देश का वास्तविक गद्दार कौन? भाग-13

सावरकर
सावरकर

गांधीजी और सावरकरजी की कार्य शैली में था मौलिक मतभेद

अब हम देखेंगे कि गांधीजी और वीर सावरकरजी की कार्यशैली व चिंतनशैली में कितना मौलिक मतभेद था? सावरकर जी ने उन मुस्लिम लीगी और अलगाववादी मुस्लिम नेताओं को लताड़ते हुए कहा था, जो देश के बंटवारे की कीमत पर ही स्वतंत्रता आंदोलन में सहयोग करने की बात करते थे-‘‘साथ आओगे तो तुम्हारे साथ, न भी आओगे तो तुम्हारे बिना, बिरोध में जाओगे तो तुम्हारा भी विरोध करते हुए (अर्थात हर स्थिति में) हम स्वातंत्रय समर जारी रखेंगे।’’

बात स्पष्ट है कि सावरकरजी को स्वतंत्रता चाहिए थी और यदि उसमें कोई सहयोग करता है तो उत्तम और उसका स्वागत भी पर यदि कोई विरोध करता है तो उसको भी विरोधियों में सम्मिलित करके स्वतंत्रता की सतत साधना करते जाना उनका उद्देश्य था। वह जानते थे कि यदि मात्र तीन लाख अंग्रेज सात समंदर पार आकर भारत के तीस करोड़ लोगों पर शासन कर सकते हैं तो भारत के तीस करोड़ लोगों में से जिस दिन मरने मारने के लिए मात्र तीन लाख लोग एक साथ निकल पड़ेंगे, अंग्रेज उसी दिन भारत छोड़ जाएंगे। वह भारत के पौरूष और साहस को जानते थे कि इतने लोगों को बाहर निकालना भारत जैसे देश में कोई बड़ी बात नही है। इसलिए वह साहस की बात करते थे, शौर्य और वीरता की बात करते थे।

उधर गांधीजी थे। उनका मानना था कि अंग्रेजों से स्वराज्य तभी मिल सकता है जब मुस्लिम साथ होंगे। उन्होंने कहा था-‘‘हिंदू मुस्लिम एकता के बिना स्वराज्य सर्वथा असंभव है।’’

गांधीजी का जन्म 1869 में और सावरकरजी का जन्म 1883 में हुआ था। स्पष्ट है कि सावरकरजी गांधीजी से 14 वर्ष छोटे थे। 1896 में सावरकर 13 वर्ष के थे। तब उन्होंने एक ‘गौरवगीत’ रचा और महारानी विक्टोरिया की मूत्र्ति का मुंह काला कर उसे जूतों की माला पहनाई। मानो उन्होंने उसी दिन कह दिया था कि स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्घ अधिकार है। गांधीजी 1896 में 27 वर्ष के थे और इस अवस्था में विक्टोरिया रानी हीरक समारोह के सदस्य थे। तब उन्होंने बच्चों को ‘गॉड सेव द क्वीन’ गीत कंठस्थ कराया था। कहने का तात्पर्य है कि 27 वर्षीय गांधीजी का रानी को जूतों की माला पहनाने का तो दूर देश से सम्मान पूर्वक चले जाने को कहने का भी साहस नही था। 1897 में सावरकरजी ने वाक्यस्पर्धा में ओजस्वी भाषण देकर नासिकवासियों का मन जीत लिया था। जबकि 1895 में गांधीजी सभा में अपना पहला भाषण भी नही पढ़ पाए थे। उनका भाषण किसी अन्य व्यक्ति ने पढक़र सुनाया था।

1904 में सावरकरजी ने घोषणा की थी-‘‘आसुरी शस्त्र बल से अपने देश पर शासन चलाने वाली विदेशी दण्डसत्ता दैवी शस्त्रबल से ही उखाड़ फेंकना अनिवार्यता: संभव है। राजकीय स्वतंत्रता की कल्पना तक उस राष्ट्र को छोड़ देनी चाहिए जिस राष्ट्र को सशस्त्र क्रांतियुद्घ का संघर्ष अशक्य व असंभव लगता हो। इतिहास का यही कठोर सिद्घांत है।’’

