कहां ओझल हो गई विस्थापित महिलाएं

आलोका

यूं तो विस्थापन पूरे विश्‍व विशेषकर एशिया की व्यापक समस्या है। भारत में भी इसकी जड़ें कम गहरी नहीं है। भारत के लोग विस्थापन की त्रासदी विगत 64 वर्षों से झेल रहे हैं। झारखंड में भी विस्थापन का इतिहास कुछ इतना ही पुराना है। यहां आजादी के बाद से अबतक सैंकड़ों गांवों से लाखों लोग विस्थापित हो चुके हैं। इनमें आधी आबादी महिलाओं की है। विस्थापित होने वाली ये महिलाएं अपना वजूद खो चुकी हैं। विस्थापन के कारण दर-दर भटकने के लिए मजबूर ये महिलाएं गुमनामी के अंधेरे में कहीं ओझल सी हो गईं। एक तरफ जहां इनका परिवार बिछड़ा वहीं इनकी संस्कृति और पहचान तक मिट गई। दुख तो इस बात का है कि उनके बारे में किसी के पास कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। इससे भी दर्दनाक पहलू यह है कि इन विस्थापितों की किसी ने खोज-खबर लेने की भी कोशिश नहीं की। सरकार तो सरकार किसी गैर सरकारी संस्थानों ने भी इन्हें पहचानने और फिर से बसाने का प्रयास नहीं किया।यद्यपि हाल के कुछ वर्षों में विस्थापन के खिलाफ कुछ महिलाएं मुखरित जरूर हुई हैं। इनमें दयामणि बारला, मुन्नी हांसदा व पुष्पा आइंद के नाम शामिल है। बारला ने मित्तल और जिंदल के खिलाफ खुंटी ब्लॉक के तोरपा मे आंदोलन छेड़ दिया। इसमें उन्हें भारी सफलता मिली। इस आंदोलन से सैकड़ों गरीबों की जमीन बच गई। वहीं सथाल परंगना के दुमका जिले में मुन्नी हांसदा ने भी विस्थापन के विरूद्ध आंदोलन खड़ा किया। इसके लिए उन्हें जेल भी जाना पड़ा। इधर खूंटी ब्लाॅक के कर्रा प्रखण्ड में पुष्पा आइन्द ने भी जमीन बचाओं आंदोलन कर मित्तल कंपनी से अपने गांव की जमीन बचाने में कामियाब हो गई।

बहरहाल झारखंड में सबसे ज्यादा विस्थापन एचईसी, बोकारों थर्मल, तेनुघाट डैम, मैथन डेम, कुटकु डैम, नेतरहाट फिल्डफायरिंग रेंज, कोयलकारों पनबिजली परियोजना, टाटा स्टील, चाण्डिल डैम की स्थापना से हुआ है। विस्थापन का यह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है। हाल ही में झारखंड की राजधानी रांची से विस्थापित किए गए इस्लाम नगर और नागाबाबा खटाल इसके उदाहरण हैं। यहां बसे हजारों लोग रातों रात बेघर कर दिए गए। इनके घरों को बुलडोजर चलाकर तहस-नहस कर दिया गया। देखते ही देखते इनकी आंखों के सामने ही सबकुछ लुट गया। इन बस्तियों में सिर छुपाकर जीवन के लिए संघर्ष करने वाली विधवा और एकल महिलाओं पर भी किसी को तरस नहीं आई। इन्हें उजाड़ने से पहले उचित मुआवजा देने की भी जरूरत महसूस नहीं की गई। राज्य के विभिन्न हिस्से से विस्थापित होने वाले लगभग सभी गांव-कस्बे की कमोबेस यही स्थिति है। एक आंकड़े के अनुसार राज्य में 1981 से 1985 के बीच सिर्फ विभिन्न कोयला खदानों ने 1,80, 000 लोगों को विस्थापित कर दिया, पर नौकरी मिली मात्र 11901 लोगों को। कुल विस्थापित परिवारों में से मात्र 36.34 प्रतिषत परिवारों के एक-एक सदस्य को ही नौकरी मिली। ऐसे दर्जनों उदाहरण भरे पड़े हैं जो ये साबित करते हैं कि विभिन्न कारखानों व खदानों के खुलने के पीछे दिये जाने वाले ‘देश के विकास’ के तर्क का सीधा मतलब बड़े पूंजीपतियों, चंद नौकरशाहों व ठेकेदारों तथा चंद बड़े व्यवसायियों के विकास से है। राज्य में 15 लाख विस्थापितों में से 72 से 90 प्रतिशत लोग आदिवासी हैं। इनमें से मात्र 25 प्रतिशत लोगों को ही किसी तरह रहने का ठौर मिला।

