नये साल के लिए एक जनवरी ही क्यों !

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विनोद बंसल

एक जनवरी के नजदीक आते ही जगह-जगह हैप्पी न्यू ईयर के बैनर व होर्डिंग लगने लगते हैं। जश्न मनाने की तैयारियां प्रारम्भ हो जाती हैं। होटल, रेस्तरॉ, व पव इत्यादि अपने-अपने ढंग से इसके आगमन की तैयारियां करने लगते हैं। पोस्टर व कार्डों की भरमार के साथ दारू की दुकानों की भी चांदी कटने लगती है। कहीं कहीं तो जाम से जाम इतने टकराते हैं कि घटनाऐं दुर्घटनाओं में बदल जाती हैं और मनुष्य- मनुष्यों से तथा गाड़ियां गाडियों से भिडने लगते हैं। रात-रात भर जाग कर नया साल मनाने से ऐसा प्रतीत होता है मानो सारी खुशियां एक साथ आज ही मिल जायेंगी। हम भारतीय भी पश्चिमी अंधानुकरण में इतने सराबोर हो जाते हैं कि उचित अनुचित का बोध त्याग अपनी सभी सांस्क्रतिक मर्यादाओं को तिलांजलि दे बैठते हैं। पता ही नहीं लगता कि कौन अपना है और कौन पराया।

जनवरी से प्रारम्भ होने वाली काल गणना को हम ईस्वी सन् के नाम से जानते हैं जिसका सम्बन्ध ईसाई जगत् व ईसा मसीह से है। इसे रोम के सम्राट जूलियस सीजर द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया गया। भारत में ईस्वी सम्वत् का प्रचलन अग्रेंजी शासकों ने 1752 में किया। अधिकांश राष्ट्रों के ईसाई होने और अग्रेंजों के विश्वव्यापी प्रभुत्व के कारण ही इसे विश्व के अनेक देशों ने अपनाया। 1752 से पहले ईस्वी सन् 25 मार्च से प्रारम्भ होता था किन्तु 18वीं सदी से इसकी शुरूआत एक जनवरी से होने लगी। ईस्वी कलेण्डर के महीनों के नामों में प्रथम छः माह यानि जनवरी से जून रोमन देवताओं (जोनस, मार्स व मया इत्यादि) के नाम पर हैं। जुलाई और अगस्त रोम के सम्राट जूलियस सीजर तथा उनके पौत्र आगस्टस के नाम पर तथा सितम्बर से दिसम्बर तक रोमन संवत् के मासों के आधार पर रखे गये। जुलाई और अगस्त, क्योंकि सम्राटों के नाम पर थे इसलिए, दोनों ही इकत्तीस दिनों के माने गये अन्यथा कोई भी दो मास 31 दिनों या लगातार बराबर दिनों की संख्या वाले नहीं हैं।

ईसा से 753 वर्ष पहले रोम नगर की स्थापना के समय रोमन संवत् प्रारम्भ हुआ जिसके मात्र दस माह व 304 दिन होते थे। इसके 53 साल बाद वहां के सम्राट नूमा पाम्पीसियस ने जनवरी और फरवरी दो माह और जोड़कर इसे 355 दिनों का बना दिया। ईसा के जन्म से 46 वर्ष पहले जूलियस सीजन ने इसे 365 दिन का बना दिया। सन् 1582 ई. में पोप ग्रेगरी ने आदेश जारी किया कि इस मास के 04 अक्टूबर को इस वर्ष का 14 अक्टूबर समझा जाये। आखिर क्या आधार है इस काल गणना का ? यह तो ग्रहों व नक्षत्रों की स्थिति पर आधारित होनी चाहिए।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् नवम्बर 1952 में वैज्ञानिक और औद्योगिक परिषद के द्वारा पंचांग सुधार समिति की स्थापना की गयी। समिति ने 1955 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में विक्रमी संवत को भी स्वीकार करने की सिफारिश की थी। किन्तु, तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू के आग्रह पर ग्रेगेरियन कलेण्डर को ही सरकारी कामकाज हेतु उपयुक्त मानकर 22 मार्च 1957 को इसे राष्ट्रीय कलेण्डर के रूप में स्वीकार कर लिया गया।

