पुनर्वास नीति बनाते समय झुग्गियों में रहने वालो की राय भी शामिल हो

आर.एल.फ्रांसिस

हम इस देश के नागरिक हैं। हमारे वोटों की तरफ हर राजनीतिक पार्टी ललचाई नजर से देखती है।वह हमारे वोट की ताकत से दिल्ली नगर निगम और दिल्ली सरकार पर कब्जा कर सत्ता में आना चाहते हैं। उन्हें हमारी नहीं हमारे वोट की जरुरत है। इसीलिए तो सत्ता में आते ही वह हमें शहर से खदेड़ने की रणनीति बनाने में लग जाते है।

हम सबुह उठकर अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए निकल जाते है दिनभर यही शंका बनी रहती है कि जब हम शाम को लौटकर घर आएगे तो क्या हमारा घर उसी स्थिति में होगा जिसमें हम उसे सुबह छोड़ कर गए थे। क्योंकि आजकल सरकार जब चाहे अपनी ताकत और बुलडोजर चलाकर हमारे सिर से छत छीन लेती है। यह पीड़ा महानगर में झुग्गियों में बसने वाले लाखों-करोड़ों लोगो की है।

शहर की 35 से 40 प्रतिशत आबादी झुग्गी-बस्तियों में बसती है यह ऐसी जगहें है जहा लोग नारकीय स्थितियों में जीवन व्यतीत कर रहे है। कोई उनकी मदद नही करना चाहता क्योंकि उन पर अवांछित प्रवासी होने का ठप्पा लगा दिया गया है। यह सच है कि वह प्रवासी है लेकिन वह किसी बहारी देश से नही आये है, वह भारतीय हैं। गरीबी ने उन्हें शहरों की खाक छानने को मजबूर कर दिया है वे दिल्ली जैसे महानगर की उत्पादक शक्ति है इस शहर के आर्थिक जीवन का अभिन्न हिस्सा है, पूंजीपतियों से लेकर मध्यवर्गीय और मंत्रियों से लेकर सरकारी बाबूओं तक यह अपनी सेवाएं देते है इस सबके बावजूद हम इन्हें महानगर पर एक दाग के समान देखते है हालांकि हम यह भी जानते है कि अगर यह न हो तो हमारा जीवन कितनी मुि”कलों भरा होगा। इस सबके बावजूद हम इनसे लेना ही चाहते है और बदले में उन्हें अच्छा जीवन स्तर और रिहाईश देने की उपेक्षा दुत्कार देते है।

इसी सप्ताह मुझे गांधी शांति प्रतिष्ठान में ‘झुग्गी-झोपड़ी एकता मंच’ के एक कार्यक्रम में अमंत्रित किया गया जिसमें दिल्ली की चालीस झुग्गी-बस्तियों के प्रतिनिधियों एवं तीस जनसंठनों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। व्यवस्था और राजनीतिक पार्टियों द्वारा बार-बार धोखा खायें इन लोगों के पास व्यवस्था के प्रति शिकायतों का पिटरा भरा पड़ा है और उन्हें सुनने के लिए हमारी व्यवस्था के पास फुर्सत ही नही है।

झुग्गी झोपड़ी एकता मंच के अध्यक्ष जवाहर सिंह ने कहा कि कॉमनवेल्थ गेम्स की आड़ में शहर के सौर्दयकरण के नाम पर सरकार और व्यवस्था ने झुग्गियों में बसने वाले लोगों को अपना निशाना बनाया और उनका जमकर उत्पीड़न किया है। बड़े स्तर पर झुग्गियों में रहने वालो को उजाड़ कर सड़के और फलाई ओवर बनाये गए। वर्ष 2010 में झुग्गियों में कई स्थानों पर बड़े अग्निकांड हुए जिनमें 2540 घर तबाह हो गए और लोगों की जमापूंजी जलकर खाक हो गई। वैकल्पिक व्यवस्था किये बिना 19 बस्तियों के दस हजार लोगो को उजाड़ दिया गया। उजाड़े गये लोगों के स्कूलों में पढ़ने वाले हजारों बच्चे सकड़ पर आ गए क्योंकि जब रहने का ठिकाना ही नही तो पढ़ाई कैसी ?

