कब तक छलेंगे कोरे वादों से जनसेवक रियाया को!

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लिमटी खरे 

तालियों की गड़गड़ाहट वह भी अपने कहे वाक्य पर! भई वाह क्या कहने। कौन नहीं चाहता प्रशंसा सुनना, परनिंदा से भी ज्यादा सुख मिलता है आत्म प्रशंसा में। चुनावों के दरम्यान राजनेताओं द्वारा वायदों की बौछार कर दी जाती है, मतदाता बुरी तरह से भ्रमित हो जाता है चुनावों के दौरान। जैसे ही चुनाव बीते वैसे ही जनसेवक अपने वादों को दरकिनार कर अपने अपने निहित स्वार्थों मंे जुट जाते हैं। यह हकीकत है, इस बारे में मीडिया में जब तब कोई न कोई खबर प्रमुख स्थान पा ही जाती है। हाल ही में दिल्ली के लोकायुक्त वजीरे आजम की नामराशि जस्टिस मनमोहन सरीने ने पिछले चुनावों में दिल्ली की कुर्सी पर तीसरी मर्तबा काबिज शीला दीक्षित को उनके वायदों के लिए न केवल कटघरे में खड़ा किया है, बल्कि महामहिम राष्ट्रपति को पत्र लिखकर सिफारिश भी की है कि महामहिम शीला दीक्षित को आगाह अवश्य करें कि भविष्य में इस तरह की बयानबाजी करने से बाज आएं

मंच से बोलते समय तालियों की गड़गड़हाट सुनने को बेचेन राजनेता अक्सर अपना संयम तोड़ देते हैं। कभी कभी तो सुर्खियों में बने रहने भी नेताओं द्वारा आम जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया जाता है। जब बात जनादेश पाने की हो तब तो नेताओं के मुंह में जो आता है वह वायदा कर दिया जाता है। यह भी नहीं सोचा जाता कि इसे पूरा कैसे किया जाएगा। मामला चाहे शीला दीक्षित द्वारा साठ हजार तैयार मकानों को गरीब गुरबों को सौंपने का हो या फिर हृदय प्रदेश में केंद्रीय छटवा वेतनमान जस का तस लागू करने का हो, हर बार अंत में मतदाता अपने आप को ठगा सा ही पाते हैं। उधर मामला चाहे उत्तर भारतीयों को लेकर मनसे प्रमुख राज ठाकरे का हो या फिर शिवसेना प्रमुख बाला साहब ठाकरे का। दोनों ही नेताओं ने जात पात और क्षेत्रवाद की बात कहकर लोगों के मन मस्तिष्क में जहर बो दिया है।

इस मामले में दिल्ली की मुख्य मंत्री शीला दीक्षित भी पीछे नहीं हैं। कुछ समय पूर्व उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों पर टिप्पणी करने के बाद उन्हें लाख सफाई देनी पड़ी थी। पिछले साल राजधानी दिल्ली से सटे बदरपुर विधानसभा क्षेत्र में भी एक कार्यक्रम के दौरान शीला दीक्षित ने एक विवादस्पद बयान दे डाला। बदरपुर विधानसभा क्षेत्र के अलीपुर ग्राम में चुनाव पूर्व वे ढेर सारी सौगातें लेकर गईं थीं। स्थानीय निवासियों ने वहां शासकीय योजनाओं, अस्पताल, राशन, सड़क बिजली पानी की समस्याएं गिनाते ही उनके मुंह का जायका खराब हो गया। झांसी की रानी की मानिंद शीला दीक्षित चिंघाड़ीं थीं।

उन्होंने उस वक्त कहा था कि सरकार ने सब कुछ दिया है, दिल्ली वासियों के लिए। और अगर बिचौलियों दलालों के चलते गफलत हो रही हो तो लोग खासतौर पर महिलाएं मोर्चा संभालें। अगर तब भी बात न बने तो पिटाई भी की जाए, और अगर आवश्यक्ता पड़े तो दिल्ली में मुख्यमंत्री कार्यालय में आकर इस बात की इत्तला भी दी जाए। 2013 में फिर विधानसभा चुनाव हैं इसलिए शीला दीक्षित की जुबान फिर फिसलना स्वाभाविक ही है।

दिल्ली की महिला मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की वीर रस भरी सलाह सुनकर रणबांकुरों की बाहों में मछलियां अवश्य फड़कने लगी होंगी। लोगों ने अपने दिल दिमाग में राशन वाले बनिया की पिटाई की काल्पिनिक कहानी भी गढ़नी आरंभ कर दी होगी। इंसाफ दिलाने का यह काफी पुराना किन्तु घिनौना तरीका है। इस कबीलाई संस्कृति की मिसालें यदा कदा देश में सुनने को मिल जाती हैं।

अगर व्यवस्था असफल हुई है तो निश्चित रूप से सूबे का निज़ाम इसके लिए पूरी तरह जिम्मेदार कहा जा सकता है। सूबे का निज़ाम ही जब इस तरह की वीर रस भरी सलाह देने लगे तो बस चल चुका लोकतंत्र। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने अलीगांव के लोगों को जिस रास्ते पर चलने की प्रेरणा दी है, वे खुद नहीं जानती कि वह सड़क कहां जाकर समाप्त होती है। सदी के महानायक अमिताभ बच्चन और सदी के खलनायक प्राण अभिनीत फिल्म ‘‘कालिया‘‘ का एक डायलाग यहां प्रसंगिक होगा जिसमें जेलर की भूमिका में प्राण अपने केदी अमिताभ से कहता है -‘‘जुर्म के जिस रास्ते पर तुम चल चुके हो, कालिया, तुम नहीं जानते यह रास्ता जेल की कालकोठरी में ही जाता है।‘‘

