धर्म सम्प्रदाय के नाम पर वोट मांगना और चुनाव प्रचार को देश के कथित सेकुलर संविधान के प्रावधानों के विरुद्ध माना गया है. लेकिन कांग्रेस, सपा, बसपा, जदयू इत्यादि समस्त दलों के द्वारा देश के मुस्लिमों को मात्र वोट बैंक बनाकर पिछले अनेक दशकों से कठपुतलियों का नाच नचाया गया है. इस नितांत स्वार्थपूर्ण राजनीति ने समाज में विघटन के बीज बोने के सिवा और कुछ नहीं किया.
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज भी अल्पसंख्यक – बहुसंख्यक, ऊंची जाति नीची जाति, दलित, अति दलित इत्यादि नित नए नाम देते हुए देश की गंदी राजनीति ने देश को बांट रखा है. क्या ये चुनाव भी हर बार की तरह इन गुटबाजियों के आधार पर नहीं लड़े जा रहे हैं? क्या कर रहा है चुनाव आयोग कांग्रेस की अध्यक्ष के द्वारा इमाम बुखारी से मुस्लिमों के एकजुट वोटों के लिए अपील करते हुए? क्या यह फिरकापरस्ती नहीं है?
कैसी विडम्बना है कि बंटवारे की इस धुंध को भेदने का प्रयत्न करते हुए राष्ट्रवादी होने का गर्व करने वाला हिन्दू समाज तो साम्प्रदायिक कहलाता है, लेकिन खुलकर मुसलमानों को एकजुट होकर उसे समर्थन देने की गुहार लगाने वाले खुद को सेकुलरवादी कहलाने का दावा करते नहीं अघाते. वोट बैंक की इस प्रवंचक सेकुलरवादी विचारधारा का अब अंत होना ही चाहिए. सेकुलरवाद का सही मापदंड यदि कुछ हो सकता है, तो वह है देश के प्रत्येक नागरिक की सिर्फ जन्मसिद्ध भारतीयता.
बरसों से पनपते इस सामाजिक भेदभाव का अंत करके देश के प्रत्येक नागरिक को समान धरातल पर खड़े होकर सिर्फ भारतीय होने के नाते देश के विकास में भागीदार बनाने के अधिकार को मान्यता देने वाली पार्टी ही अब देश का शासन सँभालने के योग्य मानी जा सकती है. वर्तमान लोकसभा चुनावों में सर्वाधिक लोकप्रिय बनते नरेंद्र मोदी और भाजपा यदि आज यह जतलाने के प्रयत्न में जुटे हैं कि देश के सभी नागरिक समान धरातल पर खड़े हैं तो इसे ही सही दिशा जाना माना जा सकता है.