भ्रष्टाचार क्यूँ नहीं बन रहा मुख्य चुनावी मुद्दा ?

पूरा देश इस वक़्त भ्रष्टाचार से त्रस्त है| निचले स्तर से लेकर शीर्ष तक; सर्वत्र भ्रष्टाचार ने अपनी जडें मजबूत की हैं| भ्रष्टाचार को लेकर देश की छवि वैश्विक परिदृश्य में कितनी खराब हुई है यह इस बात से समझा जा सकता है कि बीते वर्ष हांगकांग स्थित एक प्रमुख व्यापारिक सलाहकार संस्थान ने अपने सर्वे में भारत को एशिया-प्रशांत के १६ देशों के बीच चौथा सबसे भ्रष्ट देश बताया था| हालांकि इस तरह के सर्वेक्षणों पर संशय के बादल हमेशा रहते हैं मगर इस तथ्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि हमारे देश में भ्रष्टाचार एक ऐसा नासूर बन चुका है जिसे जड़समूल समाप्त करना किसी के बस में नहीं है| विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र और भ्रष्टाचार से पीड़ित; बड़ा अजीब सा लगता है| चूँकि लोकतंत्र में असली ताकत जनता के हाथों होती है इसलिए भारत में भी बढ़ते भ्रष्टाचार के लिए एक हद तक जनता को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है| किंतु यह भी उतना ही सत्य है कि राजनेताओं की कारगुजारियों ने भी भ्रष्टाचार को बढ़ाने में अपनी अहम भूमिका निभाई है| देश में व्याप्त राजनीतिक शून्यता के कारण वर्तमान राजनीति दिग्भ्रमित होती जा रही है| कोई भी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आम आदमी के साथ खड़ा नहीं होना चाहता| ऐसा प्रतीत होता है जैसे यदि किसी ने भ्रष्टाचार के मुद्दे को हाथ लगाया तो उसकी आंच उसी का हाथ जला देगी|

 

अभी पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव में भी भ्रष्टाचार का मुद्दा चुनावी परिदृश्य से ही गायब है| पंजाब, उत्तराखंड और मणिपुर जहां मतदान संपन्न हो चुका है; वहां भी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सभी राजनीतिक दलों ने चुप्पी ओढ़ ली| उदाहरण के लिए पंजाब में सत्तारूढ़ भाजपा-अकाली दल की सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे मगर मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस उन मुद्दों को उठाने में नाकाम रही| उत्तराखंड में तात्कालीन भाजपा सरकार ने भ्रष्टाचार के दल-दल में आकंड डूबे निशंक को मुख्यमंत्री पद से हटा राज्य की कमान खंडूरी को सौंपी मगर राज्य में मजबूत लोकपाल के गठन तथा स्वयं की ईमानदार छवि भी खंडूरी की राह आसान नहीं कर रही| यहाँ भी भ्रष्टाचार का मुद्दा अन्य मुद्दों की अपेक्षा गौण हो गया| यही हाल उत्तरप्रदेश का है जहां अपने पांच वर्ष के कार्यकाल में माया सरकार पर भ्रष्टाचार के कई संगीन आरोप लगे मगर कांग्रेस-भाजपा-सपा जैसी विपक्षी पार्टियां भ्रष्टाचार को मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने से बचती नज़र आ रही हैं| आखिर क्यों तमाम राजनीतिक दल भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाने से डर रहे हैं? कारण स्पष्ट है- जब तमाम राजनीतिक पार्टियां ही भ्रष्टाचार के दल-दल में आखंड डूबी हुई हों तो किस मुंह से वे भ्रष्टाचार के मुद्दे को जनता की अदालत में ले जाना चाहेंगी?

 

बीते वर्ष अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने जिस तरह मध्यमवर्गीय समाज को भ्रष्टाचार के विरुद्ध एकजुट एवं जागरूक किया उससे भी राजनीतिक पार्टियों की रातों की नींद उड़ गई| हालांकि अन्ना का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन अब दम तोड़ चुका है; फिर भी हमारे नेतागण यह अच्छी तरह जानते हैं कि यदि उन्होंने भ्रष्टाचार के मुद्दे को चुनावी रंग दिया तो खुद का दागदार दामन वह कैसे बचा पायेंगे? बात यदि उत्तरप्रदेश की ही करें तो केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस; जो प्रदेश में अपनी खोई साख तथा जनाधार पाने हेतु संघर्षरत है; वह भी माया सरकार कार्यकाल में हुए भ्रष्टाचार पर सवाल नहीं उठा रही| एकाध बार यदि पार्टी के किसी नेता ने सवाल उठाये भी हैं तो प्रतिउत्तर में उसे केंद्र में व्याप्त भ्रष्टाचार की याद दिला उसकी बोलती बंद करा दी गई है| यानी भ्रष्टाचार पर सार्थक राजनीति होने की बजाए अब इससे बचा जा रहा है|

 

