किसकी जीत किसकी हार?

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रामकृष्ण

प्रदेश लोक संगठन (ज़ेड) के उपाध्यक्ष सुदामा पांडे के संबंध में यह जगज़ाहिर था कि उनका सम्पूर्ण परिवार ही नेताओं का है. प्रदेश के आधे से अधिक नेता या तो उनके संबंधी थे, या चेले. स्वयं घर में बड़ा लड़का रमेश देश के एक बहुत बड़े नेता का राजनीतिक सचिव था, छोटा पुत्र अविनाश प्रदेश के राष्ट्रीय मज़दूर संघ का अध्यक्ष, दामाद शेखर अपने क्षेत्र का सर्वमान्य नेता तो अविवाहिता छोटी पुत्री अणिमा प्रदेश के छात्र संगठन की एक कर्मठ कार्यकर्त्री. स्वयं तो प्रदेश लोक संगठन (ज़ेड) के उपाध्यक्ष थे ही, पत्नी भी स्थानीय महिला मण्डल की गतिविधियों में सक्रिय भाग लेती थीं, यहां तक कि सात वर्ष का पोता आलोक भी अपने घर के आसपास के लड़कों का नेतृत्व करता हुआ जब बाहर निकलता था तो किसी भावी नेता से कम नहीं मालूम पड़ता था. लोग कहते थे, नेतृत्व पर सुदामा पांडे का जैसे मौरूसी हक़ सा हो गया हो.

लेकिन उनकी यही चतुर्मुखी प्रगति संगठन में उनकी अपनी लोकप्रियता में बाधक सिद्ध हुई. वहां उनके खि़लाफ़ एक प्रभावशाली लॉबी पैदा हो गयी जिसका काम हर वक्त उन्हें टंगड़ी मारना था. सुदामा पांडे प्रभावशाली होने के बावजूद चूंकि सीधेसादे किस्म के राजनीतिज्ञ थे, इससे इन बातों को समझते हुए भी वह चुप ही रह जाते. उनका विरोधी ख़ेमा अपनी लोकप्रियता बढ़ाने में अलग से लगा हुआ था, अतः संसद के लिये उम्मीदवार चुनने के लिये लोक संगठन (ज़ेड) ने जब अपना चुनाव बोर्ड बनाया तो उसमें उनके विरोधी गुट के सदस्य ही अधिेक संख्या में आये. सुदामा पांडे और उनके दूसरे स्वजन-परिजन तो पहले से ही संसद, विधानसभा और विभिन्न आयोगों-निगमों के सदस्य थे, दामाद शेखर ही ऐसा बाकी रहा था जिसे अब तक कोई ठोस कुरसी नहीं मिल पायी थी. सुदामा पांडे उसे भी कहीं फ़िट करने के लिये प्रयत्नशील न रहे हों ऐसा नहीं, लेकिन चुनाव बोर्ड में उनके विरोधी गुट ने इस बार पूरी तरह तय कर रखा था कि चाहे जो कुछ हो जाये, सुदामा पांडे के किसी अन्य सगेसंबंधी को वह संसद में नहीं पहुंचने देंगे.

इधर सुदामा पांडे को इस बात का पूरा विश्वास था कि इस बार शेखर भी लोकसभा के लिये चुन लिया जायेगा, क्योंकि पिछले शासन को विघटित करने में उसके योगदान की सबने प्रचुर प्रशंसा की थी. शेखर उसके चमचे भी इस दिशा में पूरी तरह आशान्वित थे. लेकिन जब पता चला कि चुनाव बोर्ड उसे टिकट देने के मूड में नहीं है तो स्वयं सुदामा पांडे ने बोर्ड के सम्मुख प्रतिवेदन करने का निश्चय किया. बोर्ड के अधिकांश सदस्य चूंकि उनके विरोधी गुट से सम्बद्ध थे इससे अपने मंतव्य की सफलता की उन्हें कोई विशेष आशा नहीं थी, तब भी उनके स्वजन-परिजनों ने एक बार बोर्ड के सदस्यों से मिलने के लिये उन्हें बाध्य ही कर दिया.

चुनाव बोर्ड के अध्यक्ष भानुप्रताप यादव सुदामा पांडे के पुराने सहयोगियों में थे, लेकिन इधर कुछ दिनों से दोनों के बीच कुछ मनमुटाव पैदा हो चला था. तब भी सुदामा पांडे के पहुंचने पर भानुप्रताप ने उठ कर उनका स्वागत किया. वह इतना तो समझ ही गये थे कि सुदामा पांडे किस उद्देश्य से उनके पास पधारे हैं, तब भी अपनी ओर से तत्संबंध में मौन रहना ही उन्होंने श्रेयस्कर समझा. कुछ देर तक इधर-उधर की बातचीत होती रही. अंत में सुदामा पांडे ही काम की बात पर आये. बोले — कहिए यादवजी, आपके चुनाव का कार्य अभी समाप्त हुआ या नहीं?

भानुप्रताप ने उत्तर दिया — अभी तो नहीं, पांडेजी, लेकिन आप लोग तो चुन ही लिये जायेंगे इसका आप विश्वास रक्खें.

— अकबरपुर निर्वाचन क्षेत्र से आपने किसे खड़ा करने को सोचा है? — सुदामा पांडे ने बात आगे बढ़ायी.

— अभी तो मामला विचाराधीन ही है, कुछ तय नहीं हुआ कि वहां से किसे टिकट दिया जाये. वैसे आपकी क्या राय है इस बारे में? — यादव ने पूंछा.

