जो लूट सके तो लूट !

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 जावेद उस्मानी

भला हो सूचना के अधिकार कार्यकर्ता एस सी अ्रग्रवाल का जिन्होने एक बहुत अहम मुकाम पर ऐसी जानकारी निकाली जिसकी इस समय बहुत जरुरत थी। यह सूचना, इसका संकेत है कि, देश बड़ी तेज़ी से दो वर्गों में बंटता जा रहा है जिसका एक छोर स्वर्ग है तो दूसरा छोर नरक है। जाहिर है, जो वर्ग स्वर्ग जैसी सुविधाओं के बीच रहता है, उसकी जन्नत का ख़र्च घोर नारकीय जीवन व्यतीत करने वालों के जि़म्मे हैं और यह गंभीर चिंता का विषय है कि ग़रीबों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने और राष्ट्र को उन्नत बनाने के लिए, योजनाकारों की दृषिट में वास्तविक विकास का अर्थ क्या है? जिस योजना आयोग ने रोज़ाना 28 रुपये कमाने वालों को ग़रीब मानने से इंकार कर दिया था। उसी विभाग के दो शौचालयों की मरम्मत पर 35 लाख रुपये खर्चे किये गये हैं। यह द्विस्तरीय व्यवहार का साक्ष्य है। इससे छुपी हुर्इ और खतरनाक बात यह हैं कि, यह नजरिया, इंसानो में जमीन आसमान का भेद करने वाला है, इस तरह के व्यय की सफार्इ में, योजना आयोग के उपाघ्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया का यह कहना कि ‘योजना आयोग में विदेशी मेहमान और मुख्यमंत्री गण आते रहते हैं’ यह दलील बताती है कि उनकी असली चिन्ता किस वर्ग के लिए है। उनके बयान से लगता है कि इस आधुनिक सांमत की नजर में, बड़े राजा मुख्यमंत्री गण के स्नानागार और शौचालय, योजना आयोग के नवीनीकृत विलास कक्ष से ज्यादा भव्य जरुर होंगे, जिससे तुलनात्मक रुप में शर्मिदगी महसुस कर इन ख़ास मेहमानों के लिये, योजना आयोग के आला खिदमतगारो को ऐसा माकूल प्रबंध करना पड़ा। साथ ही उन अफ़सरों के द्वारा कार्यालय के बाहर इस्तेमाल किये जाने वाले टायलेट भी कितने ख़ूबसूरत होंगे, जिन्हें शौच के लिये स्मार्ट कार्ड जारी किया गया हैं। इनके लिये योजना आयोग ने बराबरी का सिद्धान्त भुलाकर, इसका इस्तेमाल, शेष लोगो के लिए निषिद्व कर दिया है। इसी महकमे के अन्य छोटे अधिकारियों, कर्मचारियों के लिये ऐसी कोर्इ लघु स्मार्ट योजना भी नहीं है। शायद आला हजरतो का यह मानना है कि, इस श्रेणी के लोग वहां नि:संकोच जा सकते है जहां आला हूजू़रों को जाने के नाम से ग़श आता है। योजना आयोग के नाक तले राजधानी दिल्ली में जहां केन्द्रीय सरकार है, कर्इ साल से शीला दीक्षित जैसी कद्दावर मुख्यमंत्री हैं, और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज जैसी हस्ती मुख्यमंत्री रह चुकी हैं, वहां के भीड़ भरे इलाक़ां में, झुगिगयो में, महिलाओं के लिये स्नान और उत्सर्जन के लिये कितने सार्वजनिक निर्माण हैं? दिल्ली में मीलो बाद सशुल्क, ऐसी सुविधा मिल भी जाये पर अन्य प्रदेशों की राजधानियों में, गन्दे बदबूदार पुरुष प्रसाधन भले ही खंडहरी हालात में मिल जाये लेकिन सबसे ज्यदा शोषित माने जाने वाली महिलाओं के लिये विन्देश्वरी पाठक के सशुल्क सुविधा वाले सुलभ के अतिरिक्त किसी अन्य संस्थान का ऐसा सार्वजनिक निर्माण जिसका इस्तेमाल महिलाए, कर सकें भूसे में सुर्इ ढूंढने के जैसा है। यहां भी सोच योजना आयोग के जैसे उच्चवर्गीय व निम्नवर्गीय में अंतर करने वाली है। इसलिये गरीब महिलाएं, जिस दैनिक कि्रया के लिये शुल्क अदा करती हैं, उससे लाख गुनी बेहतर सुविधा, जन