मैंने पूछा साँप से दोस्त बनेंगे आप।
नहीं महाशय ज़हर में आप हमारे बाप।।
कुत्ता रोया फूटकर यह कैसा जंजाल।
सेवा नमकहराम की करता नमकहलाल।।
जीव मारना पाप है कहते हैं सब लोग।
मच्छड़ का फिर क्या करें फैलाता जो रोग।।
दुखित गधे ने एक दिन छोड़ दिया सब काम।
गलती करता आदमी लेता मेरा नाम।।
बीन बजाये नेवला साँप भला क्यों आय।
जगी न अब तक चेतना भैंस लगी पगुराय।।
नहीं मिलेगी चाकरी नहीं मिलेगा काम।
न पंछी बन पाओगे होगा अजगर नाम।।
गया रेल में बैठकर शौचालय के पास।
जनसाधारण के लिये यही व्यवस्था खास।।
रचना छपने के लिये भेजे पत्र अनेक।
सम्पादक ने फाड़कर दिखला दिया विवेक।।
इसी सन्दर्भ में कविवर अगेय की यह कविता याद आ जाती है:
सांप तुम सभ्य तो हुए नहीं,
शहर में रहना भी नहीं आया,
(एक बात पूंछू , उत्तर दोगे?)
यह दंश कहाँ से सिखा?
यह विष कहाँ से पाया?
आ० महेन्द्र जी, आ० प्रभुदयाल जी – आपकी टिप्पणी प्रीतिकर और उत्साहवर्धक है – हार्दिक धन्यवाद – महेन्द्र जी – अच्छा लगा जो आपने श्यामल सुमन को शुक्ल जी कहकर सम्बोधित किया।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
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कुत्ता रोया फूटकर यह कैसा जंजाल।
सेवा नमकहराम की करता नमकहलाल।।
दुखित गधे ने एक दिन छोड़ दिया सब काम।
गलती करता आदमी लेता मेरा नाम।।
जीव मारना पाप है कहते हैं सब लोग।
मच्छड़ का फिर क्या करें फैलाता जो रोग।।
शुक्लाजी, मानव प्रवर्ती की तो बखिया ही उधेड़ कर रख दी आपने बहुत सुन्दर
अच्छी रचना बधाई