एच.ई.सी. विस्थापितों का दर्द

आजादी के बाद विकास के नाम पर झारखंड के रांची में स्थापित पहली औद्योगिक इकाई एचइसी के विस्थापितों का संपूर्ण पुनर्वास आज तक न तो राज्य सरकार कर सकी न ही केंद्र सरकार। एचइसी की स्थापना के लिए 36 गांवों को विस्थापित किया गया। इसमें से 13 गांवों को पूरी तरह उजाड़ दिया गया। शेष अन्य गांव आंशिक रूप से विस्थापित हुए। विस्थापित औरतों की पुर्नवास में गिनती ही नहीं की गई। एक भी औरत को नौकरी नहीं दी गई। जमीन अधिग्रहण के पूर्व सरकार ने वादा किया था कि सभी विस्थापित परिवार को नौकरी दी जाएगी।

धार्मिक स्थलों अखड़ा, सरना, मसना, हड़गड़ी के लिए भी जमीन मुहैया कराई जाएगी। साथ ही पुनर्वासित स्थल में स्कूल, अस्पताल, पानी, बिजली आदि सुविधा देने की भी बात कही गयी थी। लेकिन सरकार ने आज तक अपना वादा पूरा नहीं किया। नतीजा यह हुआ कि विस्थापित परिवार 10-15 डिसमिल जमीन पर ही गुजर-बसर करने को अभिशप्त हैं। लोग इतनी सी जमीन के एक टुकड़े पर घर बनाकर रह रहे हैं और दूसरे टुकड़े पर मसना बनाकर मृतकों को दफनाते हैं। लोग अपने घर-आंगन, बारी-झारी को ही मसना बना लिये हैं। सरना, अखड़ा उपलब्ध नहीं कराये जाने के कारण विस्थापित गांवों के आदिवासी समाज की सामाजिक-सामूहिकता, संस्कृतिक-आर्थिक अस्मिता दम तोड़ चुकी है। लोग अपनी भाशा-संस्कृति, पारंपारिक पर्व-त्योहार, रीति-दस्तूर भी भूलने को विवश हैं।

बोकारों का विस्थापन

विस्थापन की एक बड़ी त्रासदी बोकारो जिले की जनता को झेलनी पड़ रही है। बोकारो इस्पात कारखाना के कारण 65 गाँवों को विस्थापित हो जाना पड़ा। बीटीपीएस, सीटीपीएस बिजली उत्पादन केंद्रों के कारण भी दर्जनों गांव अस्तित्व विहीन हो गए। तेनुघाट डैम ने भी लगभग 35 गांवों को अपनी आगोश में समा लिया। गोमिया के बारूद कारखाना से भी बहुत से गांव उजड़ गए। अब मिथेन गैस के कारण भी कई गांवों पर विस्थापन की तलवार लटक गई है। यानी उक्त परियोजनाओं के कारण बोकारो को विस्थापन का दंश झेलने के लिए विवश होना पड़ा है। 31435 एकड़ जमीन तत्कालीन बिहार सरकार द्वारा अर्जित कर बोकारो स्टील को दी गई। इसके साथ ही हजारों एकड़ जमीन पुनर्वास क्षेत्र के लिए भी ली गई। इस भू अर्जन में किसानों का एक मात्र साधन जमीन ले ली गई। घर उजाड़ दिए गए एवं उसके बदले में बहुत ही मामूली सी रकम दी गई। प्रति डिसमील न्यूनतम 25 पैसे से अधिकतम 25 रूपए का मुआवजा दिया गया।

