के बहिष्कार की सीमा तक पहुंच गया हैवह आचरण संवैधानिक परंपरा की गलत शुरूआत है।

हुड़दंग की हरकत की शुरूआत हरियाणा के कैथल से हुई। यहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक सरकारी मंच पर हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के साथ मौजूद थे। हुड्डा ने जब जनसभा को संबोधित किया तो उनका मोदी-मोदी नारों के साथ तल्ख विरोध हुआ। इसके बाद इसी बेजा हरकत की पुनरावृत्ति झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के साथ हुई। इन हरकतों के पूर्व सोलापूर में ऐसी ही घटना महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान के साथ घट चुकी थी। तत्पश्चात इन दोनों मुख्यमंत्रियों ने घोषणा कर दी कि वे भविष्य में प्रधानमंत्री के किसी भी कार्यक्रम में हिस्सा नहीं लेंगे। नतीजतन पृथ्वीराज चौहान ने मोदी के साथ नागपुर में मेट्रो परियोजना उद्घाटन समरोह में मंच साझा करने से इंकार कर दिया। हेमंत सोरेन तो हूटिंग से इतने पीड़ित हुए कि उन्होंने इस शर्मनाक घटना को संविधान में दर्ज संघीय व्यवस्था के साथ बलात्कारजैसी हरकत बताई।

विडंबना यह देखने में आई कि नरेंद्र मोदी ने हूटिंग की इन हरकतों का मजबूती से विरोध नहीं किया। बल्कि व कुटिलापूर्वक मुस्कराते रहे। इस कुटिल मुस्कान को भाजपा कार्यकर्ताओं ने शायद प्रोत्साहन समझ लिया,नतीजतन हरेक कार्यक्रम में विपक्षी मुख्यमंत्री के संबोधन पर हूटिंग का सिलसिला बदस्तूर रहा। इस कुटिलता में सत्ता के अहंकार की झलक भी दिखाई देती है। इसका दुष्परिणाम यह निकला की जब केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर झारखंड पहुंचे तो हवाई अड्डे पर उन्हें झारखंड मुक्ति मोर्च के कार्यकर्ताओं ने दो बार काले झंडे दिखाए और उनके खिलाफ जबरदस्त नारेबाजी की। भाजपा कार्यकताओं ने जब इस खिलाफत के परिप्रेक्ष्य में नाराजी जताई तो दोनों दलों के समर्थक आपस में भिड़ गए। पुलिस को बीच-बचाव करना पड़ा। हूटिंग की इन षर्मनाक हरकतों पर राजनीतिक दलों ने समझदारी से काम नहीं लिया तो कालांतर में परस्पर विरोध की ये हरकतें बेवजह की लड़ाई का सबब बन जाएंगी।

दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह भी रही कि जब भाजपा नेता और प्रवक्ताओं ने इन घटनाओं के क्रम में जो प्रतिक्रियाएं जताईंउनने दूषित माहौल शांत करने की बजाय और भड़काने का काम किया जबकि सत्ताधारी दल होने के नाते उनकी नरम रूख अपनाने की जबावदेही बनती थी। उन्हें दलगत भावना से उपर उठकर बड़प्पन जताने की जरूरत थी। उन्हें अपने ही दल के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की आदर्श परंपराओं का भी ख्याल रखने की जरूरत थी। उनके कार्यकाल में इस तरह के टकराव के हालात एक भी मर्तबा निर्मित नहीं हुए। जबकि उनके समय ज्यादातर राज्यों में राजग विरोधी दलों की सरकारें थीं। यही वह कालखंड थाजब मध्य प्रदेशउत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राजनीतिक दृष्टि मजबूत राज्यों का शांतिपूर्वक बंटवारा हुआ। छत्तीसगढ़झारखंड और उत्तराचंल नए राज्य वजूद में आए। लेकिन क्या मजाल है कि अटलजी व केंद्रिय नेतृत्व को असंतोषजनक स्थिति का सामना करना पड़ा हो ? जबकि इन तीनों राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें थीं।

हालांकि जिन राज्यों के मुख्यमंत्रियों को हूटिंग की लज्जाजनक स्थितियों का सामना करना पड़ा हैउनमें से हरियाणा और महाराष्ट्र में चुनाव नजदीक हैं। इसलिए इन राज्यों में नरेंद्र मोदी के कार्यक्रम में राजनीतिक रूप में परिवर्तित हो जाने की आशंकाएं स्वाभाविक थीं। यहां मुख्यमंत्रियों के साथ दिक्कत यह होती है कि वे अपने कार्यकाल की उपलब्धियों को बढ़ा-चढ़ा कर गिनाने लग जाते हैं। चूंकि ज्यादातर लोक कल्याणकारी योजनाएं प्रशासनिक नकामियों के कारण जनता तक या तो पहुंच ही नहीं पाती या भ्रष्टाचार के रूप में शुल्क चुकाकर पहुंचती हैं। लिहाजा ऐसे अतिष्योक्तिपूर्ण गुणगाणों पर सहज ही जनता का गुस्सा शोर-शराबे या हूटिंग के रूप में उबल पड़ता है। फिर भीड़ का अपना कोई विवके भी नहीं होता कि वह संयम बरतने की दृष्टि से स्व-नियंत्रण कर ले। ऐसे में सत्ता पक्ष की कुटिल मुस्कानें परोक्ष रूप से शह देकर भीड़-तंत्र को उकसाने का ही काम करती हैं। लिहाजा सत्ता पक्ष का नैतिक तकाजा होना चाहिए कि वह इन हरकतों पर अंकुश लगाने का व्यवहार जताए। क्योंकि संघीय व्यवस्था में मुख्यमंत्रियों के सहयोग के बगैर केंद्रीय योजनाओं को जमीन पर नहीं उतारा जा सकता है। फिर मोदी तो हरेक भाषण में कह रहे हैं कि राज्यों का साथ लिए बिना और उनका विकास किए बिना देश आगे नहीं बढ़ सकता ? लेकिन हूटिंग के ये हालात आचरण का दोहरा एवं छद्म चरित्र पेश कर रहे हैं। सत्ता का यह अहंकार राज्यपालों को इस्तीफा देने व बर्खास्त करने में भी दिखाई दिया है। नेता विपक्ष-पद की अनदेखी करने में भी दिखाई दिया है। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को भी कहने को मजबूर होना पड़ा कि लोकसभा में विपक्ष के नेता समेत अन्य सभी वैधानिक निकायों में विपक्ष की भूमिका के प्रावधानों की अपनी अहमियत है। लिहाजा राजनीतिक दलों को  परस्पर तालमेल बिठाकर उभर रही कटुता को दूर करने की जरूरत हैअन्यथा जैसे को तैसा सबक सिखाने की ही परंपरा पुख्ता होगी,जो कटुता बढ़ाकर लोकतंत्र को कमजोर करेगी।