धन के बूते हुक्मरानों को मुफ्त प्राप्त है। योजना आयोग के इस जौहर से जो खुलासा हुआ है उसको सलाम करने का मन इसलिये होता है कि इस गुत्थी से बाकी रहस्यमय, असमानता की डोरे भी सुलझ गयी है। यह प्रमाणिक रुप से समझ में आ गया है कि सार्वजनिक धन से विकास कैसा होता आया हैं। जब योजनाकारो की प्राथमिकताए, विशिष्टजनो के सुख सुविधा का ध्यान रखने तक सीमित है तो विकास आम लोगो तक पहुंचेगा कैसे ? आमतौर पर हमारे यहां जो जितना ताकतवर है उसका हिस्सा उतना ही बड़ा है। विकसित स्थल के सौंदर्यीकरण को स्लम उद्वार के कार्यक्रमो के उपर तरजीह दी जाती है। गांवो के बुनियादी विकास की तुलना में महानगरीय खुबसूरती बहुत मायने रखती है। यही हाल संगठित और असंगठित क्षेत्र में है तपती धूप ठिठुरती ठंड में श्रम करने वालो को मेहनत का मुवाअजा उन लोगो से कम मिलता है उनसे कही आरामदेह सिथति में है। यहां स्थायी प्रकृति के कार्यो के बजाए नकली चीजो को इसलिए पसंद किया जाता है कि इससे झोली भरने की उम्मीदे हमेशा बनी रहती है।

छत्तीसगढ़ राज्य के एक प्रमुख शहर बिलासपुर की सड़को को बनते दस साल से अधिक अरसा बीत चुका है। लंबे खर्च के बाद बढ़ा हुआ काम उतना ही बचा हुआ हैं। जितना शुरुआती दौर में आंका गया था। सड़क विकास का काम जबसे चल रहा है तबसे पूरे समय आम शहरी धूल या कीचड़ से सनी अपनी तकदीर को कोस रहा है। इस दर्द के पीछे कौन सा जादू काम कर रहा है, भले ही जिम्मेदार लोग जानते हुए अंजान बने, लेकिन यहां के बाशिन्दे इस सच जानते है। उनकी तकलीफो पर भारी वह शैय है जिसकी दीवानी दुनिया है और इससे पैदा आम आदमी की व्यथा छुपी चीज नही है। शिकायतो की सुनवायी के लिए भटकते जन को इंसाफ मिलेगा हाल फिलहाल ऐसा लगता नही है। इन सड़को से रोज एक दर्जन न्यायमूर्ति उस अदालत के गुजरते है जो अनेकोबार इस नगर के अधिकारियो को ऐसी कारगुजारियो के लिए अधिकारिक चेतावनी और नसीहते दोनो दे चुके है। हर मौके पर जनहित का दम भरने वाले राजनेताओ का लाव लश्कर गुजरता है। लेकिन इस मसले पर शंख और डपोरशंख वाला किस्सा चल रहा है। शहर में सीवरेज का काम पिछले कर्इ सालो से चल रहा है कभी सड़क चौड़ीकरण, कभी छोटी नाली से बड़ी नाली, कभी छोटी -बड़ी सीवरेज पाइप की अदला बदली, कभी बिजली व फोन के तार और खंबे, कभी पानी के पाइप की मरम्मत, कभी डिवाइडर का निर्माण, और कभी मरम्मत के नाम पर लगातार खुदार्इ एक काम खत्म होने के बाद दूसरा काम शुरु होता है। पिछले पांच सालो मे यहां की प्रमुख सड़के कर्इ बार तोड़ी जाती रही है जो लागत इन पर बैठ रही है उतने पैसो मे इससे तीन गुना बड़ी और व्यवसिथत सड़क न जाने कबकि बन कर तैयार हो सकती थी। लेकिन ये सड़क पगडंडी से बदतर दिखती है। बनाये गये गडढो में गिरने से पचीस से ज्यदा लोग गंभ्भीर रुप से घायल हो चुके है। कर्इ लोगो की मौत हुर्इ है। लोगो का गुस्सा कम करने के लिए प्राय: हर दूसरे दिन सीवरेज बनाने वाली फर्म को सख्त चेतावनी, बतौर रस्म दी जाती है। हर रोज कोर्इ न कोर्इ आला अफसर किसी न किसी को फटकारता रहता है। यह फटकार माडल बेअसर है क्योकि यह महज दिखावा है। किसी तरह की कार्यवाही के बदले उसी ठेका कंपनी का न सिर्फ बकाया भुगतान किया जाता है बलिक आने वाले दिनो के बढ़े हुए व बचे हुए, काम के लिये और ज्यदा धन दिये जाने का ऐलान भी कर दिया जाता है । हाल में यहां के