उसपर भी त्रासदी यह कि मुआवजे की यह राशि भी बहुत से विस्थापितों को नहीं मिल पाई । जिसमें अधिकांश औरतें थीं। आज ये औरतें कहां है और किस हाल में हैं, किसी को कुछ पता नहीं है।

झारखंड खनिजों का मुख्य उत्पादक है। एक आंकड़े के अनुसार 1991 में कोयला खान सहित कुल लीज 1,57, 759.6 हेक्टेयर भूमि की थी। 1973 में खानों के राष्ट्रीयकरण के समय 80 प्रतिशत कोयले का उत्पादन भूमिगत सुरंगी खानों से होता था। लेकिन बाद में खुले खदानों की बहुलता हुई। 1991-92 में सी0सी0एल0 का 82.8 प्रतिशत खदान ओपेन कास्ट थे जो 1994-95 में 86.7 प्रतिशत हो गये। विशेषज्ञों के अनुसार ओपन कास्ट माइन्स में अधिकांशतः कृशि योग्य भूमि ली जाती है। औद्योगिक विकास के लिए बिजली सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। संयोग से झारखंड में बड़े पैमाने पर बिजली उत्पादन के लिए संसाधन उपलब्ध है। यहां प्रयाप्त मात्रा में कोयला तथा अन्य सामग्री उपलब्ध है।

1974 के बाद दामोदर घाटी निगम परियोजना बनी। इसके बाद तिलैया डैम, मैथन डैम, पंचेत डैम, सुवर्ण रेखा बहुदेशीय डैम, मयूराक्षी डैम बगैरह से पनबिजली तैयार की जानी लगी। इसके बाद बिजली उत्पादन के लिए कोयले का भी इस्तेमाल किया गया। चंद्रपुरा थर्मल पावर, बोकारो थर्मल पावर, तेनुघाट थर्मल पावर, पतरातू थर्मल पावर आदि प्लांट विकसित हुए। इस दौरान भी विस्थापन का सिलसिला जारी रहा और हमेशा की तरह इस बार भी औरतें हाशिये पर रहीं। विस्थापित तो हुईं महिलाएं और उनका भरा-पूरा परिवार, लेकिन नौकरी मिली बाहरी लोगों को।

जंगली जानवरों की रक्षा के लिए राष्ट्रीय उद्यान बनाये जाते हैं। झारखंड में 10 उद्यान और वन्य प्राणी अभ्यारण्य, हैं।

(1) बेतला राष्‍ट्रीय उद्यान

(2) हजारीबाग राष्ट्रीय उद्यान

(3) पलामू वन्य अभ्यारण्य

(4) महुआडॉड़ वन्य अभ्यारण्य

(5) दलमा वन्य अभ्यारण्य

(6) तोपचांची वन्य अभ्यारण्य

(7) लावाकिंग वन्य अभ्यारण्य

(8) पारसनाथ वन्य अभ्यारण्य

(9) कोडरमा वन्य अभ्यारण्य व

(10) राजमहल अभ्यारण्य।

ये सभी 2045.50 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले हैं जिसमें 242 गांव प्रभावित हुए हैं। इसमें भी गांव वालों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है।

काशीनाथ केवट बताते है कि इस वर्ष भूमिअर्जन, पूर्णवास नीति प्रस्तुत किया जाएगा। जिसमे कई खामिया है और कई अच्छी बाते भी कहीं गयी है। इस मसौदे को हम खारिज नहीं कर सकते हैं। हमने इंसाफ नामक राष्ट्रीय बैनर के माध्यम से प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर इसपर अपनी राय भेजी है। जिसमें ग्रामीण इलाकों में 100 एकड़ तथा शहरी क्षेत्र में 50 एकड़ भूमि का अधिग्रहण हो तो उसपर भूमि अर्जन कानून लागू हो। चूंकि कई शहरों में बिल्डरों द्वारा 8 से 10 एकड़ जमीन लेकर अपार्टमेंट आदि का निर्माण कराया जाता है। इसके लिए बिल्डरों द्वारा भूमि अधिग्रहण किया जाता है। इस भूमि अधिग्रहण को भी भूमि अधिग्रहण कानून के अन्तर्गत लाया जाना चाहिए। दूसरी बात यह है कि इसमें 80 प्रतिशत लोगो के बीच जनसुनवाई एवं उनकी सहमति अनिवार्य होनी चाहिए यह स्वागतयोग्य है। लेकिन उसमें यह प्रावधान भी जोड़ा जाना चाहिए कि सहमति पूरी प्रमाणिकता के साथ हो तथा सहमति देने वालों में 50 प्रतिशत महिलाएं हों।

