जिस पत्रकारिता की नींव निष्पक्षता की ईंटों और बेबाक सच्चाई की निडर अभिव्यक्ति के गारे से भरी गयी थी, उसने आज अपनी ज़मीन बदल ली है।
नींव की कमजोरी या कहें उद्योग जगत की ताक़त ने उस नींव पर खड़ी ईमारत को मशीनों से उठाकर अपने नोटों की नींव पर खड़ा कर दिया है। जिसकी नींव जितनी मजबूत होगी उतनी ही ज्यादा बुलंद उस अखबार की आवाज़ भी होगी।
पत्रकारिता का रास्ता बदल गया है या कहें अब उसने अपना रास्ता चुन लिया है जिस पर वह लम्बी दौड़ के लिए तैयार है। आखिरकार अपनी बिरादरी में ऊंचा उठने की ख्वाहिश किसे नहीं होती। और आजकल जात-धर्म देखकर नहीं, पार्टी देखकर बिरादरी तय होती है। यहां तक कि प्रॉपर्टी डीलर लोग भी जात-धर्म देखकर प्रॉपर्टी डील करते हैं। जो जिस जात का होगा उसी जात-बिरादरी के इलाके में प्रॉपर्टी खरीदना चाहेगा। और हो भी क्यों न? कल को कोई बात हो गयी तो सारी बिरादरी के लोग एक साथ खड़े तो हो सकते हैं। देखा नहीं, इलाके में कोई नया कुत्ता घुस आये तो सारे कुत्ते एक साथ खड़े हो जाते हैं। फिर चाहें घुसपैठिया कितना ही मजबूत हो, भाग खड़ा होता है। असम में भी तो यही हुआ। दूसरी बिरादरी की घुसपैठ से अपनी बिरादरी पर आँच आनी शुरू हुई तो सारी बोड़ो बिरादरी एक हो गई।
और 17 सितम्बर, 2013 को भी तो यही हुआ। भाजपा का चुनावी शंखनाद था- तालकटोरा स्टेडियम में। और मीडिया वालों ने वाक आउट कर दिया था। हुआ ये कि मंच के सामने कुछ दूरी पर मीडिया का मंच था। कार्यक्रम 5 बजे से था, मीडिया 3.30 बजे ही अपना आसन लगा चुका था। कार्यक्रम की रिपोर्टिंग के लिए कैमरे और रिपोर्टर तैयार हो चुके थे। पर इस सब में एक खलल पड़ गया। भाजपा के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष मुआयना करने आये और अपने कार्यकर्ताओं से तेज़ स्वर में बोले ‘ये मीडिया का मंच पीछे लगाओ। लेकिन जब पत्रकारों बंधुओं के विरोध में सुनवाई नहीं हुई तो अध्यक्ष जी खुद ही आकर तख़्त और कालीन हटाने लगे। अपने अध्यक्ष को ऐसा करते देख कार्यकर्ता हरकत में आये और मीडिया का मंच पीछे सज गया। इस पर पत्रकार बिरादरी के एक महोदय भड़क गए और उन्होंने कह दिया- ‘हम रिपोर्टिंग करेंगे तो यहीं से करेंगे अन्यथा कोई भी रिपोर्टिंग नहीं करेगा। आपको पहले सोचना चाहिए था कि मीडिया का मंच कहां लगाना है।’
लेकिन जब मीडिया का मंच उखाड़ कर पीछे सजा दिया गया तो मीडिया के लोगों ने भी अपनी जात की एकता का परिचय दिया और धाक के साथ चेताते हुए सारी मीडिया बिरादरी वाकआउट कर गयी। अरे! बिरादरी बनाने और बिरादरी में रहने का बड़ा फायदा होता है भाई! और अखबारियों की तो सबसे बड़ी बिरादरी है। और बिरादरी से बाहर हो गए या बिरादरी में शामिल नहीं हुए तो ‘कौन पूछेगा?’ और किसी ने पूछ ही दिया कि – ‘कौन जात हो भैया?’ तो जवाब देते न बनेगा!
इसलिए अखबारियों ने भविष्य का भला पहले ही देख लिया और अपनी-अपनी जात बिरादरी तय कर ली। अब रोज़ाना बड़े मुंह से करते हैं- अपनी बिरादरी (पार्टी) का प्रचार। हां, ज़रूरत देखकर बिरादरी बदलते भी रहते हैं। जैसे हरियाणा के पूर्व मंत्री ने विवाह के लिए बदल ली थी। बहाना ये था कि हिन्दू विवाह एक्ट एक से ज्यादा विवाह करने या पत्नी रखने की इजाज़त नहीं देता। इसलिए मुस्लिम एक्ट के तहत शादी कर ली और नाम रख लिया – चांद मोहम्मद-फिजा बेग़म।
अब अखबारी लोग भी क्या करें ? धंधे-बाज़ी में नुकसान कौन सहता है। जो जितनी मोटी और मखमली गद्दी पर बिठा दे, उसी की सूरत पर शायरी गढ़ने लगते हैं। आज यहां- तो कल वहां, चलता रहता है। पर किसी-न-किसी बिरादरी में बने रहते हैं। अब कहा जाये तो अखबारियों की कोई अपनी बिरादरी नहीं है। हां, जहां ज्यादा दिख जाये, ठीक मुहूर्त देखकर उस जात-बिरादरी में शामिल हो जाते हैं। आखिर भारतीय संस्कृति की उपेक्षा तो नहीं कर सकते ना !