डाक्टरो ने शहर मे बढ़ रहे दमा के मरीजो की संख्या पर सार्वजनिक चिंता प्रगट की है। पर इसकी चिन्ता, अधिकारियो को को इसलिये कम है कि गरीब बच्चो की तरह उनके बच्चो का दम नही घुटता है क्योकि वे पैदल धूल अटी इन सड़को पर नही चलते है। निर्धनो की आने वाली पीढि़या इस तरह के विकास के अभिशाप पर चाहे जितना रोये, पर इससे कमार्इ करने वालो के वंशज चैन की बांसुरी बजाते रहेगे। सरकारी कोष का दुरुपयोग आमतौर पर हर जगह है। पिछले साल अडमांड निकोबार में एक कक्षा के निर्माण पर 33.3लाख रुपये खर्च आने पर काफी खिचार्इ की गर्इ और इसे संदेहास्पद मानते हुए जांच की बात कही गर्इ थी। वहां के स्कूलो में,योजना आयोग की तरह कथित बड़े लोग नही आते। नही तो वे भी शौचालय पर आयी मरम्मत लागत की तरह, खर्च की सार्थकता को सिद्व करने का प्रयास जरुर करते। गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री दिगम्बर कामत के द्वारा मरगांव में 20 लाख लागत का वातानुकूलित एकल शौचालय के निर्माण का औचित्य जेरे-बहस है। इस शाौचालय का लोकार्पण अभी होना है। 30 करोड़ की लागत से तैयार 30 वातानाकूलित कक्ष से सजिजत संसार का तीसरा स्कार्इ व्हील विख्यात मैसूर मेले की बांट जोह रहा है इसके एक केबिन में चार आदमी बैठकर शहर का नजारा देख सकेगे, यह सुविधा मैसूर की गलियो में खोती हजारो अंधेरी जिन्दगियो की चिंता दरकिनार करके दी गयी है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर सिथत मंडी विपणन मुख्यालय मे 23 दिन में 8 हजार रुपये काफी चाय पर खर्च करने की चर्चा शबाब पर है। हाल में उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव द्वारा विधायको को बीस लाख तक की कार खरीदने की पेशकश भी इसी सिलसिले की कड़ी थी। युवा मुख्यमंत्री ने बाद में भले ही पैर वापस खीच लिया हो लेकिन बीज तो पड़ चुका है देर सवेर फसल कटेगी और देखा देखी देश भर में बटेगी भी अपने वेतन और सुविधा विस्तार के लिए हमेशा चौकस रहने वाले जनप्रतिनिधियो से स्चैचिछक परित्याग की आशा रखना मरिचिका है । अखिलेश यादव के इस प्रस्ताव के बाद दिल्ली में ऐसे सांसद जो आज तक सार्वजनिक वाहन से सदन आ जा रहे थे का दुखड़ा फुट चुका है। ऐसे लोगो ने निजि वाहन न होने से होने वाली असुविधा को सार्वजनिक रुप से गिनाया है। ऐसे कारनामो की डोर उस मानसिकता का अनुसरण है जिसकी एक छोर योजना आयोग थामे हुए है।

योजना आयोग का काम देश के संसाधनो का आवधिक मूल्यांकन कर, संसाधनो का सबसे कुशल और विवेकपूर्ण प्रभावी उपयोग के लिए योजना तैयार करना है। मानव और आर्थिक विकास की राह में बाधक तत्वो को रेखाकिंत कर उसे दूर करने का उपाय करना भी आयोग की जिम्मेदारियो में है यहा गरीबो का जीवन स्तर और बेहतर बनाने के लिये,योजनायें बनती हंै। इसलिए इसकी समग्र दृषिट की नीतिनिर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं। योजना आयोग के पास हर चीज का आंकड़ा रहता है, जिसके आधार पर देश के विकास की योजनाए बुनती है जिसमें गरीबी कम करना एक प्रमुख लक्ष्य है। मोंटेक को इसके लिये एक लम्बा मौका मिला लेकिन जब योजना आयोग ने नयी गरीबी सीमा रेखा तय कर करोड़ाें लोगों को, इस रेखा के तहत मिलने वाले फायदे से वंचित करने का प्रयास किया था तो इस कृत्य के विरुद्व, जो तर्क आये थे, उस पर योजना आयोग के उपाध्यक्ष ने अपने कारनामें का काफी बचाव