करीब छः माह से राजनीतिक दावपेंच और कानूनी लडाई के शिकार उत्तर प्रदेश निकाय चुनावो की घोषणा अतंतः 25 मई को हो ही गई। आप को याद ही होगा कि पिछले साल नवंबर 2011 में प्रदेश की नगर पालिकाओ का कार्यकाल पूरा हो गया था, मगर आरक्षण समेत विभिन्न कारणो से उत्तर प्रदेश निकायों का चुनाव अधर में लटका हुआ था। पिछले दिनो माननीय उच्चतम न्यायालय ने इस संबंध में उत्तर प्रदेश सरकार को 31 मई से पहले निकाय चुनावो की घोषणा करने का निर्देष दिया था। जिस के तहत सरकार ने निकाय चुनाव की घोषणा तो कर दी साथ ही सपा के राष्ट्रीय महामंत्री प्रो.रामगोपाल यादव जी ने एक और घोषणा करते हुए ये कहा कि इस बार प्रदेश के निकाय चुनावों में पार्टी के सभी कार्यकर्ता चुनाव लडना चाहते है। ऐसे में पार्टी हित को देखते हुए किसी एक व्यक्ति को सिंबल देकर चुनाव मैदान में उतारना उचित नही। दरअसल विधानसभा चुनाव में उम्मीद से ज्यादा सीटे पाने वाली समाजवादी पार्टी को लग रहा है कि उस के लिये विधानसभा कि तरह ही इन निकाय चुनाव में भी टिकट दावेदारो की संख्या मुसीबत बन सकती है। क्यो कि जिस कार्यकर्ता को पार्टी टिकट नही देगी वो ही नाराज हो जायेगा और ये नगर निकाय की नाराजगी आगामी 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव में कुछ न कुछ असर जरूर दिखायेगी जिस का नुकसान पार्टी को जरूर होगा। शायद ऐसा कर के सपा एक तीर से तीन शिकार करना चाहती है, नम्बर एक वो ज्यादा से ज्यादा सीटे भी चाहती है, कार्यकर्ताओ को खुश भी रखना चाहती है और लोकसभा के लिये अपने कार्यकर्ताओ का उत्साह बरकरार रखना चाहती है।
दूसरी ओर बसपा सुप्रीमो मायावती ने विधानसभा चुनाव में हार के बाद ये ऐलान किया था कि बसपा उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव नही लडेगी उन्होने ये भी ऐलान किया था कि अगर बसपा का कोई कार्यकर्ता निकाय चुनाव लड़ता है तो उसे पार्टी से निकाल दिया जायेगा। पर पता नही क्यो अचानक बसपा सुप्रीमो को निकाय चुनाव के खट्टे अंगूर मीठे लगने लगे और उन्होने उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव की घोषणा के बाद ही मायावती ने अपना स्टैंड़ बदल लिया और अपने कार्यकर्ताओ को चुनाव लडने की छूट दे दी पर ये बेचारे भी स्वतंत्र उम्मीदवार की हैसियत से चुनाव लड़ेगे इन्हे भी सपा की तरह ही पार्टी सिंबल व झंडे का इस्तेमाल करने का अधिकार नही होगा। सवाल ये उठता है कि उत्तर प्रदेश में सब से ज्यादा जनाधार वाली पार्टिया सपा और बसपा का निकाय चुनाव अपने सिंबल और झंड़े पर न लड़ने का फैसला भले ही लोगो को अटपटा लगे और आसानी से हजम न हो रहा हो मगर अगर इन पार्टी के फैसले को राजनीतिक दृष्टि से देखे तो दोनो ही पार्टिया इस में अपना हित देख रही है। क्यो कि अब तक प्रदेश के बसपा हो या सपा दोनो का ही शहरी क्षेत्रो वाले इस निकाय चुनाव में कभी भी दबदबा और जनाधार नही रहा। ऐसे में इन दोनो राजनीतिक पार्टियो का ये सोचना है कि निकाय चुनाव के नतीजे चाहे जो भी आये ‘‘हाथी’’ और ‘‘साईकिल’’ के मैदान में न होने से दोनो पार्टियो की इज्जत बची रहेगा और जो पार्टी कार्यकर्ता जीत कर आयेगा वो पार्टी छोडकर कहा जायेगा यानी जीते तो वाह वाह सपा,बसपा की जीत हारे तो हम लडे ही नही। वर्ष 2006 निकाय चुनाव में मेयर की आठ सीटे जीतने वाली भाजपा की प्रतिष्ठा इस बार दांव पर लगी है।