सुदामा पांडे बोले — पंडित शेखरसरन को क्यों नहीं खड़ा कर देते?

जानते हुए भी भानुप्रताप अनजान बने — कौन शेखरसरन?

— अरे, पंडित शेखरसरन तिवारी, अकबरपुर के लोक संगठन (ज़ेड) के प्रधान. आश्चर्य है, आप उनको नहीं जानते?

— वह तो शायद आपके कोई रिश्तेदार भी हैं न? — भानुप्रताप ने पूंछा.

— जी हां, मेरी बड़ी पुत्री सुषमा के पति हैं. बड़े ही कार्यकुशल और कर्मठ कार्यकर्त्ता हैं. संसद में उनके रहने से आपको बहुत सहायता मिलेगी. — सुदामा पांडे ने गंभीरतापूर्वक उत्तर दिया.

भानुप्रताप ने अब साफ़ बात करना ही उचित समझा. बोले — सच बात, पांडेजी, यह है कि एक ही घर-परिवार के इतने अधिक व्यक्तियों को ले लेने से लोक संगठन (ज़ेड) को प्रतिष्ठा खोने का भय है. शेखरसरनजी से मैं अच्छी तरह परिचित हूं और यह मैं मानता हूं कि लोकसभा की सदस्यता के लिये वह एक सुयोग्य व्यक्ति हैं, लेकिन जनता का मुंह भी तो बंद नहीं किया जा सकता. लोग तो यही कहेंगे कि शेखरसरनजी सुदामा पांडे के दामाद थे, इसलिये ले लिये गये.

— ख़ैर, जैसी आप लोगों की मर्ज़ी. लेकिन तब भी आपने उस निर्वाचन क्षेत्र से किसे खड़ा करने को सोचा है? — सुदामा पांडे ने पूंछा.

— मैंने बताया न, पांडेजी, अभी तक कुछ निश्चित नहीं है. लेकिन लोगों का ऐसा विचार है कि वहां से रजनीकांत को खड़ा किया जाये.

— कौन रजनीकांत? अपनी यूथ विंग का सेक्रेटरी तो नहीं?

— जी हां, वही. बड़ा मेधावी कार्यकर्त्ता है.

— लेकिन उसकी उम्र तो अभी कुछ भी नहीं. इस जगह के लिये तो आपको किसी अनुभवी व्यक्ति को खड़ा करना चाहिए था. — सुदामा पांडे बोले.

— उम्र से क्या होता है, पांडेजी. — भानुप्रताप ने कहा — वहां की ग्रामीण जनता में उसका बड़ा प्रभाव है. एक वोट भी अलग नहीं पड़ेगा.

— तो ठीक है, कोई बात नहीं. हमें तो आजकल नवयुवा कार्यकर्त्ताओं की ही बहुत आवश्यकता है. आपके चुनाव पर मैं आपको बधाई देता हूं. — कुरसी से उठते हुए सुदामा पांडे ने कहा.

भानुप्रताप भी अपनी जगह से उठ कर हंसने की कोशिश करते हुए बोले — इसमें मैं बधाई का पात्र नहीं, पांडेजी, यह आप सबकी कृपा है. — फिर अपने मुख में किंचित गंभीरता का समावेश करते हुए उन्होंने कहा — क्या बताऊं, पांडेजी, शेखरसरनजी आ जाते तो मुझे स्वयं बड़ी प्रसन्नता होती, लेकिन कहने वालों को क्या कहा जाये? मुझे ख़ुद बहुत अफ़सोस है …. तभी सुदामा पांडे ने बात काटते हुए कहा — खै़र, कोई बात नहीं. अभी तो राज्यसभा के लिये भी कई नामांकन होने हैं.

— हां, हां. — भानुप्रताप बोले — वह तो और भी अच्छा है. हर्रा लगे न फिटकरी, आये पक्का रंग. मैं अपनी ओर से पूरी कोशिश करूंगा कि उसमें शेखरजी चुन लिये जायें. — और इतना कह कर वह विजयगर्व से मुस्करा उठे.

धन्यवाद की मुद्रा बनाते हुए सुदामा पांडे ने जवाब दिया — जी हां, प्रयत्न कीजिएगा. और यह तो अच्छा ही हुआ जो आपने रजनीकांत को अकबरपुर से खड़ा करने को चुना. अब तो वह भी अपने ही परिवार में सम्मिलित होने वाला है. उसने और बेटी अणिमा ने कल ही मुझे अपने प्रणय की सूचना दी है और शीघ्र ही उनका विवाह सम्पन्न हो जायेगा. आपको भी निमंत्रण देता हूं, आना भूलिएगा नहीं.

और इतना कह कर वह चल दिये.

भानुप्रताप सोच रहे थे – विजय किसकी हुई? – उनकी, या सुदामा पांडे की?

1 COMMENT

  1. श्रद्धेय राम कृष्ण के अनुसार यह कहानी १९५३ में प्रकाशित उनके कथा संग्रह अपना राज अपना आदमी से ली गयी है.अगर प्रकाशन के कुछ पूर्व यह कहानी लिखी गयी होगी तो वह काल प्रथम भारतीय लोक सभा के चुनाव(१९५२) के समय का है.इससे यह पता चलता है कि या तो यह भाई भतीजावाद उस समय भी जोरो पर था या उस चौबीस वर्षीय युवक ने (श्रीराम कृष्ण के अनुसार उनकी यही उम्र उस समय थी.)भविष्य को भाँप लिया था.
    ऐसे कहानी अच्छी है और हमारी वर्तमान राजनैतिक व्यवस्था का दर्पण है.

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