राकेश कुमार आर्य
कैसे होगी इस देश के संस्कारों की रक्षा? जो पढ़ा हुआ है उसके विषय में माना जाता है कि वह बढ़ा हुआ देशप्रेमी है। वह बढ़ा तो है, किंतु विचारणीय बात यह है कि वह किस क्षेत्र में बढ़ गया? जो उसके लिए सर्वथा वर्जित और त्याज्य था वह उसकी ओर क्यों और कैसे चला गया? किसी ने भी आज तक नही सोचा। आज अशिक्षितों से अधिक शिक्षितों से इस देश की निजता को संकट उत्पन्न हो गया है। कैसे होगी इस आदर्श की रक्षा?
‘वर्धस्व च वर्धय’ अर्थात स्वयं बढ़ो और दूसरों के बढऩे में सहायक बनो, परंतु आधुनिकता के नाम पर भारत को उजाड़ कर जिस इंडिया का निर्माण किया जा रहा है। उसके प्रति सरकारी दृष्टिकोण एकदम रूखा है।
ईसाई मिशनरी देश में फेल रही हैं। उनके विचारों से भारतीय युवा वर्ग प्रभावित हो रहा है। भौतिकवाद की चमक-दमक और सरकारी उपेक्षावृत्ति उन्हें अपने देश, अपनी संस्कृति और अपने मूल्यों से काट रही है। ईसाईयत की बाढ़ से भारतीय धर्म की चट्टानें कट रही हैं और किसी के होठों पर उफ तक नही। कौन से मुंह से कहें कि हम भारतीय हैं या हमारा हिंदुस्तान सारे जहां से अच्छा है। इस शिक्षा प्रणाली के दोषों ने हमें किस स्थान पर पहुंचा दिया है? इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि-
-आज विश्व हमारे वेदों, उपनिषदों, स्मृतियों, रामायण, गीता और महाभारत जैसे ग्रथों पर रिसर्च अर्थात शोध कर रहा है और हम उन्हें रूढि़वादिता की बातें मानकर पीछे छोडक़र आगे बढऩा चाहते हैं। जीवन मूल्यों की इतनी उपेक्षा क्यों?
-महर्षि पतंजलि का अष्टांगयोग जो आज पश्चिमी जगत के लिए तो आश्चर्य, कौतूहल, जिज्ञासा और शोध का विषय बना हुआ है किंतु भारतीयों के लिए नही।
-संस्कृत भाषा व हिंदी भाषा भी आजकल विदेशियों के लिए पठनीय, ग्रहणीय भाषायें बनती जा रही हैं, जबकि भारत के असम क्षेत्र में आज भी भाषाई दंगे हो रहे हैं।
-आज की शिक्षा पद्घति ने हमसे यह सब कुछ छीन लिया है। राष्ट्र की आत्मा कुचल दी है। मानव को दानव बना दिया है। स्वाभिमान, राष्ट्रप्रेम और मानव प्रेम सब बीते दिनों की बातें हो गयीं हैं। इससे तो उत्तम था पूर्वजों का वह अशिक्षा का दौर या उन गरीबों और अशिक्षितों का वह वातावरण जो पुआल जलाकर उस पर बैठकर तापते हुए एक दूसरे के दुख दर्द की बातें पूछकर उसके काम आ जाया करते थे।
निर्धन के चिकित्सक वैद्य
आज की शिक्षा ने मनुष्य को डाक्टर बना दिया, किंतु वैद्य नही बना पाई जो केवल गरीबों की चिकित्सा के लिए उस व्यवसाय को अपनाता था। डाक्टर केवल रईसों का चिकित्सक है। वह पैसे कमाने के लिए अवांछित हथकंडे अपनाता है। इतने पर भी पता नही क्यों कह दिया जाता है -इस निर्मम संसार को ‘सभ्य संसार’। जहां गरीब को अशिक्षा के भंवर में फंसाकर उत्पीडि़त कर चिकित्सा कराने में असमर्थ बनाकर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है वह कैसा सभ्य समाज है? ये कैसा सभ्य संसार है?
दलितों, शोषितों और उपेक्षितों की राजनीति करने वाले समस्या के इस मूल पर प्रहार क्यों नही करते? दलन, शोषण व उपेक्षा के इन तरीकों को उखाड़ फेंकने के लिए कमर क्यों नही कसते? भारत में इन शब्दों के सहारे राजनीति की जा सकती है। राजनीति की फसल काटी जा सकती है, बोई जा सकती है, किंतु इन शब्दों की पूरी तरह समाप्ति भारतीय समाज से हो जाए- इस दिशा में कोई ठोस प्रगति नही की जा सकती, क्योंकि राजनीति के लिए विचार चाहिए विचारों का समाधान नही। समस्या मुद्दा बना रहे और उससे राजनीति की फसल लहलहाती रहे, इसी व्यभिचार में सारी राजनीति और नेता फंसे पड़े हैं। इस लेखनी के दर्द को सुनिये-
किसी ने पूछा कि तेरा व्यापार कितना है?
किसी ने पूछा कि तेरा कारोबार कितना है?
किसी ने पूछा कि तेरा परिवार कितना है?
किसी ने न पूछा कि तेरा गरीब से प्यार कितना है?
किसके पास समय है, असहाय के आंसू पोंछने और उसके हालचाल पूछने का? उसकी आह को प्रारब्ध का खेल और अपनी मौज मस्ती को भाग्य का फल मान लिया जाता है। अब ये खेल बंद होना चाहिए। जिस शिक्षा ने दिलों में गांठ लगाने का काम किया है उसमें ‘आमूलचूल परिवर्तन’ की आवश्यकता है। देखिये रहीम की ये पंक्तियां कितनी सार्थक हैं-
रहिमन खोजो आम में, जहां रसन की खान।
जहां गांठ तहां रस नही यही प्रीति की हान।।
अत: यह व्यवस्था भी जले और इसके व्यवस्थापक भी जलें और कोई नया राग या नई धुन छेड़ी जाए। पंडित ब्रजनारायण चकबस्त जी की ये पंक्तियां इस नये राग को नई धुन दे सकती हैं-
गूंचे हमारे दिल के इस बाग में खिलेंगे।
इस खाक से उठे हैं इस खाक में मिलेंगे।।
गर्दों गुबार मां का, खिलअत है अपने तन को।
मरकर भी चाहते हैं, खाके वतन कफन को।।