देश की राजनैतिक राजधानी दिल्ली में वहीं की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित की चिंघाड़ से साफ हो गया था कि यह अराजकता के आव्हान के अलावा और कुछ नहीं है। शीला दीक्षित ने परोक्ष रूप से स्वीकार कर लिया है कि हम सूबे को चलाने में असफल हुए हैं, अब आप ही सत्ता संभालें या जो आपको करना हो करें, हम आंख बंद कर सब कुछ देखेंगे चाहे वह जायज हो या नाजायज। पूर्व में नाजायज को भी उन्होंने आंख बंद कर स्वीकार किया है, तभी तो इस तरह की विस्फोटक स्थिति निर्मित हुई है।

सत्तर के दशक के उत्तरार्ध तक देश में सीमेंट भी परमिट पर मिला करती थी। उस वक्त दलालों ने खूब मलाई काटी। आज भी कमोबेश वही हालत बने हुए हैं। सरकारी क्षेत्र में आज आधी से ज्यादा सेवाएं निजी क्षेत्रों को सौंप दी गई हैं। ठेका लेने वाला अपनी मर्जी के हिसाब से जनता को लूट रहा है। देश में केंद्र और राज्य सरकारें क्या करने जा रही हैं। मसलन, सड़क है तो वह भी बनाओ, कमाओ, फिर सरकार को सौंपो (बीओटी), बिजली भी निजी हाथों में अर्थात जितना लूट सकते हो लूट लो।

केंद्र में सौदेबाजी की राजनीति के माहिर खिलाड़ी कहे जाने वाले शरद पवार किसी से कम नहीं हैं। मराठा क्षत्रप और केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पंवार ने तो साफ तौर पर अपील की थी कि किसानों को साहूकार का ब्याज नहीं चुकाना चाहिए। शायद शरद पंवार ज़मीनी हकीकत से रूबरू नहीं हैं। वे नहीं जानते हैं कि किसान ने जो कुछ भी रहन (गिरवी) रखा होगा वह डूब जाएगा। इन परिस्थितियों में आत्म हत्या करने वाले किसानों के घरों से न जाने कितने ‘‘ज्वाला, जीवा या शंकर डाकू‘‘ पैदा हो जाएंगे।

राजनेता के पीछे दौड़ने वाली जनता में से कुछ चाटुकारों को छोड़कर शेष चालीस फीसदी तो उन्हें अपना आदर्श ही मानते हैं, और अगर राजनेता ही मरने मारने, भगने भगाने जैसे बयान देना आरंभ कर देंगे तो आने वाले समय में कत्ले आम मच जाएगा। राजनेता इस तरह का बयान और कदम सिर्फ खबरों में बने रहने, तालियां सुनने के लिए उठाते हैं या फिर उनका असली मकसद कुछ और होता है।

दिल्ली के लोकायुक्त के इस सराहनीय कदम की प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने दिल्ली की निजाम श्रीमति शीला दीक्षित द्वारा वर्ष 2008 में दिल्ली विधानसभा चुनावों के एन पहले जो घोषणा की थी उस बारे में प्रतिभा देवी पाटिल का ध्यान आकर्षित कराया है। दिल्ली के लोकायुक्त न्यायमुर्ति मनमोहन सरीन ने कहा है झूठे छलावे भरे वायदे कर वोट बटोरने के शीला दीक्षित के प्रयासों की खुलकर निंदा की है। न्यायमूर्ति सरीन ने बड़बोले नेताओं की ‘कथनी‘ और ‘करनी‘ के बीच के फासले पर टिप्पणी करते हुए कहा कि सार्वजनिक जीवन से जुड़े एसे नेताओं को बेनकाब किया जाना आवश्यक है।

दरअसल लोकायुक्त के समक्ष एक अजीबोगरीब मामला लाया गया था, जिसमें वर्ष 2008 के विधानसभा चुनावों के पहले श्रीमति शीला दीक्षित द्वारा जनसभाओं में गरीब और मलिन बस्तियों के लिए ‘राजीव रत्न आवास योजना‘ के तहत तैयार 60 हजार मकानों को इनमें बांटने की घोषणा की गई थी। मुख्यमंत्री के इस वायदे जिसमें मकानों के तैयार होने की बात कहकर चुनाव के बाद वितरित करने की बात कही गई थी को अधिवक्ता सुनीता भारद्वाज द्वारा एक याचिका के द्वारा लोकायुक्त के संज्ञान में लाया गया था।

सुनीता का आरोप है कि गरीबों के लिए साठ हजार मकान बनकर तैयार होने की बात तो दूर उसके लिए न कार्ययोजना बनी और ना ही जमीन का अधिग्रहण ही किया गया। मामला दूध और पानी के मानिंद एकदम साफ है। शीला दीक्षित ने तीसरी बार सत्ता हथियाने के लिए जो जोड़तोड़ किया वह किसी से छिपा नहीं है। यह जरूरी इसलिए भी हो गया था, क्योंकि दिल्ली में राष्ट्रमण्डल खेलों का आयोजन किया जाना था, इसके लिए दिल्ली सरकार को खासा बजट भी मिलना था। गरीब मजलूमों को गुमराह कर राजनैतिक दलों द्वारा उनसे जनादेश तो प्राप्त कर लिया जाता है, किन्तु जब बारी वायदों पर खरा उतरने की आती है तो राजनेता पटली मारने से भी गुरेज नहीं करते।

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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