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  1. उस समय सभी पार्टियाँ चुप बैठी थीं या शकुनी के स्टाइल में मुस्कुरा रही थीं जब : ——————- जय आप ! केजरीवाल को थप्पड़ः ‘लोकतंत्र का सबसे ख़तरनाक पल’
    अपूर्वानंद
    विश्लेषक, बीबीसी हिंदी डॉटकॉम के लिए
    रविवार, 13 अप्रैल, 2014 को 09:31 IST तक के समाचार ————————————————————— कैमरा बार-बार जा कर उसी क्षण पर टिकता था. मेरी बेटी ने विचलित होकर कहा, “चैनल बदल दो, अच्छा नहीं लग रहा.”
    लेकिन चैनल उस थप्पड़ की आवाज़ न सुना पाने की लाचारी की भरपाई उस दृश्य को दुहरा-दुहरा कर कर रहे थे. उन्हें मेरी सोलह वर्षीय बेटी की तड़प क्योंकर सुनाई दे?
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    टेलीविज़न को हमले से ज़्यादा इस पर ऐतराज़ था कि अरविंद को क्यों एक आम आदमी के ग़ुस्से के इज़हार के पीछे कोई साज़िश नज़र आई!
    अरविंद वह पूछ रहे थे जो दरअसल पत्रकारों को पूछना चाहिए था कि क्यों इस चुनाव अभियान में ——————–एक ही नेता पर और उसके बाक़ी सहयोगियों पर शारीरिक हमले हो रहे हैं! यह भी कि ये हमले तभी से क्यों शुरू हुए जब से इस दल ने कांग्रेस पार्टी के साथ बराबरी से भारतीय जनता पार्टी की आलोचना शुरू कर दी!———————
    लेकिन चैनलों को इस पहलू में दम नज़र नहीं आता. एक तरफ़ तो यह कहा जा रहा है कि जनता का क्रोध सबसे अधिक कांग्रेस पार्टी के प्रति है. लेकिन इसका उत्तर खोजने की कोशिश नहीं की जा रही कि यह ग़ुस्सा अरविंद केजरीवाल पर क्यों प्रकट हो रहा है!
    अरविंद पर हुआ हमला भयानक था. उनकी आँख को गहरी चोट लगी और उनका पूरा चेहरा उस वार से सूज गया. हमला नाटकीय भी था और वह दृश्य बनता था. पहले माला पहना कर फिर वार करना. इससे कई यादें ताजा हो सकती हैं: गांधी को नमस्कार करके उन पर गोली चलाना, राजीव गांधी को माला पहना कर उन्हें बम से उड़ा देना. इसलिए भी इस हमले की गंभीरता को समझा जाना चाहिए था. यह नाक़ाबिले मंजूर है, ऐसा किसी ने जोर देकर कहा नहीं.
    अरविंद सुरक्षा घेरा ले सकते हैं, लेकिन अब तक वे इससे इनकार करते रहे हैं. जो आज थप्पड़ है वह कल गोली या बम न होगा, ऐसा यकीन के साथ कोई कह नहीं सकता. किसी ने गुजरात या बनारस में उन पर हुए बारम्बार हमले को भी गंभीरता से नहीं लिया. मानो इस तरह गुस्सा ज़ाहिर करना लोकतांत्रिक ही है.
    गुजरात में ऐसे हमलों का साक्षी रह चुका यह लेखक जानता है कि वे किस तरह नियंत्रित किए जाते हैं. जब आप थोड़ी चोट या ज़ख्म के साथ छोड़ दिए जाते हैं तो सन्देश यह होता है कि तुम्हारी जान मेरे रहमोकरम पर है. उसमें बच जाना भी हमलावर के प्रति कृतज्ञता के लिए पर्याप्त है: क्या वह चाहता तो आपकी जान नहीं ले लेता! या तुम इस क़ाबिल भी नहीं कि तुम्हें ख़त्म किया जाए! ———
    पर इस तरह के दुष्कर्म के आयोजक ये भूल जाते हैं कि मुम्बई गढ़चिरौली से मात्र कुछ घंटों की दूरी पर है और जेड प्लस सेक्यूरिटी की ताकत शुक्ला मंत्री पर हमले के समय पूरा देश देख चुका है – वे कुछ नहीं कर पाए जबकि पित-पुत्र दोनों की जेडप्लस सेक्यूरिटी थी —————- फिर प्रश्न है कि ऐसी परम्परा क्यों विकसित की जा रही है जिसमें खोदने वाले को भी गड्ढे में गिरना ही है ? ? ? ? ? जय हिंद !!!

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