यह सृष्टि किसने, क्यों व कब बनाई?

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1994

godमनमोहन कुमार आर्य
हम संसार के अन्य लोगों व प्राणी समूहों सहित अपने जन्म से इस सृष्टि वा संसार में रह रहे हैं। हमसे पूर्व हमारे पूर्वज व अन्य प्राणी इस संसार में रहते आये हैं। आगे भी यह सिलसिला जारी रहेगा। मौलिक प्रश्न यह है कि सारा संसार, सृष्टि या ब्रह्माण्ड, किसने, क्यों व कब बनाया है? इसका सही व यथार्थ उत्तर वैदिक धर्मियों के पास है जो वेद व वैदिक ग्रन्थों के प्रमाण, तर्क व युक्ति से इसका समाधान करते हैं। हमने भी इन तथ्यों को पढ़ा, समझा है और विचार किया है तथा उन्हें सत्य पाया है। समस्त सृष्टि को किस एक सत्ता ने बनाया है? का उत्तर प्रत्येक कार्य की सम्पन्नता में उस-उस कार्य का कोई कत्र्ता हुआ करता है। बिना कर्त्ता के कोई कार्य और कोई कार्य बिना कत्र्ता के कदापि नहीं होता। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय के कार्यों में भी एक सृष्टिकर्त्ता है। उस सृष्टिकर्त्ता को जानना ही प्रत्येक मनुष्य जिसके पास बुद्धि है और जो अपने आपको ज्ञानी, समझदार व विवेकशील मानते हैं, उनका मुख्य कर्तव्य है कि वह इस संसार के रचयिता को जाने। इसको जानने के लिए यदि वेद और वैदिक साहित्य को पहले देख, पढ़ व समझ लिया जाये तो इससे विषय को जानने में आसानी होगी।

महर्षि दयानन्द ने सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय पर प्रकाश डाला है। ऋग्वेद, यजुर्वेद और तैत्तिरीयोपनिषद के आधार पर वह कहते हैं कि हे मनुष्य ! जिससे यह विविध सृष्टि प्रकाशित हुई है, जो धारण और प्रलय कर्त्ता है, जो इस जगत् का स्वामी, जिस व्यापक में यह सब जगत् उत्पत्ति-स्थति-प्रलय को प्राप्त होता है, सो परमात्मा है, उस को तू जान और दूसरे को सृष्टिकर्त्ता मत मान।।1।। यह सब जगत् सृष्टि के पहिले अन्धकार से आवृत्त, रात्रिरूप में जानने के अयोग्य, आकाशरूप सब जगत् तथा तुच्छ अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सम्मुख एकदेशी, आच्छादित था। पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामर्थ्य से, कारणरूप से कार्यरूप कर दिया।2।। हे मुनष्यों ! जो सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों का आधार और जो यह जगत् हुआ, है और होगा, उसका एक अद्वितीय पति परमात्मा इस जगत् की उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान था, और जिसने पृथिवी से लेके सूर्य पर्यन्त जगत् को उत्पन्न किया है, उस परमात्मा देव की प्रेम से भक्ति किया करें।।3।। हे मनुष्यों ! जो सब में पूर्ण पुरुष और जो नाशरहित कारण और जीव का स्वामी, जो पृथिव्यादि जड़ और जीव से अतिरिक्त है, वही पुरुष, इस सब भूत, भविष्यत् और वर्तमानस्थ जगत् को बनाने वाला है।।4।। जिस परमात्मा की रचना से ये सब पृथिव्यादि भूत उत्पन्न होते हैं, जिससे जीवते (विद्यमान रहते) और जिसमें प्रलय को प्राप्त होते हैं, वह ब्रह्म है, उसके जानने की इच्छा करो।।5।।