इसी समय गांधीजी कह रहे थे-‘‘एडवर्ड राजा के भारतीय तथा यूरोपियन प्रजाजनों को निकट लाना। लोकमत को इष्ट रूप से प्रवाहित करना। हिंदी जनों को उनके अपने दोष, त्रुटियां समझाना तथा अपने न्यायपूर्ण अधिकारों को स्थापन करने हेतु उनकी सहायता करना।’’

इस पर सावरकरजी से 1906 में एक युवक ने प्रश्न किया कि क्या आप गांधीजी के इस प्रकार के मत से सहमत हैं तब उन्होंने लंदन जाते-जाते जहाज पर मिले उस युवक से कहा था-‘‘ब्रिटिशों के राजकाज में सुधार लाना हमारा प्रश्न नही है, ब्रिटिश राज को ही हम नही चाहते। ब्रिटिशों की पहनाई हुई बेडिय़ां चाहे सोने की हों, बेडिय़ां ही तो हैं, जिन्हें तोडक़र हम चाहते हैं कि हिंदुस्तान को स्वतंत्र करें।’’

1907 में वीर सावरकर ने 1857 की क्रांति की 50वीं वर्षगांठ लंदन में समारोहपूर्वक मनाई। अपने स्वतंत्रता सैनानियों को ‘स्वातंत्रयवीर’ कहा पर गांधीजी ऐसा कहने का साहस नही कर पाये। 1909 में विजयदशमी के दिन लंदन में क्रांतिकारियों ने एक विशेष कार्यक्रम किया। जिसके आयोजक सावरकरजी और उनके साथी ही थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता गांधीजी से करायी गयी। तब गांधीजी ने कहा था कि कुछ मतभिन्नता के उपरांत भी देशभक्त सावरकरजी के साथ कुछ समय बिताने का सौभाग्य मिला, यह मेरे लिए प्रसन्नता की बात है। ‘‘उनकी देशभक्ति तथा उनका स्वार्थत्याग, इनके परिणामस्वरूप मधुर फल अपने देश को निरंतर प्राप्त होवें।’’ वीर सावरकर ने 1857 का स्वातंत्रय समर जब लिखा तो उसको लिखने का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए लिखा कि-‘‘स्वराज्य एवं स्वधर्म के कारण जूझते-जूझते रणक्षेत्र में सहस्रावधि अज्ञात हुतात्माओं का पतन हो गया। आप जैसे वीरों की स्मृति को यह ग्रंथ समर्पित है। मानवता की सेवा करने हेतु जो अपना देहार्पण किया उन आपके नामों का उच्चारण तक का सौभाग्य भी दुर्भाग्यवश हमें प्राप्त नही हुआ। विजय हाथों से निकलते देखकर भी आपने अपनी कीत्र्ति पर किंचित मात्र धब्बा नही लगने दिया। …..आपका वही पराक्रम भविष्य के लिए चैतन्य निधान एवं प्रेरणा का स्रोत बना रहे।’’

स्पष्ट है कि वीर सावरकर सहस्रावधि से जलती आ रही स्वतंत्रता की ज्योति को और भी अधिक प्रज्ज्वलित करना चाहते थे। इसलिए अपने वीरों के शौर्य को जीवंत बनाये रखने के लिए उन्होंने यह ग्रंथ लिखा। उधर गांधीजी थे जिन्होंने ‘हिन्द स्वराज्य’ नामक पुस्तक केवल इसलिए लिखी कि भारत में अंग्रेजों के विरूद्घ जिस पराक्रम, शौर्य और वीरता का प्रदर्शन क्रांतिकारी कर रहे हैं, उसकी ज्योति को जितना शीघ्र हो सके बुझा दिया जाए। वह लिखते हैं :-‘‘भारत में तथा दक्षिण अफ्रीका में ‘हिंसावादी पंथ’ बढ़ रहा है (क्रांतिकारी सक्रिय हो रहे हैं) उस पंथ को इस राह पर से परावृत्त (अंग्रेजों के विरूद्घ संघर्ष से परे हटा दिया जाए) कर दिया जाए, इस हेतु से यह पुस्तक लिखी गयी है।’’