हालाकि भाजपा और कांग्रेस इन निकाय चुनाव को लेकर काफी उत्साहित लग रहीं है और ये दोनो ही पार्टिया सपा बसपा से अलग अपने अपने चुनाव चिंह के साथ मैदान में उतरेगी। इन चुनाव को लेकर भाजपा सब से ज्यादा उत्साहित है लोकसभा और विधानसभा चुनावो में लगाता पिट रही पार्टी के लिये यह चुनाव अपी ताकत दिखाने का बेहतरीन मौका है। क्यो कि अभी हाल ही में दिल्ली नगर निगम के चुनाव में भाजपा को जिस प्रकार शानदार सफलता मिली है उस से उस का उत्साह यकीनन बढा है। कांग्रेस अपनी गलत नीतियो और देश में बढती दिन प्रतिदिन मंहगाई, पेट्रोल के दामो मे बेतहाशा बढोतरी के कारण लोगो की नाराजगी की शिकार हो रही है जिस कारण उसे दिल्ली निकाय चुनाव में जबरदस्त हार का मुॅह देखना पड़ा, लेकिन इस के बावजूद उसे उम्मीद है कि उत्तर प्रदेश में उस का प्रदर्शन सुधरा है। पिछले मेयर के चुनाव में भाजपा की आठ सीटो के साथ ही कांग्रेस तीन सीटो पर कब्जा करने में कामयाब हुई थी। जब की इस वक्त प्रदेश में सत्ताधारी सपा केवल एक ही मेयर सीट हासिल कर पाई थी।
दरअसल करीब 20 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश के 22 प्रतिशत से ज्यादा लोग जिस शहरी क्षेत्र में रहते है उस का राजनीतिक माहौल अब तक वैसा नही रहा है जैसा पूरे प्रदेश में होना चाहिये। उत्तर प्रदेश के शहरी और ग्रामीण मतदाओ की सोच में अन्तर है। प्रदेश के शहरी क्षेत्रो में आज भी भाजपा का जनाधार प्रदेश की तमाम राजनीतिक पार्टियो से ज्यादा है। वही गांव और कस्बो में लोग बसपा और सपा का दबदबा मानते है। ये में नही बल्कि उत्तर प्रदेश के वो बीते निकाय चुनावो आंकडे कहते है। करीब साढ़े चार करोड़ की आबादी वाले शहरी क्षेत्रो का प्रतिनिधित्व करने वाले लगभग 630 नगरीय निकायो में भाजपा ने 2000 और 2006 के निकाय चुनाव में ज्यादातर सीटो पर कब्जा किया था। बसपा क्यो कि पिछले चुनाव में भी सीधे तौर पर निकाय चुनाव के मैदान में नही उतरी थी इस कारण उस का जनाधार स्पष्ट नही हो पायेगा। इस बार भी निकाय चुनाव अपने सिंबल पर न लड़ने का फैसला कर के बसपा ने टिकट बंटवारे को लेकर अपने पदाधिकारियो-कार्यकर्ताओ में उपजने वाले असंतोष से खुद को तो बचा लिया पर ऐसा कर के क्या वो निकाय चुनाव में अपना दबदबा भी बना पायेगी कहना बड़ा मुश्किल है क्यो कि उत्तर प्रदेश में सत्ता गंवाने वाली बसपा भी अपने एक एक कदम फूंक मार मार कर रख रही है और 2014 लोकसभा चुनाव की पुरी तैयारी में है ऐसे में अगर निकाय चुनाव में वो बेहतर प्रदर्शन न कर पाई तो ऐसी दशा में जनता में ये संदेश जायेगा कि बसपा जनता में लगातार अपना जनाधार खो रही है।
इन सब बातो से एक बात तो बिल्कुल साफ है कि सत्ताधारी सपा हो या सत्ता गवाने वाली बसपा निकाय चुनाव में जनता के बीच जाने से दोनो ही पार्टिया घबरा रही है। वजह भी बिल्कुल साफ है आज आम आदमी जिस प्रकार मंहगाई की मार झेल रहा है उस में का दुख दर्द बाटने वाला कोई नही पिछले दिनो 7.50 रूपये पेट्रोल में बढोतरी की गई किसी दल ने इसे गम्भीरता से नही लिया ऐसे में प्रदेश का हर वोटर इन राजनीतिक पार्टियो से बेहद नाराज है। भले ही निकाय चुनाव में एक ओर उम्मीदवारो की हार जीत होगी तो दूसरी ओर सियासत की बिसात पर दिग्गजो के बीच शह मात का खेल पर आम आदमी हमेशा की तरह हर एक चुनाव की तरह इस चुनाव के बाद भी खुद को ठगा सा महसूस करेगा