जब – जबरा बोले …!!

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mediaतारकेश कुमार ओझा
बचपन में पढ़ी उस कहानी का शीर्षक तो अब मुझे याद नहीं, लेकिन सारांश कुछ हद तक याद है। जिसमें सब्जी बेचने वाली एक गरीब महिला का बेटा किसी हादसे में गुजर जाता है। लेकिन परिवार की माली हालत और गरीबी की मारी बेचारी उसकी मां को दो दिन बाद ही फुटपाथ पर बैठ कर सब्जी बेचने को मजबूर होना पड़ता है। उसे देख कर लोग ताने देते हैं… कैसी बेशर्म औरत है, अभी दो दिन नहीं हुए बेटे को मरे, और चली आई है सब्जी बेचने…। उसे क्या – क्या नहीं कहा जाता। कुछ लोग उसे कलियुगी मां तक करार दे देते हैं। हालांकि उस अभागिन मां की आंखे आंसुओं से भरी है। यह उसकी मजबूरी है कि शोक के बावजूद अपना और परिवार का पेट भरने के लिए उसे बाजार में बैठने को मजबूर होना पड़ता है। इस दौरान लोग इलाके के ही उस संभ्रांत – अमीर परिवार की महिला का बार – बार जिक्र करते हैं जिसके साथ भी यही विडंबना हुई है। लेकिन फर्क यह कि वह महीने भर से बिस्तर पर पड़ी है। नौकर – चाकर लगातार सिर पर पट्टी रखते हुए सेवा में लगे हैं। डाक्टरों की फौज लगातार उसकी तबियत पर नजर रख रहे हैं। एक ही विडंबना दो अलग – अलग मां का भिन्न स्वरूप पेश करती है। गरीब बेबस मां के शोक पर भी अमीर का गम भारी पड़ता है। अपने देश में आम – आदमी और तथाकथित बड़े आदमियों यानी सेलिब्रेटियों का भी यही हाल है। आम आदमी के मुंह से भूल से भी कुछ निकल जाए तो उसकी फजीहत और ऐसी – तैसी तय है। लेकिन ये सेलिब्रिटीज अपने फायदे के लिए चाहे जितनी बेहूदी बातें करें, उनके बयान पर चाहे जितना शोर मचे, लेकिन इसमें भी पर्दे के पीछे से आखिरकार उनको लाभ ही होता है। लगातार कई दिनों तक सुर्खियों में बने रहते हैं। जम कर प्रचार होता है। विवाद एक सीमा से ऊपर गया तो झट बयान जारी कर दिया कि उसका इरादा ऐसा नहीं था। उसकी बातों को तोड़ – मरोड़ कर पेश किया गया। यदि उसकी बातों से किसी को दुख पहुंचा हो तो … वगैरह – वगैरह। बस बात खत्म और जनाब फिर से अपने काम – धंधे पर। क्योंकि वे जबर हैं। लेकिन क्या आम – आदमी के साथ भी यह सहूलियत है। हाल में बालीवुड के दो खानों ने असहिष्णुता का राग छेड़ते हुए यहां तक कह दिया कि बच्चों की चिंता में उनकी घर वाली देश छोड़ने तक की सोचने लगी थी। यह तो उनकी महानता है कि अब तक देश में ही बने रह कर जनता पर अहसान कर रहे हैं। घरवाली की चली होती तो वे कब का विदेश में सैटल हो चुके होते। अब अल्पबुद्धि वाले तो इतना ही जानते हैं कि घर – परिवार और देश कोई अपनी मर्जी से नहीं चुन सकता । यह तो जो नसीब में लिख गया उसे जीवन भर निभाना ही है। लेकिन सेलिब्रेटीजों की बात अलग है। इनका वश चले तो ये जन्म से पहले ही अपने पसंदीदा देश का चुनाव कर लें कि भैया मुझे यह देश मेरी च्वाइश नहीं, मैं तो फलां देश में जन्म लूंगा। यह जबर होने का ही परिणाम है कि जो बात कहने पर एक आम – आदमी के सामने जेल जाने की नौबत आ जाए, वही बात कहने पर इन बड़े लोगों के बचाव में हर दिन नए – नए लोगों की फौज खड़ी होती रहती है। कोई कहता है… अरे उसके कहने का मतलब ऐसा नहीं रहा होगा… वह तो बड़ा समझदार आदमी है, मुझे नहीं लगता उसने ऐसा कहा होगा। आखिर वह बड़ा आदमी है… उनका बड़ा नाम है… उसने इतने सालों तक बालीवुड के जरिए उन्होंने देश और जनता की सेवा की है, उसका कुछ तो लिहाज करना चाहिए। जरूर मीडिया ने उसकी बातों में नमक – मिर्च लगा कर मसालेदार बनाया होगा। आश्चर्य कि रंग के हिसाब से अलग – अलग राजनेता भी उसके समर्थन या विरोध में लामबंद होते रहते हैं। यहां भी राजनीतिक नफा – नुकसान हावी दिखता है। यह तथाकथित बड़े होने का ही तो फायदा है। क्या अपने देश में यह कभी संभव नहीं होगा कि बेहूदा और आपत्तिनजक बातें कहने पर समाज के हर वर्ग के लोग एक स्वर में उसकी लानत – मलानत करे। ताकि भविष्य में दूसरे इससे सबक लें। मीडिया भी ऐसे तत्वों का महिमामंडन करने के बजाय या तो निष्पक्ष तरीके से बयान का विश्लेषण कर दोषी को सबक सिखाए या फिर ऐसे बयान से दोषी को व्यापक प्रचार देने के बजाय कम से कम चुप ही रहे।

2 COMMENTS

  1. तारकेश्वर ओझा जी, जिस कहानी के सन्दर्भ के साथ आपने इसआलेख का आरम्भ कियाहै,वह एक सुप्रसिद्ध वाम पंथी विचार धारा वाले लेखक की प्रस्तुति है.इन वामपंथियों की निगाह में कोई धनवान व्यक्ति न तो दुःखी हो सकता है और न डर सकता है.पर वास्तविकता इससे कोसों दूर है.मैं मानता हूँ कि एक धनवान के दुःख या डर को ज्यादा उजागर .किया जाता है,पर है,तो आखिर वह भी दुःख या डर हीं न. आप जब इस पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर सोचेंगे तो अख्लाख़ और आमिर एक ही जगह खड़े मिलेंगे.आमिर या शाहरूख उसी डरे हुए समाज के अंग हैं,जहाँ अख्लाख़ का रिवार या कालबुर्गी जैसे विचार धरा वाले लोग हैं.जब तक आपलोग यह नहीं समझेंगे,तब तक इस राष्ट्र की उन्नति संभव ही नहीं है.

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