जो उलझ कर रह गयी है आंकड़ों के जाल में

0
325

हिमकर श्याम

गरीबी फिर सुर्ख़ियों में है। हाल के दिनों यह बार-बार सुर्खियों में आयी है। गरीबी इतनी बार सुर्खियों में पहले कभी नहीं रही। हर बार सुर्खियों का वजह बना योजना आयोग। इस बार भी बहस योजना आयोग के नये मापदंड को लेकर है। इन आंकड़ों में गरीबों की संख्या में गिरावट दर्शायी गयी है। आयोग के अनुसार देश के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों की संख्या घटी है। आयोग के नये मापदंड के बाद मीडिया से लेकर संसद तक, जोरदार बहस छिड़ गयी है। सदन में नये मापदंड की कड़ी आलोचना हुई है। यह वही सदन है जहां गरीबी, सूखा,बाढ़, बेराजगारी और ग्रामीण विकास जैसी बुनियादी मसलो को हमेशा रस्मी तौर पर उठाया जाता रहा है। सदन में जब भी इन मुद्दों को उठाया जाता है तो सदन हमेशा खाली ही दिखलाई देता है। न नेता मौजूद रहते हैं और न सदन की कार्यवाही को कवर करनेवाले मीडियाकर्मी।

गरीबी के नये आंकड़े ने एक बार फिर उस बहस को छेड़ दिया हैं जिसका दारोमदार इस बात पर है कि भारत के शहरी और ग्रामीण इलाकों में गरीबी रेखा की परिभाषा क्या हो। योजना आयोग की ओर से निर्धारित किए गये आंकड़े भ्रामक हैं और यह गरीबी की समस्या को ही नकारने का प्रयास है। ऐसा लगता है कि आयोग का मकसद गरीबों की संख्या को घटाना है ताकि कम लोगों को सरकारी कल्याणकारी योजनाओं का फायदा देना पड़े। आयोग के पैमाने से देखे तो भारत में गरीबो की आय निरंतर नीचे जा रही है, जबकि दुनिया भर में गरीबों की आय बढ़ी है। देश के समावेशी विकास की योजना बनानेवाला आयोग जमीनी हकीकतों से अनजान है। योजना आयोग अपनी और सरकार की विफलता को छिपाने के लिए नित नया फार्मूला ईजाद कर रहा है।

आयोग की दलीलें वास्तविकता से परे है। आयोग कि मंशा यह है कि सरकारी प्रयासों की विफलता के कारण अगर गरीबी कम नहीं हो सकती है तो गरीबों की संख्या को ही कम कर दिया जाए। वैसे भी हमारे देश में गरीबी रेखा हकीकत को बताने का कम, उसे छिपाने का काम अधिक करती है। गरीबों को आंकड़ों में उलझा कर गरीबी को अनदेखा कर देना उचित नहीं है। आयोग पहले 32 रूपये खर्च करनेवालों को गरीब मानता था। आयोग के द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दिए गए उस हलफनामे को लेकर काफी हंगामा बरपा था। सरकार की फजीहत के बाद योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहूवालिया ने इस मामले में पुनर्विचार के संकेत दिये थे। तब ऐसा लगा था कि सरकार और आयोग गंभीरता से आंकड़ों में सुधार करेगी लेकिन हुआ इसके ठीक उल्ट। गरीबी के मापदंड को और नीचे कर दिया गया। अब आयोग शहर में 28.65 रूपये और गांवों में 22.42 रूपये व्यय करनेवालों को गरीबी रेखा से ऊपर मानता है। आयोग के अनुसार शहरों में महीने में 859. 60 रुपए और ग्रामीण क्षेत्रों में 672.80 रुपए से अधिक खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है। आयोग के नये आंकड़ों के हिसाब से अब देश के गांवों में हर तीन में से एक आदमी गरीब है जबकि शहरों में हर पांच व्यक्ति में से एक गरीब है।

योजना आयोग के आंकड़े बताते हैं कि 2004-2005 में देश की 37.2 फीसदी आबादी गरीबी रेखा से नीचे थी, 2005-2010 में यह 29.8 फीसदी पर आ गयी। इस दौर में विकास दर आठ से नौ प्रतिशत के बीच रहा। यह वह दौर था जब देश का आर्थिक विकास दर सबसे अधिक रहा, लेकिन इस दौरान रोजगार के अवसर बेहद कम या नगण्य रहे। गरीबों का जीवन स्तर तेजी से गिरा और गरीबों की संख्या में निश्चित तौर पर इजाफा हुआ। इस दौरान देश में भुखमरी और गरीबी के हालातों में कोई बदलाव नहीं आया।

देश की दो तिहाई आबादी बेहद दयनीय परिस्थियों में जीने को मजबूर है। उत्तर प्रदेश, बिहार, और पश्चिम बंगाल समेत भारत के आठ राज्यों में सबसे अधिक गरीबी है। इन राज्यों में गरीबों की संख्या 26 अफ्रीकी देशों के गरीबों से भी अधिक है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में आज भी 42 करोड़ लोग पेट भरे बिना नींद के आगोश में आ जाते हैं। अगर गांवों की बात करें तो शायद हालात और बदतर है। ग्रामीण भारत में 23 करोड़ लोग अल्पपोषित है, 50 फीसदी बच्चों की मत्यु का कारण कुपोषण है। यही नहीं दुनिया की 27 प्रतिशत कुपोषित जनसंख्या केवल भारत में रहती है। साल 2011 मई में विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में सामने आया था कि गरीबी से लड़ने के लिए भारत सरकार के प्रयास पर्याप्त साबित नहीं हो पा रहे हैं।