किया था। उन्होने सार्वजनिक रुप से कैलोरी आधरित नये मानदंड के अनुसार घटी खुराक से कम खर्च होने के कारण लोगो के गरीबी सीमा रेखा से बाहर किये जाने को जायज ठहराया था और विरोध होने पर चार रुपये की वृद्वि का प्रस्ताव कर आलोचको का मुह बंद करने प्रयास किया था। वहां दो टायलेट मरम्मत पर 35 लाख रुपये के खर्च आया है। इस व्यय को उन्होने जिस साहस के साथ जायज करार दिया है उसे देख कर देश स्तब्ध है क्योकि बात केवल अपव्यय तक नही है बात दृषिट और उसके असर की है। एक ऐसा विभाग जिसके सामने देश के सारे गम और उसके कारण छुपे रहस्य नही हैं। जो हर तरह फिजूलखर्ची पर नाक भौं सिकोड़ता है व सुदृढ़ अर्थव्यवस्था का नाम रटता रहता है। वहां ऐसा काम दूखदायी है। अहलूवालिया की एक दलील यह भी है कि योजना आयोग का भवन पचास साल पुराना है। इसलिए इतना व्यय हुआ है। यह सही है कि भ्रष्टाचार के चलते निर्माण के स्तर में भारी गिरावट आयी है मंहगार्इ से लागत बढ़ी है। इसके बाबजूद भी धन की बर्बादी उस दफ्तर के अफसरो की विलासिता के लिये हो व इसके सुनिशिचत प्रबंध के लिए 5.19 लाख का कट्रोल सिस्टम शौचालय के प्रवेश द्वार पर लगाया जाये ताकि कार्ड धारी ही आ जा सके फिजूल खर्ची की परकाष्ठा है। क्योकि इन अधिकारियो के कक्ष में शौच की व्यवस्था है उनके लिये अलग से व्यवस्था की कोर्इ जरुरत नही है। फिर यह अकेले योजना भवन की समस्या नही है कि कि चलो जो गया हो गया आइंदा ऐसा नही होगा कह कर भुला दिया जाये, एक तरह से यह देश के सार्वजनिक धन को निजि मिलकियत समझने वालों के लिये नर्इ राह भी खोलता है। मुल्क में हज़ारों शासकीय भवन हैं जो पचास साल से ज्यादा पुराने हैं, जहां महत्वपूर्ण लोग अक्सर आते हैं, बैठकेकरते है और रहते हैं, उनके यहां प्रसाधन की सुविधायोजना आयोग के मरम्मत के पहले वाले शौचालय से भी बदतर है वहां भी देर-सवेर योजना आयोग का शौचालय मरम्मत माडल लागू होगा। पंचसितारा सुविधायुक्त इन ऐशगाहो के बनने के बाद, जो नहीं आते थे, आने लगेंगे, कुछ नहीं तो गैरजरुरी बैठको या अति आवश्यक प्रवास के नाम पर ये भवन महत्वपूर्ण हो जायेंगे। आयोग का यह रास्ता सबको रास आयेगा, अब तो टायलेट मरम्मत के नाम पर बजट में महाराशियां प्राप्त कर बड़े घोटाले किये जाने की सुविधा रहेगी। फिर जो लूट दर आयोग के लिए सही है वह दूसरे विभागों के लिये कैसे गलत माना जायेगा? अब ये आसानी से समझ में आ जायेगा कि सरकारी पैसे का दुरुपयोग का नया रास्ता कहां हैं। अफसोस की बात है कि जो आयोग ग्रामो में शौचालय कम से कम लागत में बनाये जाने का पक्षधर है उसके दो शौचालयो की मरम्मत पर इतना खर्च आया है। कहानी का अंत यही नही है समाचार माघ्यमो के अनुसार सूचना के अधिकार के मिली जानकारी स्थापित करती है कि इस शाहाना मिजाज के शख्स के पिछले साल मर्इ व अक्टूबर के बीच हुए विदेश दौरे के एक दिन का खर्च औसतन दो लाख दों हजार का है। लोकतंत्र में सामंती विलासिता अक्षम्य कृत है। इस तरह की प्रवृतियां बढ़ती आर्थिक असमानता के लिए जिम्मेदार हैं। ऐसे कर्म प्रजातंत्र के लिए आत्मघाती है।