ग्रेगेरियन कलेण्डर की काल गणना मात्र दो हजार वर्षों के अति अल्प समय को दर्शाती है। जबकि यूनान की काल गणना 3579 वर्ष, रोम की 2756 वर्ष यहूदी 5767 वर्ष, मिस्त्र की 28670 वर्ष, पारसी 198874 वर्ष तथा चीन की 96002304 वर्ष पुरानी है। इन सबसे अलग यदि भारतीय काल गणना की बात करें तो हमारे ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 109 वर्ष है। जिसके व्यापक प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में एक-एक पल की गणना की गयी है।

जिस प्रकार ईस्वी सम्वत् का सम्बन्ध ईसा जगत से है उसी प्रकार हिजरी सम्वत् का सम्बन्ध मुस्लिम जगत और हजरत मुहम्मद साहब से है। किन्तु विक्रमी सम्वत् का सम्बन्ध किसी भी धर्म से न हो कर सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत व ब्रह्माण्ड के ग्रहों व नक्षत्रों से है। इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना व राष्ट्र की गौरवशाली परम्पराओं को दर्शाती है। इतना ही नहीं, ब्रह्माण्ड के सबसे पुरातन ग्रंथ वेदों में भी इसका वर्णन है। नव संवत् यानि संवत्सरों का वर्णन यजुर्वेद के 27वें व 30वें अध्याय के मंत्र क्रमांक क्रमशः 45 व 15 में विस्तार से दिया गया है। विश्व में सौर मण्डल के ग्रहों व नक्षत्रों की चाल व निरन्तर बदलती उनकी स्थिति पर ही हमारे दिन, महीने, साल और उनके सूक्ष्मतम भाग आधारित होते हैं।

इसी वैज्ञानिक आधार के कारण ही पाश्चात्य देशों के अंधानुकरण के बावजूद, चाहे बच्चे के गर्भाधान की बात हो, जन्म की बात हो, नामकरण की बात हो, गृह प्रवेश या व्यापार प्रारम्भ करने की बात हो, सभी में हम एक कुशल पंडित के पास जाकर शुभ लग्न व मुहूर्त पूछते हैं। और तो और, देश के बडे से बडे़ राजनेता भी सत्तासीन होने के लिए सबसे पहले एक अच्छे मुहूर्त का इंतजार करते हैं जो कि विशुद्ध रूप से विक्रमी संवत् के पंचांग पर आधारित होता है। भारतीय मान्यतानुसार कोई भी काम यदि शुभ मुहूर्त में प्रारम्भ किया जाये तो उसकी सफलता में चार चांद लग जाते हैं। वैसे भी भारतीय संस्कृति श्रेष्ठता की उपासक है। जो प्रसंग समाज में हर्ष व उल्लास जगाते हुए एक सही दिशा प्रदान करते हैं उन सभी को हम उत्सव के रूप में मनाते हैं। राष्ट्र के स्वाभिमान व देश प्रेम को जगाने वाले अनेक प्रसंग चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से जुडे़ हुए हैं। यह वह दिन है जिस दिन से भारतीय नव वर्ष प्रारम्भ होता है। आईये, इस दिन की महानता के प्रसंगों को देखते हैं –

ऐतिहासिक महत्व

1       यह दिन सृष्टि रचना का पहला दिन है। इस दिन से एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 109 वर्ष पूर्व इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्मा जी ने जगत की रचना प्रारंभ की।

2       विक्रमी संवत का पहला दिन: उसी राजा के नाम पर संवत् प्रारंभ होता था जिसके राज्य में न कोई चोर हो, न अपराधी हो, और न ही कोई भिखारी हो। साथ ही राजा चक्रवर्ती सम्राट भी हो। सम्राट विक्रमादित्य ने 2067 वर्ष पहले इसी दिन राज्य स्थापित किया था।

3       प्रभु श्री राम का राज्याभिषेक दिवस : प्रभु राम ने भी इसी दिन को लंका विजय के बाद अयोध्या में राज्याभिषेक के लिये चुना।