आयोग की दलील गरीबों के खिलाफ गहरी साजिश है। इससे अधिकांश गरीब लोग राज्य और केन्द्र की कल्याणकारी योजनाओं से मिलने वाले लाभ से वंचित हो जाएंगे। उनकी जहालतें और बढ़ जायेगी। हालाँकि हंगामे के बाद मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने इस पर सफाई देते हुए कहा है कि इसको किसी भी सरकारी योजना के लाभार्थियों से जोड़कर देखना सही नही है। गरीबों की संख्या को कम आंकने की मंशा के पीछे एक कारण राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून की राह में आ रहीं अडचने भी हो सकतीं हैं। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून यूपीए सरकार की महत्वाकांक्षी योजना है। इसके तहत गरीब परिवारों को सस्ते दरों पर अनाज मुहैया करायी जाएगी। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून साल के अंत तक लागू करने की योजना है। सरकार इस कार्यक्रम के तहत गरीबों को रियायती दर पर अनाज उपलब्ध कराने की व्यवस्था करना चाहती है। यह यूपीए के दूसरे कार्यकाल के सबसे बड़े दायरेवाला कानून बन सकता है। फिलहाल इसके अनुपालन में कई अड़चने हैं। विधेयक को अमली जामा पहनाने के लिए 61 मिलियन टन अनाज की जरूरत होगी, फिलहाल अनाज की उपलब्धता 55 मिलियन टन है। इस लिहाज से हर साल छह मिलियन टन अनाज का इंतजाम करना होगा। इससे सरकार पर 95 करोड़ रूपये की सब्सिडी का बोझ पड़ेगा। एक रिपोर्ट के मुताबिक यह अतिरिक्त बोझ करीब 1.27 अरब डालर के बराबर होगा जो जीडीपी का 1.1 प्रतिशत है। यह अनाज कहां से आयेगा, यह बड़ी समस्या है। पिछले दिनों जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) में सुधार पर आयोजित एक सम्मेलन में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि खाद्य सुरक्षा कानून अमल में लाने के बाद जहां एक तरफ खाद्यान्न आपूर्ति बढ़ाने की जरूरत होगी, वहीं दूसरी ओर सरकार का सब्सिडी बोझ भी बढ़ेगा।

आजादी के बाद से गरीबी का मुद्दा प्रायः सभी सरकारों के एजेंडे में शामिल रहा है। लेकिन यह लगातार गंभीर और व्यापक होती गया। देश में गरीबी और गरीबी को मापने का पैमाना क्या हो इसे लेकर शुरू से विवाद रहा है। गरीबी रेखा आय के उस स्तर को कहते है जिससे कम आमदनी होने पे इंसान अपनी भौतिक जरूरतों को पूरा करने मे असमर्थ होता है। ऐसे समय जब खाने पीने की वस्तुओं के दाम आसमान छू रहे हैं, लोग रोजी-रोटी के जुगाड़ में परेशान हैं, गरीबी के इस नये पैमाने से योजना आयोग की मंशा पर सवाल उठने लगे हैं। हमारे नीति नियंता गरीबी रेखा का निर्धारण कर अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं या फिर उस रेखा के आधार पर गरीबों की संख्या का अनुमान लगा कर संतुष्ट हो जाते है। गरीबी रेखा के निर्धारण के नाम पर महज औपचारिकताएं पूरी की जाती हैं। गरीबी आर्थिक विषमता का ही एक रूप है। देश में गरीब और अमीर के बीच की खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है।

1991 में नए आर्थिक सुधारों का सूत्रपात्र हुआ जिसमें व्यवस्था संबंधी विभिन्न नियंत्रणों को दूर करना, लाइसेंस राज की समाप्ति, विदेशी और निजी पूंजी निवेश को बढ़ावा देना जैसे मुद्दों ध्यान दिया गया। उदारीकरण के बाद कई क्षेत्रों में देश ने ठोस उपलब्धियां हासिल कीं लेकिन भौतिक बुनियादी सुविधाओं के मामले में हमें खास उपलब्धि हासिल नहीं हो पायी। आर्थिक सुधार की योजना गरीबी मिटाने में असफल रही है। इनसे महज कारपोरेट घरानों को फायदा हुआ है। विकास की परिकल्पना सिर्फ अमीरों के हितों को ध्यान में रख कर नहीं की जा सकती है। विकास का एक मापदंड यह है कि लोगों को गरीबी के दायरे से निकाला जाए। उन्हें सम्मानजनक जिंदगी जीने का अवसर दिया जाए। आजादी के पूर्व संध्या पर महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘मैं उस भारत के लिए काम करूंगा जिसमें निर्धनतम व्यक्ति का एहसास होगा कि यह उसका देश है, जिसके निर्माण में उसकी प्रभावी आवाज है।

कहने को तो गरीबों के लिए सैकड़ों योजनाएं चल रही हैं लेकिन ऐसी योजनाएं सिर्फ राहत देने काम कर सकती है। गरीबों को, उनकी गरीबी को हटाने का काम नहीं कर सकतीं, गरीबी को अगर समाप्त करना है तो निवेश चाहिए, पानी, बिजली, सड़क, स्कूल, अस्पताल में। आंकड़ों के खेल से गरीबी नहीं मिटेगी। गरीबी को खत्म करने के लिए जरूरी है कि बुनियादी स्तर पर लोगों का सशक्तीकरण किया जाए और नौकरशाही को बाधक बनने से रोका जाए। आंकड़ेबाजी के बजाए हमें रचनात्मक रास्तों की तलाश करनी होगी ताकि सबसे गरीब आदमी को अपना जीवन सुखमय बनाने का अवसर मिलें।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here