जन्माद्यस्य यतः।। यह शारीरक सूत्र का अ. 1 सूत्र 2 है। जिस से इस जगत् का जन्म, स्थिति और प्रलय होता है, वही ब्रह्म जानने योग्य है। (प्रश्न) यह जगत् परमेश्वर से उत्पन्न हुआ है, वा अन्य से? (उत्तर) निमित्त कारण परमात्मा से उत्पन्न हुआ है, परन्तु इसका उपादान कारण प्रकृति है। (प्रश्न) क्या प्रकृति परमेश्वर ने उत्पन्न नहीं की? (उत्तर) नहीं, वह अनादि है। (प्रश्न) अनादि किस को कहते हैं और कितने पदार्थ अनादि हैं? (उत्तर) ईश्वर, जीव और जगत् का कारण, ये तीन अनादि हैं। इसके बाद स्वामी दयानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश में इन मान्यताओं से जुडी सभी शंकाओं का समाधान किया है और विषय पर विस्तार से प्रकाश डाला है। पाठक कृपया इन्हें सत्यार्थप्रकाश में ही देख लें। महर्षि दयानन्द ने वैदिक प्रमाणों के आधार पर सृष्टि की रचना करने वाले ईश्वर के सत्य स्वरूप का वर्णन भी किया है। ईश्वर का उल्लेख करते हुए वह लिखते हैं कि ईश्वर सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सब का आदि मूल है। ईश्वर सच्चिदानन्द-स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाघार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है। महर्षि दयानन्द ने इन पंक्तियों में ईश्वर वा सृष्टि को बनाने वाले सृष्टिकर्ता का जो स्वरूप व उसके गुण, कर्म व स्वभावों का वर्णन किया है वह तर्क व युक्तियों से भी पूर्णतः सत्य सिद्ध होता है। योग द्वारा समाधि अवस्था पर पहुंच कर ईश्वर का साक्षात्कार भी किया जा सकता है जिससे वैदिक सिद्धान्तों के वैज्ञानिक व सत्य होने में किंचित भी शंका नहीं रहती अपितु उनकी पुष्टि होती है।

एक माता और उसके शिशु के उदाहरण से भी हम ईश्वर के सृष्टि की रचना के सिद्धान्त को समझ सकते हैं। मां अपने बच्चे की आवश्यकताओं को भली प्रकार जानती व समझती है। उसको स्वच्छ वस्त्र धारण कराती है, उसे उसके शरीर की आवश्यकता के अनुरुप स्वास्थ्यवर्धक व हितकर भोजन कराती है, रोगी होने पर औषधोपचार करती है और नाना प्रकार से उसकी सेवा व रक्षा करती है। यह मां का स्वाभाविक गुण व धर्म है। इसी प्रकार पशु-पक्षी भी अपनी-अपनी सन्तानों के प्रति अपने कर्तव्य बोध में आबद्ध देखे जाते हैं। प्रकृति में प्रत्येक जड़ पदार्थ भी अपने धर्म व कर्तव्य का पालन करता है जैसे अग्नि जलाने व प्रकाश करने, जल शीतलता प्रदान करने, वायु श्वसन-क्रिया में सहायक होने आदि कार्यों को करते व कर रहे हैं। ईश्वर सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, दयालु, कृपालु, सब जीवों का माता-पिता-आचार्य-न्यायाधीश है। यदि माता-पिता-पशु-पक्षी अपने सन्तानों की रक्षा व पालन कर सकते हैं, तो फिर ईश्वर ऐसा न करे, यह सम्भव नहीं है। माता-पिता आदि की तरह से ही ईश्वर भी सब जीवात्माओं की रक्षा व सुख देने के लिए सृष्टि बनाकर सबका पालन करता है, यह स्पष्ट होता है।

ईश्वर से बनी सृष्टि का प्रयोजन क्या है? यह प्रश्न भी मनुष्य के मन में आना स्वभाविक है। इसका उत्तर है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान है, सृष्टि की रचना कर सकता है तथा पहले भी पूर्व कल्पों में अनेक बार उसने सृष्टि की रचना की है। कारण सत्, रज व तम गुणों वाली सूक्ष्म प्रकृति पूर्णतयः उसके वश व नियंत्रण में है। उस प्रकृति का होना ही सृष्टि के निर्माण के लिए है, सूक्ष्म व एकदेशी तथा ससीम पदार्थ जीवात्मा संसार व आकाश में बड़ी संख्या में है, उनके पूर्व कल्पों में प्रलय से पूर्व मनुष्य योनि में किए गये कर्म भोग करने से बचे हुए हैं, ईश्वर उन्हें उन कर्मों के अनुसार सुख व दुःख दे सकता है, ईश्वर सृष्टि की रचना कर सकता है, करता है तो वह जीवात्माओं वा मनुष्यों द्वारा प्रशंसित होता है न करे तो उसे निठल्ला ही कहेंगे। एक बच्चा स्कूल जाता है परन्तु पढ़ाई मन लगा कर नहीं करता, परीक्षा में फेल हो जाता है, घर वाले उसे निठल्ला व निकम्मा कहते हैं। वह सामान्य रूप से खाता-पीता व सभी काम करता है परन्तु पढ़ाई की उपेक्षा करता है जिसे वह चाहे, प्रयास करे, संकल्प कर उसका आचरण करें तो कर सकता है, परन्तु करता नहीं और अपनों व दूसरों के द्वारा निन्दित होता है। ऐसा ही कुछ-कुछ सृष्टि की रचना न करने पर ईश्वर के विषय में भी कहा जायेगा। बुद्धिमान व विवेकशील मनुष्य कभी कर्तव्यों की उपेक्षा नहीं करता। प्रकृति का प्रत्येक प्राणी ही नहीं अपतिु जड़ परमाणु व पदार्थ भी क्रियाशील व गतिशील देखे जाते हैं तो चेतन, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान व सर्वज्ञ ईश्वर भी सृष्टि रचना में समथ होने व इसे अपना कर्तव्य जानकर सृष्टि की रचना सप्रयोजन करता है जिससे प्रलय अवस्था में प्रसुप्त जीवों को सुख व उनके पूर्व कर्मों का भोग प्राप्त हो सके। इसी प्रयोजन से ईश्वर सृष्टि व मनुष्यों सहित नाना प्राणी योनियां बनाकर उनका संचालन व व्यवस्था कर रहा है।