4       नवरात्र स्थापना : शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात्, नवरात्र स्थापना का पहला दिन यही है। प्रभु राम के जन्मदिन रामनवमी से पूर्व नौ दिन उत्सव मनाने का प्रथम दिन।

5       गुरू अंगददेव प्रगटोत्सव : सिख परंपरा के द्वितीय गुरू का जन्म दिवस।

6       आर्य समाज स्थापना दिवस : समाज को श्रेष्ठ (आर्य) मार्ग पर ले जाने हेतु स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन को आर्य समाज स्थापना दिवस के रूप में चुना।

7       संत झूलेलाल जन्म दिवस : सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार संत झूलेलाल इसी दिन प्रगट हुए।

8       शालिवाहन संवत्सर का प्रारंभ दिवस : विक्रमादित्य की भांति शालिनवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना।

9       युगाब्द संवत्सर का प्रथम दिन : 5112 वर्ष पूर्व युधिष्ठिर का राज्यभिषेक भी इसी दिन हुआ।

10    डा0 केशव राव बलीराम हैडगेबार जन्म दिवस : राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक थे।

प्राकृतिक महत्व

1     वसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी तथा चारों तरफ पुष्पों की सुगंधि से भरी होती है।

2     फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है।

3     नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात् किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिये यह शुभ मुहूर्त होता है।

क्या एक जनवरी के साथ ऐसा एक भी प्रसंग जुड़ा है जिससे राष्ट्र प्रेम जाग सके, स्वाभिमान जाग सके या श्रेष्ठ होने का भाव जाग सके। आइये! विदेशी को फैंक स्वदेशी अपनाऐं और गर्व के साथ भारतीय नव वर्ष यानि विक्रमी संवत् को ही मनायें तथा इसका अधिक से अधिक प्रचार करें।

11 COMMENTS

  1. @ डॉ.राजेश कपूर जी आप बिलकुल सही कह रहे हैं, वैज्ञानिक रूप से सही हम अपने केलेंडर को क्यों ना अपनाएँ बिलकुल अपनाएँ लेकिन यह एकदम से नहीं हो पायेगा यह बात आपको इसलिए माननी पड़ेगी क्यों की साल भर के भारतीय शासन के बल्कि विश्व के कार्यक्रम उसी के आधार पर बनते हैं, हाँ हम इसे अपने देश में अगर भागीरथी प्रयास करें तो लागू कर सकते हैं, जब छोटा सा देश नेपाल यह सब कर सकता है तो हम क्यों नहीं.

  2. बंसल जी अति उत्तम, समयानुकूल लेख हेतु साधुवाद, अभिनन्दन.

  3. सभी को भारतीय नव वर्ष की हार्दिक बधाई! कलि संवत ५११३ तथा विक्रमी संवत २०६८ प्रारम्भ हुआ.
    वैश्वीकरण के नाम पर एक अवैज्ञानिक संवत को ही क्यों अपनाएँ ? जब साड़ी सृष्टि सोई होती है तो पश्चिम का नव वर्ष शुरू होता है. सब से छोटा दिन बड़ा दिन कहलाता है. यदि ईसा का जन्म उस दिन हुआ तो फिर वही साल का पहला दिन ईसाईयों के लिए क्यों नहीं बना ? क्या संसार के इतिहास को केवल २००० की सीमा में बांधना कोई अक्ल की बात है. अनेकों प्राचीन संवत्सर है न, वे क्यों न अपनाए जाएँ ? यानी केवल दादागिरी की बात है, कोई तर्क या औचित्य नहीं. अतः तुम में डाम हो तो अपना संवत्सर भारत में ही नहीं संसार भर में प्रचलित करो. नहीं है तो दम पैदा करो. १२० करोड़ कोई कम नहीं होते !
    – हमारा संवत सृष्टि के अनुरूप है. जब शीत के बाद सृष्टि जागने लगती है, नए पुष्प, कोंपलें निकलने लगती हैं, तब हमारा नया साल शुरू होता है. सौर मंडल की गतिविधियों के अनुसार हमारी वर्ष, मास, तिथियों की गणना चलती है. पृथवी को गोल कहने वालों और पृथवी सूर्य के चारों और घुमती है;
    यह कहने वालों को जब इसाई देश और समाजों में मृत्युदंड देने की परम्परा थी, उनके वर्ष में जब केवल १० मास होते थे; उस से हज़ारों वर्ष पहले भी हमारी संवत्सर व काल गणनाए पुर्णतः वैज्ञानिक थीं. हमारे पंडितों द्वारा बिलकुल सही सूर्य और चन्द्र ग्रहण का समय बतलाने के कारण ईसाई आक्रमणकारी यूरोपियन हैरान होते थे. अतः हम अपने वैज्ञानिक संवत्सर को क्यूँ न अपनाएँ? समय की ज़रूरत के अनुसार कुछ समय तक विदेशी इसा संवत को भी चला लें पर इस विदेशी अवैज्ञानिक संवत को सदा के लिए अपनाए रखने का कोई कारण नहीं; एक हीन ग्रंथि या विदेशी शक्तियों के हस्तक होने के इलावा.

