कौन बिगाड़ रहा है समाज

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राहुल सेंगर

शायद ही ऐसा कोई दिन हो जब अखबार और न्यूज़ चैनलों में दुष्कर्म या छेड़खानी की कोई घटना न हो !आखिर ऐसा क्यूँ हो रहा है ? दिल्ली के उस आंदोलन के बाद भी ये घटनाये रुक क्यूँ नही रही है? आखिर समाज कहाँ जा रहा है?कहीं ये वो तथाकथित विनाश की शुरुआत तो नहीं है जिसका जिक्र माया सभ्यता में किया गया है क्यूंकि मानवीय मूल्य समाप्त हो रहे है ..ये विनाश ही है शायद ?यदि मानवता ही नहीं रहेगी तो क्या मानव जाति का कोई औचित्य है?अगर हमारी किसी प्यारी चीज को कोई छुए तो हमे बुरा लगता है फिर चाहे वो “कोई” अपना करीबी ही क्यूँ न हो..फिर हम किसी इंसान को उसकी मर्ज़ी के बगैर कैसे छु सकते है या कोई अशोभनीय हरकतें कर सकते है ?अक्सर हमे ये सुनने में आता है कि आजकल के बच्चे टीवी देख-देख के बिगड़ गए है!…बहुत आम जुमला है जो लगभग हर बड़े के मुह पर रखा होता है और हम बड़े भी खुद ये जुमले अपने बड़ो से सुनकर बड़े हुए है! क्या हमारे दिमाग में कभी ये प्रश्न आया की ये जुमला क्या वाक़ई सच है? क्या वाक़ई टीवी बच्चो को बिगाड़ता है? अगर हाँ तो इस टीवी को कौन बिगाड़ता है ?तुरंत जो दिमाग में सबसे पहली बात आती है वो ये की इस टीवी को हम बड़े ही बिगाड़ रहे है !बच्चे तो वही देखेंगे जो हम दिखायेंगे ! तो गलती किसकी है ?टीवी की?बच्चो की?या हमारे जैसे कुछ बड़ो की? कोई भी समझदार व्यक्ति यही कहेगा की गलती बड़ो की है ! बच्चे बचपन से लेके किशोरावस्था तक बस यही देख रहे है की स्त्री एक वस्तु है इससे अधिक कुछ नहीं फिर चाहे वो किसी अन्तःवस्त्र का प्रचार हो या डियो का! एक डियो के प्रचार के मुताबिक अगर आप उनकी कंपनी का डियो प्रयोग करते है तो आप चन्दन की लकड़ी बन जाते है और तुरंत ही युवतियां सांप की तरह आपसे लिपटने लगती है और न जाने क्या क्या! इस तरह के कुछ और विज्ञापन और आज का सिनेमा महिलाओ के इस वस्तुकरण से भरा हुआ है और जब कोई बच्चा बचपन से ही महिलाओ को उपभोग की वस्तु के रूप में देख कर बड़ा होता है तो उसके मन में उपभोग की लालसा भी आएगी और ये प्राकृतिक है जैसे जब हम किसी वस्तु का प्रचार देखते है तो उसे प्राप्त करने की इच्छा प्रबल हो जाती है !टीवी हमारे समाज का आइना होता है अब आइने में हम जैसे चित्र दिखायेंगे बच्चे उन्हें ही सच मानेगे ! अब अकसर इस मुद्दे पर बहस होने पर ये बात सामने आती है की इस तरह के कुक्र्त्य करते वक़्त हम स्त्रियों को इंसान क्यूँ नहीं समझते ?तो बात ये है की इंसान समझे तो कैसे? आपने शुरुआत से ही उसे वस्तु बनाया हुआ है और वस्तुओ के उपयोग के पहले क्या हम उनकी मर्ज़ी पूछते है, कि डियो जी आप हमे महकाना चाहते है या नहीं ?नहीं पूछते बस उठाया और इस्तेमाल कर लोया तो उसी तरह महिलाओ की मर्ज़ी मायने ही नहीं रखती ऐसे लोगो के लिए ?