महानगरों में बढ़ती झुग्गी-बस्तियां हमारी व्यवस्था की नकामी का प्रतीक है इनमें रहने वाले अधिकांश युवा और बेरोजगार है वे उन क्षेत्रों से महानगरों में आये है जिनकी तरफ हमने ध्यान देने की जरुरत ही महसूस नही की। वे प्रसन्ता से अपनी जड़ों को छोड़कर महानगरों में नही आएं है यह स्थिति हमारे राजनीतिक तंत्र द्वारा पैदा की गई है। हम आज आर्थिक सुधारों के मायाजाल में ऐसे धसे हुए है कि हमें अपने आस-पास बिलबिलाते यह दीनहीन मानव भी दिखाई नही देते।

हम में से बहुत यह सोचते है कि यह झुग्गियां शहर पर एक दाग की तरह है या बिलकुल वैसे ही जैसे नये कपड़े पर कुछ पुराना घीसा हुआ कपड़ा सिल दिया जाए। क्या हमने इस नजरिये से कभी सोचा है कि यह झुग्गियां शहर पर दाग है या वास्तव में हमारी नकारा व्यवस्था पर ? सरकार हर हाल में दिल्ली को झुग्गी मुक्त बनाने के प्रयास में लगी है पर महानगर में झुग्गियों में रहने वाले लाखों लोग सरकार की पुर्नवास नीति को सही नही मानते। अधिकांश इससे आहत है कि उनकों उनकी रोजी-रोटी से उजाड़कर दूर-दराज फैंका जा रहा है। ऐसा पुर्नवास उनकी स्थिति सुधारने की उपेक्षा उन्हें और नारकीय जीवन की और धकेल रहा है।

सामाजिक कार्यकर्ता और ‘झुग्गी-झोपड़ी एकता मंच के महासचिव अरविंद कुमार कहते है कि दिल्ली सरकार की पुनर्वास नीति में बड़ी खोट है सरकार की कट ऑफ डेट 2002 और 2007 है हम उसे 31 मार्च 2010 करने की मांग कर रहे है। सर्वे के दौरान सरकारी अधिकारी एवं कर्मचारी तालाबंदी दिखा कर बहुत सारे सही पात्रता रखने वाले गरीबों को योजना से बाहर कर देते है। सरकार राजीव रतन आवास योजना लेकर आई है इसमें इतनी खामियां है कि झुग्गियों में रहने वाले इसका लाभ उठा सकने की स्थिति में नही है।

कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली की मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित के निर्वाचन क्षेत्र गोल मार्किट की राजा बाजार झुग्गी-बस्ती के हजारो परिवारों को सौंर्दयकरण के नाम पर यहां से उठाकर हौलम्बीकला में पुनर्वासित किया गया था। यहा के अधिक्तर पुरुष कनॉट प्लेस, गोल मार्किट, पहाड़गंज जैसे क्षेत्रों में अपनी जीविका कमाते थे और महिलाएं गोल मार्किट क्षेत्र में बसते सरकारी कर्मचारियों के घरों में घरेलू कार्य करती थी। पुर्नवास के नाम पर उनकी छत ही नही रोजगार के साधन भी छिन गये। उनमें से कुछ महिलाओं ने कहा कि हम अब समूह में अपने कार्यक्षेत्र में बहुत सवेरे चार बजे ही घर से निकल आती है और लोगों के घरों में कार्य करके रात दस बजे के बाद अपने घर पहुंचती है इस रोजमर्रा की भागदौड़ के कारण उनका जीवन नरक बन गया है।

सरकारी योजनाएं और पुर्नवास नीति बनाते समय उन लोगों की राय ही नही ली जाती जिनके लिए करोड़ों-अरबों की यह योजनाएं बनाई जाती है। व्यवस्था पर एकाधिकार जमाये हमारे राजनेता एवं अफसरशाही ऐसी योजनाओं को लागू करने पर अड़े रहते है जो पड़ितों को राहत पहुंचाने के स्थान पर नुकसानदायक साबित होती है। पुर्नवास के मामले में उजाड़े जाने वाले लोगो की राय को भी शामिल किया जाना चाहिए तांकि उन्हें आवास के साथ साथ रोजगार के साधन भी उपलब्ध हो सके। बिना रोजगार-परक पुर्नवास नीति के कोई मायने नही है।

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