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी इच्छा, अंतिम आदमी की तरह रहने और दिखने की थी वे कम वस्त्र इसलिए इस्तेमाल करते थे के अधिकांश देश वासियो के पास पूरे कपड़े खरीदने के लिए पैसे नही थे। महात्मा ने जिस हिन्द स्वराज की कल्पना की थी वह कही नजर नही आता है। समाजवादी नेता डा0 राम मनोहर लोहिया ने यह सवाल बड़ी शिíत के साथ छेड़ा था जिसे आज तक लोग भूले नही है। न्यायपालिका जन धन के अपव्यय पर अनेको बार चिंता प्रगट कर चुकी है। वोहरा समिति, की रपट अपने आप ही बहुत कुछ कहती है। वित्त मंत्रालय फिजूल खर्ची के खिलाफ नाइत्तेफाकी इतनी बार जता चुका है कि उसकी अहमियत रस्मी रह गयी है प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आयोग के अघ्यक्ष है इस आयोग से उनका नाता पुराना है लेकिन उन्होने अहलूवालिया जैसी हरकते कभी नही की। यह आयोग 1950 में बना था इसके पहले अध्यक्ष तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु थे जो अपनी नफीस तबियत के लिये भी जाने जाते थे। उन्होने अपने प्रधानमंत्री कक्ष तक के लिये ऐसी मरम्मत कभी नही करायी जो विवादो के धेरे मे आये जबकि उनकी निजि हैसियत भी बहुत बड़ी थी। पहले की अच्छाइया अब बची नही है यहां तक कि, याद दिलाने पर भी कोर्इ कान धरने के लिए तैयार नही है। अब तो कल्याण की भावना भी स्वार्थवंश जागती है इस प्रसंग मेंं भी सूचना के अधिकार में मिली जानकारी के सार्वजनिक हो जाने के बाद, ग्रामीण शौचालय के लिए अरबो रुपये के आवंटन की याद भी, सख्त आलोचनाओ का मुह बंद करने के लिये आना इसका नमूना है। लेकिन इस तरह की हमदर्दी का हश्र देश के सामने है। इस प्रकार के प्रस्ताव 11 वी योजना और उसके पहले की योजनाओ मे कम नही थे पर हुआ क्या यह सारा देश जानता है। क्योकि जैसी नीयत रही वैसी ही बरकत हुर्इ है। मूल प्रश्न उस दृषिट का है जो अमीरी को अहमियत देती है जब ये नजरिया देश को आगे ले जाने वालो का है तो ये देश किन लोगो के लिए है? और लोककल्याणकारी शासन का अर्थ कितना शेष बचा है? सबको अपने सुख की चिंता है लेकिन देश के दुख की फि्र्रक नही है। यह जानते हुए भी कि सेनगुप्ता कमेटी,,तेंदुलकर कमेटी,, सक्सेना कमेटी की रपट क्या बयां कर रही है। मोंटेक जैसे काबिल लोगो से यह उम्मीद नही थी कि वे जन-धन को फ्लश में बहाने पर रजामंदी देगे और इस हरकत का बेजा बचाव भी करेगे।

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  1. आपने आँख खोलने वाला लेख लिखाहै ,पर जो इतने मदांध हो गए हैं कि उनको आकड़ो के साथ खिलवाड़ और उसको अपने अनुरूप बनाने के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझता,उनके लिए क्या इस लेख का कोई महत्त्व है?हमारे शासक स्वार्थ में इतने अंधे और बहरे हो गए हैं कि न उनको जनता की दुर्गति दिखाई पड़ती है और उनकी कराह इन नीचों के कानों तक पहुचती है.हमारी सारी योजना औसत पर चलती है.उसमे अम्बानी जैसे धन कुबेर के खजाने की तुलना उनकी महल के बगल में फूटपाथ पर पड़े हुए एक दरिद्र के भीख के पैसो से की जाती है.धीरे धीरे कुबेरों के खजानों में वृद्धि हो रही है,पर चूंकि यह वृद्धि उससे ज्यादा है जितना गरीबों की आय में ह्रास हो रहा है,अतः देश की औसत आमदनी बढ़ रही है.राजसी ठाट में जीने वाले नेताओं और नौकर शाहों का ध्यान इसपर कभी जाएगा कि नहीं पता नहीं. तबतक देश के अधिकतर लोग उस गणितज्ञ के परिवार की तरह डूबते जायेंगे,जो यह समझ रहा था कि चूँकि नदी की औसत गहराई उसके परिवार के सदस्यों की औसत लम्बाई से कम है अतः सब आसानी से नदी पार कर जायेंगे.

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