सृष्टि कब बनी है, इसका उत्तर भी वैदिक धर्मियों के पास है। आर्य लोग सृष्टि के प्रथम दिन से ही काल गणना करते आये हैं। उन्होंने पूरे सृष्टि काल को 1000 चतुर्युगियों में बांटा है। एक चतुर्युगी में चार युग क्रमशः सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग होते हैं। कलियुग 4.32 लाख वर्षों का होता है, इसका दुगुना द्वापर, तीन गुना त्रेता और चार गुना सतयुग होता है। चार युगों अर्थात् एक चतुर्युगी का योग 43.20 लाख वर्ष होता है। जब ईश्वर ने अमैथुनी सृष्टि की तो प्रथम मन्वन्तर का सतयुग का प्रथम दिन था जो उत्तरोत्तर बढ़ते आ रहे हैं। पूरे सृष्टिकाल की गणना करने के लिए 71 चतुर्युगीयों के समान अवधियों के 14 मन्वन्तर बनायें हैं। प्रतिदिन एक दिन जोड़ते व एक दिन घटाते जाते हैं। वर्तमान में सृष्टि के बनने व मानव के उत्पन्न होने से अब तक 1,96,08,53,115 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नया वर्ष आरम्भ होता है। इतना काल सृष्टि उत्पन्न होकर मनुष्योत्पत्ति के बाद व्यतीत हुआ है। इस समय मानव व वेद सृष्टि संवत् के एक अरब छियानवे करोड़ आठ लाख त्रेपन हजार एक सौ सोलहवें वर्ष का भाद्रपद मास चल रहा है और आज 11 सितम्बर 2016 को भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि है। भाद्रपद मास से पूर्व चैत्र, बैसाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण मास इस वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। इतने वर्ष पूर्व हमारी इस सृष्टि का निर्माण हुआ था। सृष्टि संवत् को स्मरण रखने के लिए सभी आर्य वैदिक धर्मी लोग यज्ञादि से पूर्व संकल्प पाठ का उच्चरण करते है उसके अनुसार भी यही सृष्टि संवत् विद्यमान है।

सृष्टि विषयक ज्ञान के लिए सभी जिज्ञासुओं को वैदिक साहित्य का अध्ययन करना चाहिये। ऐसा करने पर वह संसार को भली प्रकार जानने सहित अपने जीवन के उद्देश्य वा लक्ष्य को भी जान सकेंगे जो और कुछ नही अपितु धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति अथवा अभ्युदय और निःश्रेयस सिद्धि है। ईश्वर उपासना, वैदिक धर्म व कर्तव्यों आदि के पालन से यह लक्ष्य प्राप्त होते हैं। मोक्ष प्राप्ति होने पर मनुष्य का जीवात्मा 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों तक दुःखों से पूर्णतया मुक्त होकर ईश्वर के आनन्दस्वरूप में ईश्वर के साथ रहता हुआ आनन्द को भोक्ता है। यही मनुष्य की जीवात्मा का चरम लक्ष्य है। सत्यार्थप्रकाश का अध्ययन कर मोक्ष विषय को पूर्णतयः समझा जा सकता है। वैदिक धमी सभी ऋषि, योगी इतर आर्यजन इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अपना सारा जीवन अभ्युदय व मोक्ष प्राप्ति के कार्यों में ही लगाते थे। हम समझते हैं कि पाठक हमारे आज के लेख के विषय को जानने में समर्थ होंगे और इस लेख से उनको इस विषय को समझने में कुछ सहायता मिलेगी।

3 COMMENTS

  1. मैं आप पूछना चाहता हूं कि धरती व मानव संरचना का मुख्य उद्देश्य क्या है।please tell me urgently.

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