महिला सुरक्षा के लिए कड़े कानून बन रहे है जो बिलकुल सही है पर क्या ये कड़े कानून बच्चो के मन में नैतिकता या स्त्रियों के लिए सम्मान पैदा कर सकते है ?जवाब है बिलकुल भी नहीं ! अक्सर कुछ लोग लडकियों के कपड़ो की दोष देते है पर प्रश्न से है की तब ३ साल,५ साल की अबोध बच्ची और ६० साल की वृद्ध महिला वाले केस में हम क्या कहेंगे? मतलब साफ़ है की यहाँ बात बस नैतिकता की है ,मानवीय मूल्यों की है! जिन्हों ने अपराध किया है वो सजा के हक़दार है और कानून उन्हें सजा देगा भी पर क्या सजा देने से बात ख़त्म हो जाती है ?क्या सज़ा देने महिलाओ को सम्मान मिलने लगेगा जिसकी वो हकदार है?महिला सशक्तिकरण हो जायेगा?महत्वपूर्ण बात है की ऐसी घटनाये हो ही न !मुद्दे की बात ये है की हम आने वाले युवा समाज को नैतिकतापूर्ण देखना चाहते है या नहीं?और हमे ये जानते है की दोषी कहीं न कहीं हम भी है !हम स्कूल में सेक्स शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल कर भी लेंगे तो क्या इससे नैतिकता बढ़ेगी?ताज़ा घटनाये जो अनैतिकता का परिचय देती है वो सधे तौर पर महिलाओ के वस्तुकरण से जुडी है जो बच्चो युवाओ तक सिनेमा और टीवी पहुचा रहा है!ये ही इसतरह के अपराधो की जड़ है..और अगर अपराध के इस वृक्ष का समूल विनाश करना है तो हमे इसकी जड़ महिला वस्तुकरण को नष्ट करना होगा, आवाज़ उठानी होगी और हम ये कर सकते है इस तरह की सिनेमा या विज्ञापनों को न देखे न खरीदे ये इतना मुश्किल नहीं है !जितना ज़रूरी बच्चो को नैतिकता की शिक्षा देना है उतना ही ज़रूरी इस वस्तुकरण को बंद करना है !हम कहते है की आजकल बड़ी अश्लील फिल्मे बनती है मगर हमे समझना होगा की वो दिखा रहे है इसलिए हम नहीं देख रहे बल्किल हम देख रहे है इसलिए वो दिखा रहे है !इस लिए बात बस इतनी है की कल के आने वाले समाज को सुधारने के लिए हमे आज को सुधारना होगा !हमे खुद सुधारना होगा !ये बिलकुल  भी मुश्किल नहीं बस थोड़ी प्रतिबद्धता की ज़रूरत है और हमे ये करना होगा क्यूंकि आने वाले समाज की ज़िम्मेदारी हमपर है !आगे के समाज को सुरक्षित और रहने लायक बनाना हमारा कर्तव्य है! आखिर बात हमारे और आपके अपने बच्चो की है!उनके खुशहाल और भयमुक्त जीवन की है जो वो हमसे उम्मीद करते है !

इसमें मेरे व्यक्तिगत विचार है जो सही या गलत हो सकते है पर अगर आप इसे पढ़ रहे है तो कृपया अपने विचार भी रखे की आखिर बदलाव हो तो कैसे???क्या सरकार जो नए कानून के लिए बधाई की पात्र है मगर उसे इन बातो पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है ??क्या हमारे टीवी और सिनेमा पर कुछ लगाम नहीं कसनी चहिये?और सबसे बड़ा प्रश्न क्या सरकार चुनने के बाद हमारी ज़िम्मेदारी समाप्त हो जाती है?क्या समाज़ को अछ्हा बनाए की जिम्मेदारी बस सरकार की है?

1 COMMENT

  1. इस देश की सेंसरशिप भी विदेश के हाथों बिक चुकी है…. जो करना होगा, खुद करना होगा…

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