सावरकरजी ने कितने ही लोगों को सत्याग्रह और अनशन करने से रोककर शत्रु को क्षति पहुंचाने वाली देशभक्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी। कारण कि वह सत्याग्रह, अनशनभरी अहिंसा को अपने देश की स्वतंत्रता के मार्ग में बड़ी बाधा मानते थे। उनके कारावास के काल में नानी गोपाल नामक राजबंदी अंग्रेजों के अत्याचार से दु:खी होकर एक बार आमरण अनशन पर जाने लगे, तो उन्होंने श्री गोपाल को समझाते हुए कहा-‘‘इस भांति मरने की अपेक्षा कुछ पराक्रम करें, शत्रु पक्ष की हानि किया करें और फिर मरें यही उचित होगा।’’ जब 1914 में प्रथम विश्वयुद्घ आरंभ हुआ तो सावरकरजी उन दिनों जेल में थे। अण्डमान में उन्हें इसकी सूचना मिली तो कहने लगे-‘‘बहुत बुरी बात तो यह है कि इस पर्व के सुअवसर पर हम यहां अण्डमान में बंद पड़े हैं।’’ इसका अभिप्राय था कि वीर सावरकर जी विश्वयुद्घ में उलझे ब्रिटेन की विवशता का लाभ उठाकर तथा उसके शत्रुओं से उस समय हाथ मिलाकर अपना काम सिद्घ कर जाना उपयुक्त मान रहे थे।

इसके विपरीत गांधीजी 8 अगस्त 1914 को जब लंदन पहुंचे तो उस समय उन्होंने एक सभा को संबोधित करते हुए कहा था-‘‘इंग्लैंड पर आये हुए महायुद्घ के संकट का लाभ उठाकर हम अपनी मांगें बड़े जोर से और बड़ी ताकत के साथ पेश करेंगे इस विचारधारा को रखने वाला एक वर्ग था किंतु मेरे मन में है कि इंग्लैंड पर छाये इस प्रकार के संकट का लाभ हम न लें।’’ जो लोग गांधीजी की इस घोषणा से सहमत थे उन सबके हस्ताक्षर सहित एक आवेदन उन्होंने ब्रिटिश सरकार को भेज दिया, जिससे कि ब्रिटिश सरकार भारतीय लोगों से आश्वस्त हो जाए कि वे इस आपदकाल मेें उसके विरूद्घ ऐसा कुछ भी नही करेंगे जो उसके लिए कष्ट कर हो। गांधीजी की इस घोषणा का एक अभिप्राय यह भी था कि यदि हमारे इस आवेदन के उपरांत भी कोई व्यक्ति ब्रिटिश सरकार के विरूद्घ कोई क्रांतिकारी गतिविधि करता है तो यह उसका व्यक्तिगत विचार होगा। हम भारतीयों का (आवेदन पर हस्ताक्षर इसीलिए कराये गये थे कि वह आवेदन सब भारतीयों की ओर से लिखा गया, माना जाए) उससे कोई लेना-देना नही होगा। ऐसे गांधीजी से किसी भगतसिंह या उसके साथी को फांसी से बचाने की अपेक्षा भला कैसे की जा सकती थी?

सावरकरजी देश में एक देव, एक देश, एक आशा, एक जाति, एक जीव, एक भाषा के समर्थक थे। अपने आजीवन कारावास के दिनों में वह लोगों को यही पाठ पढ़ाते थे। जिससे पता चलता है कि वे किस प्रकार की राष्ट्रीय एकता के समर्थक थे? पर गांधीजी देश में हर स्थान पर विभिन्नताएं ही खोजते रहे और उन्हें खाद पानी भी देते रहे। जिससे देश में साम्प्रदायिकता बढ़ी और गांधीजी के राष्ट्रवाद में मिलने वाले विभिन्नता के बीज का लाभ उठाकर मुस्लिम लीग का द्विराष्ट्रवाद का सिद्घांत विकसित होते-होते एक दिन वट वृक्ष बन गया। गांधीजी ने 4 फरवरी 1916 को लॉर्ड हार्डिग के हाथों काशी में हिंदू विद्यापीठ के भवन की नींव रखे जाने के अवसर पर अपना भाषण देते समय स्पष्ट कहा था-‘‘इन अत्याचारी (क्रांतिकारी) विद्रोहियों की देशप्रीति के कारण मेरे लिए वे आदर के पात्र हैं। अपने देश के वास्ते वे मृत्यु को गले लगाने के लिए तैयार रहते हैं। उनकी यह वीरवृत्ति मेरे लिए निरंतर कौतुक का विषय है। फिर भी उनका मार्ग मुझे पसंद नही है।’’ 1916 में गांधीजी ने इसी विद्यपीठ के इस कार्यक्रम में विद्यार्थियों को शिक्षा प्रदान करने का माध्यम उनकी मातृभाषा ही होनी चाहिए, ऐसा कहा था। पर 1925 में गांधीजी अपनी बात से पलट गये-जब उन्होंने ंिहंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा बनाने संबंधी पारित प्रस्ताव पर अपनी सम्मति प्रदान कर दी।

