इस बिहार का विकास क्‍यूं नहीं

सरिता कुमारी 

पिछले कुछ दशकों में देश के जिन राज्‍यों ने विकास की नई परिभाषा गढ़ी है उनमें बिहार का नाम सबसे उपर लिखा जा सकता है। कभी कुव्यवस्था और पिछड़ेपन का दंश झेलने वाला बिहार अब विकास की नई उचांईंयां छू रहा है। देश के कई नामी-गिरामी औद्योगिक घरानों ने राज्य में भारी निवेश की इच्छा जताई है। जो इस बात का संकेत है कि बिहार बदल गया है। विपक्षी पार्टी होने के बावजूद केंद्र के कई मंत्री विभिन्न अवसरों पर मुख्यमंत्री नितीश कुमार की तारीफ कर इसका प्रमाण दे चुके हैं। देश-विदेश की मीडिया ने भी तरक्की की राह पर आगे बढ़ते बिहार का गुनगान किया है।

विकास के इस चकाचौंध में कुछ पहलू ऐसे भी हैं जो हमारी नजरों से ओझल रह जाते हैं। वास्तव में विकास का असली पैमाना ग्रामीण क्षेत्रों में होने वाले कार्यों से लगाया जाना चाहिए। जहां बेरोजगारी, भूखमरी और बीमारियां आम होती हैं। बुनियादी सुविधाओं की कमी इसका असली चेहरा होता है। देश के अन्य राज्यों की तरह बिहार में भी एक बड़ी जनसंख्या गांव में निवास करती है। जहां बुनियादी समस्याएं आज भी मुंह बाए खड़ी है। राज्य के कई ग्रामीण क्षेत्र ऐसे हैं जो विकास की दौड़ में पीछे छूटते जा रहे हैं। ऐसा ही एक गांव है छपरा घाट मठ। राजनीतिक, सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर राज्य में प्रमुख स्थान रखने वाले दरभंगा शहर से महज़ कुछ किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस गांव के लोगों की बदनसीबी यह है कि न तो इनकी आवाज कभी सरकार तक पहुंची और न ही सरकारी सुविधा ने इस गांव का रूख किया है। एक हजार की जनसंख्या वाले इस गांव की नब्बे प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करती है। इनमें 15 प्रतिशत ऐसे भी हैं जिनका इस सूची में कभी नाम तक दर्ज नहीं हुआ है।

आजादी के 6 दशक बीत जाने के बाद भी यह गांव बिजली, सड़क, पानी, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित है। गांव के अधिकतर बुजुर्ग अब भी वृध्दावस्था पेंशन और इंदिरा आवास योजना की बाट जोह रहे हैं। यहां के ज्यादातर लोगों के पास रहने के लिए न तो अपनी जमीन है और न ही पक्के मकान उपलब्ध हैं। मिट्टी और प्लास्टिक के घर बरसात तथा ठंड के दिनों में कितने कारगर सिद्ध होते होंगे इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं होगा। गांव-गांव तक बिजली पहुंचाने की सरकारी योजना यहां कारगर नजर नहीं आती है। यूपीए को दुबारा सत्ता में लाने वाली मनरेगा स्कीम यहां लागु तो जरूर है परंतु यह ठेकेदारों के माध्यम से संचालित की जा रही है। यही कारण है कि यह भ्रश्टाचार की शिकार हो चुकी है। ठेकेदार गांव वालों को 100 दिनों का रोजगार देने की बजाए दस दिनों में ही काम से छुट्टी कर देता है। अलबत्ता जॉब कार्ड पर वह इन गरीबों से सौ दिनों के रोजगार दिलावाने का अंगुठा जरूर लगवा लेता है। शिक्षा से वंचित गांव में महिलाओं की स्थिती अत्यंत दयनीय है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में सुविधाओं के अभाव का सबसे ज्यादा खामियाज़ा यहां की गर्भवती महिलाओं को उठाना पड़ता है। प्रशिक्षित दाई की कमी के कारण कई बार प्रसव पीड़ा के दौरान इनकी मौत तक हो जाती है। गांव की सामाजिक कार्यकर्ता इंदुला देवी के अनुसार यहां की महिलाओं का स्वास्थ्य भगवान भरोसे है। खस्ताहाल सड़कें होने के कारण बीमारों को समय पर अस्पताल पहुंचाना काफी मुष्किल हो जाता है। वहीं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में डॉक्टरों की कमी का फायदा यहां के झोला छाप डॉक्टर उठाते हैं।

ज्ञात हो कि दरभंगा का यह क्षेत्र हर साल बाढ़ से प्रभावित होता है। इस गांव के इर्द-गिर्द तीन नदियां कमला बलान, गेंहुआ और हमेशा सुर्खियों में रहने वाली नदी कोसी अपनी मौजूदगी का एहसास कराती रहती है। वर्शा के समय इन नदियों का जलस्तर बढ़ने के साथ ही गांव वालों की मुसीबतें शुरू हो जाती हैं और उन्हें जान बचाने के लिए पलायन को मजबूर होना पड़ता है। अपना घर-बार छोड़कर महीनों बांध पर शरण लेना यहां के लोगों की नियती बन चुकी है। इंसानी जिंदगी की इससे बड़ी त्रासदी और क्या हो सकती है कि बाढ़ के दौरान गांव वाले जिस पानी में मलमूत्र त्याग करते हैं उसे ही इन्हें खाने-पीने के लिए इस्तेमाल करना होता है। यही कारण है कि इस दौरान ये डायरिया और उसके जैसी कई गंभीर बिमारियों का शिकार हो जाते हैं। बाढ़ के दौरान मरने वालों को रीति रिवाज के अनुसार अंतिम संस्कार भी नसीब नहीं हो पाता है और उनकी लाशें पानी में ही बहा दी जाती हैं, क्योंकि जहां जिंदा इंसानों को रहने के लिए जगह नहीं वहां भला मुर्दों को दफन करने अथवा उन्हें जलाने के लिए लकड़ी कहां से मयस्सर हो सकती है।

यह उदाहरण सिर्फ एक छपरा घाट का नहीं है। बल्कि राज्य के ऐसे कई गांव मिलेंगे जहां ऐसी ही कुछ तस्वीर नजर आएगी। ऐसा भी नहीं है कि इनकी कोई सुध लेने वाला नहीं हैं। राज्य सरकार की तरफ से हर संभव सहायता उपलब्ध कराई जाती है और काफी गंभीरता से काम भी किया जाता है। परंतु निचले स्तर पर यह केवल राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था के मकड़जाल का शिकार होकर रह जाता है। जरूरत है व्यवस्था के एक ऐसे सिस्टम को उजागर करने की जहां विकास की लौ सभी तक पहुंचे। अगर हम बिहार के समूचे परिदृश्‍य पर नजर डालें तो यह कहने में कोई संकोच नहीं होता है कि बिहार बदल गया है। लेकिन यह बदलाव कोई जादू की छड़ी से नहीं हुआ है बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति के बलबूते हासिल किया गया है और अब इसी इच्छाशक्ति का अधिकाधिक प्रयोग करने की जरूरत है। (चरखा फीचर्स)

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