तुरामडीह विस्थापन

1982 में तुरामडीह यूरेनियम माईंस स्थापित करने के लिए लांदुप, तुरामडीह, बंदुहुरांग और तालसा गांव के जिन 295 परिवारों को युसील कंपनी ने उजाड़ा, आज भी ये परिवार बेघर हैं। यूसील कंपनी ने अपनी पुनर्वास नीति के तहत इन उजड़े परिवारों को बसाने के नाम पर लांदुप पुनर्वास स्थल पर 295 घर एक-एक कमरा का बना दिया। पुनर्वास के नाम पर बने इन कमरों का आकार 6 बाय 8 फीट है। कमरे के साथ एक छोटा बरामदा बनाया गया है। इस छोटे कमरे में किसी परिवार का रहना असंभव था। इस कारण कंपनी के पुनर्वास कॉलोनी क्षेत्र में विस्थापित परिवार गये ही नहीं। आज इस पुनर्वास कॉलोनी में सिर्फ एक विस्थापित परिवार विनोद सिकू अपनी पत्नी तथा तीन बच्चों के साथ रहता है। विस्थापित कहते हैं: हम लोग गाय, बैल, बकरी, मुर्गी-चंेगना साथ रखते हैं। विस्थापित सवाल करते हैं कंपनी द्वारा निर्मित एक कमरा वाला घर में परिवार के मां-बाप रहेंगे या बेटा-बहु रहेंगे या फिर सास-ससुर और मवेशी कहां रहेंगे।

चांडिल डैम में विस्थापितों का हाल

चांडिल प्रखंड स्थित डिम्बु गांव के स्व. सनातन मुर्मू का बेटा रमेश लाल मुर्मू और लालू अब चिलगु पुनर्वास स्थल में 25-25 डिसमिल जमीन पर एक घर, एक कुंआ, एक छोटा बारी बनाकर परिवार के साथ रह रहे हैं।

रमेश जी बताते हैं डिम्बु गांव में उनके पिताजी का 25-30 एकड़ खेती की जमीन थी। वह गांव संताल बहुल गांव था, जहां 200 परिवार रहता था। अतीत में खोए रमेश जी कहते हैं कि वहां अपनी सभ्यता-संस्कृति थी, अपना समाज था, अपना पहचान थी। वहां सरहुल और सोहराई परब 3-4 दिनों तक मनाते थे। वहां अपना जाहेर थान था।

जाहेर थान संताली आदिवासियों के सांस्कृतिक-अध्यातमिक अस्तित्व का मुख्य हिस्सा है। यहां तो कुछ भी नहीं है। रमेश जी कहते हैं कि हमलोग साल पेड़ छोड़कर दूसरा पेड़ की पूजा नहीं करते हैं, इसलिए अपने आंगन के एक हिस्से को घेर कर साल के 5-6 पेड़ लगाकर जाहेर थान बना लिए हैं, जहां हर सरहुल और सोहराई में पूजा करते हैं।

ऐसे बहुत से परिवार हैं जो विस्थापन का दंश झेलने को मजबूर हैं। इस दंश का प्रभाव महिलाओं को सबसे अधिक कष्‍ट देता है। जब बसा बसाया परिवार उजड़ता है तोउनकी खुशियां भी उजड़ जाती हैं। विकास करना गलत नहीं है लेकिन विकास के नाम पर किसी को उजाड़ना गलत है, किसी को बिना मुआवजा दिए उसकी संपत्ति को छिनना गलत है। आवश्‍यकता है एक ऐसी ठोस नीति बनाने की जिसमें विस्थापितों को उचित न्याय मिल सके और विकास में भी बाधा न आए। अन्यथा हमें अपनी नई पीढ़ी के सवालों का जवाब देने के लिए तैयार रहना चाहिए। (चरखा फीचर्स)

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