सावरकरजी के प्रति लोगों में कितना सम्मान भाव था, इसका पता हमें सावरकरजी से अण्डमान में मिले कुछ बंदियों के इस कथन से चल जाता है-‘‘आप जबसे अण्डमान आये हैं अमेरिका से जलयान में आने वाले हिंदी लोग अण्डमान की ओर सम्मुख होकर नमस्कार करते हैं।’’ यह सम्मान केवल इसीलिए था कि वे क्रांति में विश्वास करते थे। 12 अप्रैल 1919 को कर्णावती (अहमदाबाद) में क्रांतिकारियों ने बड़ा ऊधम मचाया। वहां पर सैनिक शासन लागू कर दिया गया। तब 23 अप्रैल को गांधीजी वहां चले गये। उन्होंने कहा-‘‘इस नगर में कुछ दिन पहले जो घटनाएं हुई वे लांछनास्पद हैं। यह सब मेरे नाम पर किया गया, इसलिए मैं बहुत शर्मिंदा हूं।’’ जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड पर भी गांधीजी के विचार देखने योग्य हैं-‘‘वहां अपने निरपराध बांधवों का कत्लेआम कर दिया गया, इस बात का मुझे अफसोस है, लेकिन अपने लोगों ने अंग्रेजों के खून किये इस बात का मुझे अधिक दु:ख है।’’ सरदार भगतसिंह और उनके साथियों को फांसी गांधीजी के कारण हुई थी। जिस पर हमने पूर्व में प्रकाश डाला है। इसी वर्ष (1931) 4 अगस्त को उन्होंने कहा था-‘‘कुछ युवक मुझसे कहते हैं कि अगर तुम हमारी सहायता नही करते हो तो चुपचाप बैठे रहो। उत्तर में मेरा कहना है कि क्या अंग्रेज अधिकारियों का खून करना चाहते हो? तो फिर उसके पूर्व तुम मुझे ही जान से क्यों नही मार डालते हो? जब तक मैं जिंदा हूं तुम्हारा प्रतिरोध करता ही रहूंगा। अगर मुझे जिंदा रखना चाहते हो तो सरकारी अधिकारियों के खून मत किया करो।’’ दु:ख की बात यह थी कि गांधीजी ने ऐसे कठोर शब्द कभी भी अंग्रेजों या मुस्लिमों से नही कहे कि मेरे देशवासियो या हिंदू लोगों का खून करना बंद करो, अन्यथा मैं जिंदा नही रह सकता। बस उनका यह दोगलापन ही आज तक बहुत से देशवासियों को अखरता है।

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राकेश कुमार आर्य
उगता भारत’ साप्ताहिक / दैनिक समाचारपत्र के संपादक; बी.ए. ,एलएल.बी. तक की शिक्षा, पेशे से अधिवक्ता। राकेश आर्य जी कई वर्षों से देश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। अब तक चालीस से अधिक पुस्तकों का लेखन कर चुके हैं। वर्तमान में ' 'राष्ट्रीय प्रेस महासंघ ' के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । उत्कृष्ट लेखन के लिए राजस्थान के राज्यपाल श्री कल्याण सिंह जी सहित कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं । सामाजिक रूप से सक्रिय राकेश जी अखिल भारत हिन्दू महासभा के वरिष्ठ राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और अखिल भारतीय मानवाधिकार निगरानी समिति के राष्ट्रीय सलाहकार भी हैं। ग्रेटर नोएडा , जनपद गौतमबुध नगर दादरी, उ.प्र. के निवासी हैं।

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