  4. आदरणीय बंसल जी बहुत रोचक जानकारी दी है आपने, यह सही है की अब हम वैश्विक मजबूरियों के कारण अंग्रेजी केलेंडर को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते तो इतना तो अवश्य ही कर सकते हैं की बच्चों को अपने सम्रद्ध शाली अतीत के बारें में समय समय पर बताते रहें, मैं नहीं समझता की अब बच्चे हिंदी महीनों के नाम भी जान पायेंगे.

  5. बहुत अच्छी जानकारी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद !

  6. शानदार लेख लिखा है, बशर्ते की दी गयी जानकारी प्रमाणिक हो. लेकिन समझ में नहीं आता कि इतना सब कुछ होते हुए भी भारतीय क्यों ईसाई वर्ष को अपना रहे है?

    वैसे अब हम वैश्विक युग में जी रहे हैं और अंगरेजी को अपना चुके है, ऐसे में हमें विश्व के साथ कदमताल करने के लिए वही मार्ग अपनाना होगा जो हमें और हमारी राष्ट्रीयता को वैश्विक पहचान प्रदान कर सके!

    इस प्रकार के आलेख अपने इतिहास को समझने के लिए उपयुक्त हैं. इससे अधिक नहीं.

  7. आपका समसामयिक प्रमाणिक लेख पढ़ कर बड़ी प्रसन्नता हुई. ये तथ्य अधिक से अधिक भारतीय जान सकें, यह प्रयास करने की ज़रूरत है. विनोद बंसल जी साधुवाद स्वीकार करें.

  8. अंग्रेजी में संस्कृत स्रोत—– सप्ताम्बर अश्ताम्बर नवम्बर दसाम्बर भी देख लेने की बिनती|

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  9. ऐसे तोयह लेख काफी खोजपूर्ण लगता है,पर चूँकि इस लेख में वर्णित तथ्यों का मुझे कोई ख़ास ज्ञान नहीं है अतः उसके बारे में मैं कुछ नहीं कहूँगा,पर एक बात मुझे खटकी, वह यह की मैंने पढ़ा है की दिवाली राम के अयोध्या आगमन और उनके राज्याभिषेक के उत्सव के रूप में मनाई गयी थी ,जो कार्तिक मास में पड़ता है.इस लेख में कहा गया है की राम का राज्याभिषेक चैत्र मास में हुआ था.पता नहीं कौन कथन सही है?

  10. आदरणीय विनोद बंसल जी सुन्दर लेख के लिए आपको बहुत बहुत बधाई…विक्रमी संवत के साथ साथ आपने भारतीयता की परिभाषा को भी भली प्रकार से समझाया है…आपके लेख में समस्त तथ्यों पर प्रकाश डाला गया है की किस प्रकार भारत व भारतीयता प्रकृति से जुड़े हुए हैं…भारत दर्शन प्रकृति के सीधे संपर्क में है…हमारे ऋषियों ने किस प्रकार से प्रकृति के सूत्रों की खोज की है वह यहाँ साफ़ जाहिर है…आपका ज्ञान व गृहों के आधार पर प्रकृति की रचना का आकलन सच में अद्भुत है…

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