यह स्थिति हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए एक खतरनाक परिपाटी का जन्म है जिससे हमें दीर्घकालीन नुकसान होना तय है| जितने भी राजनीतिक दल हैं, सभी राजनीति में बदलाव की बात करते हैं मगर वो बदलाव कहाँ चाहते हैं? क्या मात्र पांच वर्षों में सत्ता के शीर्ष पर काबिज़ होना ही बदलाव माना जाए| यक़ीनन नहीं; मगर यह हमारी विडम्बना ही है कि लोकतंत्र की सबसे मजबूत कड़ी होने के बावजूद हम बेबस और निरीह नज़र आते हैं| आम आदमी भ्रष्टाचार से आजिज है, अमीर और अमीर होता जा रहा है जबकि गरीब और गरीबी की ओर अग्रसर है| इन परिस्तिथियों में यदि कोई भी राजनीतिक दल भ्रष्टाचार के विरुद्ध मोर्चा खोलने से डरता है तो समझ लेना चाहिए कि हमारा लोकतंत्र निरंतर राजनेताओं द्वारा छला जा रहा है| ऐसे में इस बार के विधानसभा चुनाव आम आदमी के लिए एक सुनहरा अवसर प्रदान कर रहे हैं कि वे तमाम राजनीतिक दलों और उनके शीर्ष नेताओं से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर दो-टूक बात करें ताकि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सभी दलों का नजरिया साफ़ हो और जनता-जनार्दन भी अपना फैसला सुनाने में किसी संशय में न रहे| धर्म, जाति, सम्प्रदाय इत्यादि की राजनीति ज्यादा दिनों तक राजनीतिक दलों की ढाल के रूप में उन्हें विजयश्री नहीं दिला सकती| अब वक़्त बदल रहा है और जनता जागरूक हो गई है| अतः राजनीतिक दलों को चाहिए की वे आम आदमी की भावनाओं का सम्मान करें और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर बेबाकी से अपनी राय रखें ताकि समाज को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने में मदद मिले|

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सिद्धार्थ शंकर गौतम
ललितपुर(उत्तरप्रदेश) में जन्‍मे सिद्धार्थजी ने स्कूली शिक्षा जामनगर (गुजरात) से प्राप्त की, ज़िन्दगी क्या है इसे पुणे (महाराष्ट्र) में जाना और जीना इंदौर/उज्जैन (मध्यप्रदेश) में सीखा। पढ़ाई-लिखाई से उन्‍हें छुटकारा मिला तो घुमक्कड़ी जीवन व्यतीत कर भारत को करीब से देखा। वर्तमान में उनका केन्‍द्र भोपाल (मध्यप्रदेश) है। पेशे से पत्रकार हैं, सो अपने आसपास जो भी घटित महसूसते हैं उसे कागज़ की कतरनों पर लेखन के माध्यम से उड़ेल देते हैं। राजनीति पसंदीदा विषय है किन्तु जब समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का भान होता है तो सामाजिक विषयों पर भी जमकर लिखते हैं। वर्तमान में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, हरिभूमि, पत्रिका, नवभारत, राज एक्सप्रेस, प्रदेश टुडे, राष्ट्रीय सहारा, जनसंदेश टाइम्स, डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट, सन्मार्ग, दैनिक दबंग दुनिया, स्वदेश, आचरण (सभी समाचार पत्र), हमसमवेत, एक्सप्रेस न्यूज़ (हिंदी भाषी न्यूज़ एजेंसी) सहित कई वेबसाइटों के लिए लेखन कार्य कर रहे हैं और आज भी उन्‍हें अपनी लेखनी में धार का इंतज़ार है।

2 COMMENTS

  1. लेखक महोदय का विचार है कि
    …………ऐसे में इस बार के विधानसभा चुनाव आम आदमी के लिए एक सुनहरा अवसर प्रदान कर रहे हैं कि वे तमाम राजनीतिक दलों और उनके शीर्ष नेताओं से भ्रष्टाचार के मुद्दे पर दो-टूक बात करें ताकि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सभी दलों का नजरिया साफ़ हो और जनता-जनार्दन भी अपना फैसला सुनाने में किसी संशय में न रहे|……….

    मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि आम आदमी कैसे दो टूक बात करे? आम आदमी के पास कौनसा ऐसा मंच है? इसी आस में अन्ना के साथ कुछ ईमानदार आम लोग जुड़े थे, जिन्हें जीवन भर अन्ना का साथ देने का मलाल रहेगा! कडवी सच्चाई तो ये है कि भ्रष्टाचार के मुद्दे की जान अन्ना और बाबा रामदेव ने ही निकाली है! क्योंकि आम आदमी जानता है कि बाबा धनकुबेर बन चुका है! आम आदमी ये भी जानता है कि अन्ना के प्रत्यक्ष और परोक्ष साथी तथा सहयोगी कौन हैं? आम आदमी जान चुका है कि अन्ना का और बाबा रामदेव दोनों का मकसद व्यवस्था नहीं सरकार बदलना है! जबकि ये कार्य आम आदमी विगत में अनेक बार कर चुका है! हर बार आम आदमी को ही ठगा गया है! ऐसे आम आदमी किससे और क्या दो टूक बात करे?

  2. नेता भले ही भ्रष्टाचार पर चुप्पी साध लें केकिन जनता ने इसको बड़ा मुद्दा मन लिया है तभी तो उत्तराखंड, पुनजब और उत्तर प्रदेश में इसी कारन सरकारें बदलने जा रही हैं.

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